सम्पादकीय

संकुचित दृष्टिकोण

Subhi
19 Aug 2022 4:58 AM GMT
संकुचित दृष्टिकोण
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महिलाओं की सुरक्षा को लेकर कई कड़े कानून हैं। उनके साथ होने वाली बदसलूकी, यौन उत्पीड़न, छेड़छाड़ आदि को काफी गंभीरता से लिया जाता है।

Written by जनसत्ता: महिलाओं की सुरक्षा को लेकर कई कड़े कानून हैं। उनके साथ होने वाली बदसलूकी, यौन उत्पीड़न, छेड़छाड़ आदि को काफी गंभीरता से लिया जाता है। मगर जब अदालतें ही ऐसे मामलों को हल्का करने लगें, तो स्वाभाविक ही महिला सुरक्षा को लेकर उम्मीदें धुंधली होंगी। केरल के एक सत्र न्यायाधीश ने एक महिला के यौन उत्पीड़न को लेकर दर्ज मामले में जैसी टिप्पणी की, उससे लोगों को खासी निराशा हुई है।

उस टिप्पणी की चौतरफा निंदा हो रही है। दरअसल, एक महिला ने चौहत्तर साल के एक लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता पर आरोप लगाया कि उसने करीब दो साल पहले उसके साथ यौन उत्पीड़न का प्रयास किया था। इस पर सत्र न्यायाधीश ने कई दलीलें दीं, जिसमें सबसे आपत्तिजनक यह था कि घटना के समय महिला ने उत्तेजक वस्त्र पहन रखे थे, इसलिए प्रथम दृष्टया यह यौन उत्पीड़न का मामला नहीं बनता। इस टिप्पणी पर केरल महिला आयोग समेत तमाम संगठनों ने खासी नाराजगी जाहिर की है। उन्होंने इसे दुर्भाग्यपूर्ण बताया है। न्यायाधीशों से अपेक्षा की जाती है कि वे किसी मामले की सुनवाई करते वक्त किसी तरह के भावनात्मक दबाव या पूर्वाग्रहों से मुक्त होंगे। वे वस्तुनिष्ठ ढंग से और कानूनी पहलुओं का ध्यान रखते हुए ही कोई निर्णय करेंगे। मगर संबंधित मामले में सत्र न्यायाधीश का पूर्वाग्रह अधिक नजर आता है।

सत्र न्यायाधीश ने एक तर्क यह भी दिया कि चौहत्तर साल के व्यक्ति से यौन उत्पीड़न की उम्मीद नहीं की जा सकती। फिर देर से मामला दर्ज कराने को भी संदेह की दृष्टि से देखा। ये तमाम तर्क इसलिए किसी के गले नहीं उतर रहे कि महिला उत्पीड़न संबंधी अनेक मामलों में देखा जा चुका है कि कई उम्रदराज लोगों ने भी नाबालिग लड़कियों के यौन उत्पीड़न का प्रयास किया। देर से ऐसे मामले दर्ज कराए जाने के पीछे की वजहें भी छिपी नहीं हैं।

यह आम बात है कि बहुत सारी महिलाएं इसलिए अपने साथ हुई बदसलूकी या यौन उत्पीड़न के मामले दर्ज कराने से बचती हैं कि उन्हें समाज के सामने अपनी इज्जत जाने या अपने नजदीकी लोगों की बदनामी का भय होता है। बहुत सारे मामलों में खुद परिवार के लोग और रिश्तेदार उन्हें मामला दर्ज कराने से रोक देते हैं। यही वजह है कि हमारे समाज में यौन उत्पीड़न के मामले कम नहीं हो रहे। इन तथ्यों से संबंधित सत्र न्यायाधीश को अनजान नहीं माना जा सकता। ऐसे बिंदुओं पर अक्सर चर्चा होती और चिंता जताई जाती रहती है।

हालांकि छोटी अदालतों में बहुत सारे मामलों में न्याय मिलने के बजाय अन्यायपूर्ण फैसले देखे जाते हैं। उनके इस लापरवाही भरे और पक्षपातपूर्ण रवैए पर अनेक बार उच्च न्यायालय फटकार लगा चुके हैं। उन्हें वस्तुनिष्ठ होकर फैसले सुनाने की नसीहत दे चुके हैं, मगर इस प्रवृत्ति में बदलाव नहीं आ पा रहा, तो उसकी कुछ वजहें हैं। आज भी हमारी संस्थाओं के कुछ शीर्ष पदों पर बैठे लोग जाति, धर्म, सामाजिक मान्यताओं, स्त्री-पुरुष में भेदभाव आदि की संकीर्ण सोच से ऊपर नहीं उठ पाए हैं। उनकी वही सोच उनके निर्णयों में जाहिर होती रहती है।

देश के तमाम थानों में इसीलिए बहुत सारे मामले ठीक से दर्ज नहीं किए जाते या उनके तथ्यों को छिपा दिया जाता है कि उनके प्रभारियों में इसी तरह की मानसिकता देखने को मिलती है। मगर न्यायालयों में इस तरह की मानसिकता अगर महिलाओं को लेकर बनी हुई है, तो निस्संदेह चिंता का विषय है। इसे दूर करने का प्रयास जरूरी है।


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