सम्पादकीय

नाम ही नाम है, काम की परवाह किसे

Gulabi
26 Aug 2021 4:56 AM GMT
नाम ही नाम है, काम की परवाह किसे
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पहले बच्चा पैदा होने पर पंडित जी की पुकार होती थी

divyahimachal .

पहले बच्चा पैदा होने पर पंडित जी की पुकार होती थी। वह पधारते, कोई पवित्र धर्म ग्रंथ खोल कर किसी अक्षर को अवतरित होते देखते और उसी को नाम का पहला शब्द बना बच्चे के माथे पर भाग्य का टीका लगा देते। देखते ही देखते ज़माना बदल गया। आजकल हर रिवाज़ की दुकानें सजती हैं। अब नाम रखने के लिए कौन अपनी कल्पना के घोड़े दौड़ाए। लोगों ने रास्ता सहज करने के लिए अलग-अलग अक्षरों से बने नामों की किताबें छाप दीं। लेकिन किताबों की बात आजकल कौन पूछता है। नया युग आ गया। जूते शोकेस या रैकों में सजने लगे, किताबें धूल चाटती हैं या फुटपाथ पर ढेर लगा रद्दी के भाव तुल कर बिकने लगी। ऐसे में गूगल बाबा संकट का समाधान लेकर सामने आए। बटन दबाओ नामों की फेहरिस्त हाजि़र है। लोगों की सोच बदल गई साहिब।

माल्थस ने जनसंख्या का सिद्धांत बताते हुए समझाया था कि अगर किसी नए ब्याहे जोड़े से पूछो कि आपको बच्चा चाहिए या कार, जवाब मिलेगा कार चाहिए, बच्चे की सोचो तो डाइपर या लालीपॉप के सपने आकर डराने लगते हैं। डरते क्यों हो? यार लोग तो इससे कहीं आगे बढ़ गए। बच्चे के नामकरण के लिए पोथियां बांचने या गूगल बाबा से नामों की फेहरिस्त लेकर क्या मिलेगा? मुम्बइया फिल्मों के कभी एक मशहूर खलनायक हुआ करते थे 'प्राण'। कहते हैं जब तक उनकी तूती बोलती रही, किसी ने अपने नवजात बच्चे का नाम प्राण नहीं रखा। लेकिन वह ज़माना बीत गया। आजकल तो खलनायकों की तूती बोलती है और सत्ता के दलाल दनदनाते हैं। नायकों के आदर्शवाद की बात तो मंचों से बघारे जाने वाले भाषणों की सीमा रेखा में गुम हो गई। लगता है जैसे आज हर नायक के मुखौटे के पीछे खलनायक छिपा है। वह जितना बदलाव, क्रांति और युग पलटने के वायदे करता है, उतना ही देश ढकोसलों की रसातल में जा रहा है। इंटरनेट के पंखों पर उड़ान भरता देश डिजिटल हो रहा है। खबर मिली है लोगों ने अपने बेटे-पोतों के नाम गूगल और व्हाट्सऐप रख दिए। हम सोचते हैं इधर अंतरिक्ष विजय में कामयाबी हासिल करने के लिए इसरो भी तो देश के भाल पर चंदन का टीका हो गई। इसलिए क्यों न नई जन्मी बच्चियों का नाम इसरो रख दिया जाए। इससे लगेगा कि अपने देश में हमने औरतों की इज्जत करनी सीख ली।

पिछले दिनों घरों पर लगी नेम प्लेटों पर घर के मर्दो की जगह औरतों के नाम लिखने की बात सुनी थी, अब क्या गूगल, व्हाट्सऐप और इसरो नाम रख कर देश में बदलाव का विज्ञापन शुरू होगा। विज्ञापन, आत्म-प्रदर्शन और प्रशस्ति गायन ही बदलते युग की पहचान बन गए हैं। चाहे जलते दीये के नीचे क्यों, ऊपर भी अंधेरा ही क्यों न ठिठका रहे। पिछले बरसों में देश को डिजिटल और कागज़रहित अर्थ-व्यवस्था बना देने के बहुत से नारे लगे। 'हर हर मोदी' के साथ 'हर हर कम्प्यूटर' गूंज उठा। तभी बच्चों के नाम भी गूगल और व्हाट्सऐप होने लगे। कन्या का नाम इसरो रखा था, लेकिन मां-बाप को वह आज भी 'इसरो' लगती है। उनकी परिवार की जेब पर शादी के दहेज का बोझ। दहेज विरोधी कानून बने न जाने कितने बरस बीत गए। लेकिन जानकार बताते हैं दहेज हत्याएं कम नहीं हुईं। लड़की का नाम रखते हैं 'इसरो', बन जाती है 'इसरो'। गैस सिलेंडरों के ज़माने में स्टोव फट जाने से जल कर मर गई इसरो। शायद इसलिए शेख्सपीयर महोदय ने कभी कहा था, 'बंधु नाम में क्या रखा है?' लेकिन इसके बावजूद अच्छे नाम की तलाश जारी है।

सुरेश सेठ
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