सम्पादकीय

नरेन्द्र मोदी विपक्ष और वेशभूषा

Gulabi
3 March 2021 5:31 AM GMT
नरेन्द्र मोदी विपक्ष और वेशभूषा
x
लोकतन्त्र में विपक्ष जब व्यक्तिगत आलोचना को विरोध का मुख्य आधार बना देता है तो

लोकतन्त्र में विपक्ष जब व्यक्तिगत आलोचना को विरोध का मुख्य आधार बना देता है तो वह सैद्धांतिक व नीतिगत रूप से 'दिवालिया' करार दिया जाता है। संसदीय प्रणाली में आलोचना के इस स्तर को 'ओछापन' इसलिए कहा जाता है क्योंकि ऐसा करके विपक्ष अपनी नाकाबलियत का फरमान जारी करता है और ऐलान करता है कि नीतिगत विरोध के लिए उसके पास पर्याप्त तर्कों का अभाव है। प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी द्वारा कोरोना टीका लगवाने की आलोचना विभिन्न विपक्षी नेताओं ने जिस तर्ज औऱ अंदाज से की है उसका आम भारतवासी को सन्देश यही गया है कि कांग्रेस के लोकसभा में नेता श्री अधीर रंजन चौधरी वैचारिक रूप से थके हुए और सतही विचारों के व्यक्ति हैं। बड़े अदब से मैं गुजारिश करना चाहता हूं कि श्री चौधरी ने टीका लगवाते वक्त प्रधानमन्त्री के कपड़ों और अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के चिकित्सा कर्मचारियों का जिस रूप में और जिस तल्खी के साथ उदाहरण दिया उससे देश के समस्त चिकित्सा वैज्ञानिकों और चिकित्सा कर्मचारियों का अपमान हुआ है। श्री चौधरी को बोलने से पहले सौ बार विचार करना चाहिए था कि श्री मोदी एक प्रधानमन्त्री के रूप में साठ साल से ऊपर के बुजुर्गों के कोरोना टीकाकरण का श्रीगणेश कर रहे थे। क्या प्रधानमन्त्री का स्वयं चिकित्सा संस्थान जाना गलत था? क्या उन्होंने पूर्ण रूप से भारत में बने कोरोना टीके 'कोवैक्सीन' को लगवा कर गलत किया? क्या उन्होंने प्रत्येक बुजुर्ग को बेखौफ होकर टीका अपनाने की प्रेरणा देकर कोई गलत सन्देश दिया? यह सब श्री मोदी ने इसीलिए किया जिससे प्रत्येक भारतवासी में यह विश्वास जमाने कि कोरोना का टीका लगवाना राष्ट्रीय नागरिक धर्म से कम नहीं है और एक नागरिक के रूप में वह अपना धर्म निभाने के लिए सबसे आगे आये हैं। जरा सोचिये विपक्ष के कुछ नेताओं ने कोरोना टीके के बारे में ही क्या-क्या भड़काऊ बयान नहीं दिये थे?


समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव ने तो यहां तक कह दिया था कि यह 'भाजपा टीका' है जिसे वह नहीं लगवायेंगे। उन्हीं की पार्टी के एक विधानपरिषद सदस्य ने ऊल-जुलूल व ऊट-पटांग तर्क दिये थे। यह सब आम लोगों का मनोबल तोड़ने की निकृष्ठ राजनीति थी। कोरोना टीके को ही इन लोगों ने राजनीति का मुद्दा बना दिया और इसके बहाने कुछ समुदायों में शक के बीज बोने शुरू कर दिये। ऐसी राजनीति पर लानत भेजी जा सकती है जिसमें आम जनता के स्वास्थ्य के साथ ही खिलवाड़ करने की बेशर्म नीयत छिपी हुई हो। अतः प्रधानमन्त्री के बुजुर्गों के लिए टीकाकरण की जिस दिन शुरूआत होनी थी तो सबसे पहले उन्होंने टीका लगवा कर ऐसी उथली राजनीति करने वालों को सही जगह दिखाने का काम किया और सन्देश दिया कि जो लोग भारत के वैज्ञानिकों व चिकित्सा क्षेत्र के विशेषज्ञों की विश्वसनीयता को दांव पर लगा कर अपनी राजनीति करना चाहते हैं उनके दिल में सामान्य आदमी की न तो कोई इज्जत है और न चिन्ता है।

मुझे जरा कोई बताये कि यदि श्री मोदी ने असम का गमछा अपने कन्धे पर डाल लिया तो क्या इससे असम में होने वाले चुनावों पर कोई असर पड़ सकता है ? अगर पुड्डुचेरी की नर्स ने उनके टीका लगाया और केरल की नर्स ने इस कार्य में मदद की तो क्या इसका प्रभाव इन राज्यों के चुनाव पर पड़ सकता है? जिन पांच राज्यों में चुनाव हो रहे हैं वहां के मुद्दे क्या इस वजह से बदल सकते हैं ? मगर क्या कयामत है कि अधीररंजन चौधरी और मनीष शर्मा को इसमें भी किसी षड्यन्त्र की बू आ रही है ! विरोध में इस कदर तर्कविहीन होकर आलोचना करने का एक ही मतलब निकलता है कि आलोचकों को अपने ऊपर भरोसा नहीं रहा है जिसकी वजह से वे हर चीज का विरोध करना चाहते हैं। बल्कि उल्टा होना तो यह चाहिए था कि स्वयं विपक्षी नेताओं को आगे आकर आम जनता से टीकाकरण में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेने की अपील करनी चाहिए थी जिससे भारत इस संक्रमण पर विजय प्राप्त कर सके मगर यहां तो टीका लगवाने वाले को ही हिदायत दी जा रही है कि उसे कौन से लिबास में आना चाहिए था और किस राज्य की नर्स से टीका लगवाना चाहिए था। असल में यह उन सभी राज्यों की जनता का अपमान भी है जिनके प्रतीकों को आलोचना के घेरे में रखने की हिमाकत की गई है। ये सब राज्य भारत का ही हिस्सा हैं और प्रधानमन्त्री किसी एक राज्य के नहीं बल्कि पूरे देश के हैं। ऐसे नेताओं को मैं गांधीवादी कवि स्व. भवानी प्रसाद मिश्र की एक कविता 'नई इबारत' की कुछ पंक्तियां भेंट करता हूं,

''कुछ लिख के सो , कुछ पढ़ के सो

तू जिस जगह जागा सबेरे, उस जगह से बढ़ के सो

बिना सोचे बिना बूझे खेलते जाना

एक जिद को जकङ कर ठेलते जाना

गलत है, बेसूद है

कुछ रच के सो, कुछ गढ़ के सो।''


Next Story