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आदित्य चोपड़ा; तेलंगाना के मुख्यमन्त्री श्री के. चन्द्रशेखर राव की राष्ट्रीय अपेक्षाएं बहुत अन्तराल से हिलोरे मार रही हैं और इस क्रम में वे देश की विभिन्न क्षेत्रीय पार्टियों से मिलकर एक ऐसा विपक्षी साझा मंच बनाने का प्रयास कर रहे हैं जिसमें कांग्रेस पार्टी को शामिल न किया जाये। वास्तव में उनका यह प्रयास हवा में गांठ मारने के समकक्ष देखा जा रहा है क्योंकि भाजपा विरोध के नाम पर वे विभिन्न क्षेत्रीय दलों का एक राष्ट्रीय मोर्चा या महागठबन्धन बनाना चाहते हैं। श्री चन्द्रशेखर राव की पार्टी तेलंगाना राष्ट्रीय समिति वास्तव में कांग्रेस से निकली हुई पार्टी ही है। हकीकत तो यह भी है कि 2004 के लोकसभा व संयुक्त आन्ध्र प्रदेश विधानसभा के चुनाव तेलंगाना राष्ट्रीय समिति ने कांग्रेस पार्टी के साथ मिलकर ही लड़े थे और इस वर्ष के कांग्रेस के चुनाव घोषणापत्र में पृथक तेलंगाना राज्य बनाने का वादा भी किया गया था। परन्तु बाद में 2004 से लेकर 2014 तक केन्द्र में सत्तारूढ़ रही यूपीए की डा. मनमोहन सिंह सरकार के विभिन्न घटक दलों के बीच इस मुद्दे पर आम राय नहीं बन सकी, उसे देखते हुए इस राज्य का गठन टलता रहा परन्तु 2014 में मनमोहन सरकार के अन्तिम समय के दौरान तत्कालीन गृहमन्त्री श्री पी. चिदम्बरम ने हैदराबाद में तेलंगाना राष्ट्रीय समिति के नेताओं द्वारा किये जा रहे आंदोलन को देखते हुए जिस तरह रातोंरात पृथक राज्य तेलंगाना के गठन का फैसला लिया उससे यह राज्य 2 जून, 2014 को बाकायदा विधिवत अस्तित्व में आया और तब से ही श्री चन्द्रशेखर राव के हाथ में इस राज्य की बागडोर है।2014 से लेकर अब तक लगभग हर विवादास्पद मुद्दे पर श्री राव की पार्टी ने परोक्ष रूप से केन्द्र में सत्तारूढ़ भाजपा पार्टी का समर्थन ही किया है। परन्तु पिछले दो साल से श्री राव ने प्रखर भाजपा विरोध का रुख अख्तियार करके ऐसा विपक्षी मोर्चा बनाने की मुहीम चला रखी है जिसमें कांग्रेस पार्टी शामिल न हो। अपनी राष्ट्रीय आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए अब उन्होंने अपनी पार्टी का नाम बदल कर भी 'भारत राष्ट्र समिति' रखने का फैसला किया है। सवाल यह है कि क्या केवल नाम बदलने से श्री राव की पार्टी का विस्तार तेलंगाना से बाहर के राज्यों में हो सकता है ? वास्तविकता तो यह है कि श्री राव की पार्टी की कोई हैसियत उस आन्ध्र प्रदेश में भी नाम मात्र की ही जिससे अलग होकर तेलंगाना का गठन हुआ। दूसरा प्रमुख प्रश्न यह है कि क्या भाजपा विरोध के नाम पर कोई ऐसा मोर्चा व्यावहारिक राजनैतिक विकल्प हो सकता है जिसमे कांग्रेस पार्टी ही शामिल न हो। वैसे गौर से देखा जाये तो राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा के विरोध में यदि कांग्रेस समेत सभी विरोधी क्षेत्रीय दलों का भी सांझा गठबन्धन बनता है तो वह भी व्यावहारिक विकल्प नहीं हो सकता क्योंकि दुर्भाग्य से प्रत्येक क्षेत्रीय दल का राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय दृष्टिकोण बहुत सीमित है और इनका लक्ष्य केवल क्षेत्रीय नजरिये को वरीयता देते हुए अपने-अपने वोट बैंक का निर्माण करना है। राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय नीतिगत लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए इन्हें कांग्रेस या भाजपा में से किसी एक के सहारे की सख्त जरूरत रहती है। एेसा हम लगातार 1996 से देख रहे हैं, जब से देश में सांझा सरकारों के गठन की प्रक्रिया शुरू हुई है। यह संयोग नहीं कहा जा सकता कि भारत के लगभग प्रत्येक प्रमुख क्षेत्रीय दल को भाजपा या कांग्रेस के साये में ही केन्द्र में सत्ता में भागीदारी करने का अवसर मिल चुका है। हम देख चुके हैं कि इन सांझा सरकारों के दौरान इन क्षेत्रीय दलों की भूमिका अपने-अपने राज्यों की राजनीति को ही प्रभावित करने की रही है और सत्ता में शामिल रहते हुए इसके लाभ उठाते हुए अपनी-अपनी पार्टियों को ही मजबूत बनाने की रही है। बेशक पिछले 2014 से इसमें परिवर्तन आया है क्योंकि लोकसभा में भाजपा को अपने बूते पर ही पूर्ण बहुमत प्राप्त है फिर भी यह एनडीए की सरकार ही कहलाती है। श्री चन्द्रशेखर राव को ख्याली पुलाव बनाने से कोई नहीं रोक सकता और उनके प्रधानमन्त्री बनने की इच्छा पर भी कोई लगाम नहीं लगा सकता, परन्तु हकीकत यही रहेगी कि भारत की राजनीति में भाजपा या कांग्रेस विहीन कोई भी सांझा मोर्चा केवल 'कागजी शेर' ही साबित होगा। ऐसे 'मिट्टी के शेर' भारत की जनता पहले भी देख चुकी है और इनका हश्र भी इसने भली भांति देखा है। श्री राव को यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत की राजनीति मे 2014 के बाद से गुणात्मक अन्तर आ चुका है। राजनीतिक विमर्श राष्ट्रवाद के चारों तरफ इस तरफ घूम रहा है कि सभी वे गड़े मुद्दे उछाल रहे हैं जिन्हें बड़े यत्न से दबा कर रखा गया था। इनका सम्बन्ध उस पंथ या धर्मनिरपेक्षता से जाकर जुड़ रहा है जिन पर कालान्तर में बहस एक सीमित दायरे में ही हुआ करती थी। अब ये मुद्दे सार्वजनिक पटल पर खुल गये हैं जिन पर कांग्रेस जैसी पार्टी को भी स्पष्ट राय व्यक्त करने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है। इस विमर्श में 'तेलंगाना राष्ट्रीय समिति' के 'भारत राष्ट्र समिति' बन जाने से क्या फर्क पड़ सकता है?