सम्पादकीय

शर्मसार न हो इंसानियत

Rani Sahu
16 Aug 2021 6:40 PM GMT
शर्मसार न हो इंसानियत
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दिनकर पी श्रीवास्तव अफगानिस्तान का फिर बर्बरता के शिकंजे में चले जाना पूरी दुनिया के लिए चिंताजनक है।

क्रेडिट बॉय हिंदुस्तान। दिनकर पी श्रीवास्तव अफगानिस्तान का फिर बर्बरता के शिकंजे में चले जाना पूरी दुनिया के लिए चिंताजनक है। कथित इस्लामी सत्ता की स्थापना के लिए तालिबान जो कर रहा है, उसकी दुनिया में शायद ही किसी कोने में प्रशंसा होगी। दुनिया स्तब्ध है और भारत जैसे देश तो कुछ ज्यादा ही आहत हैं। हम उस इतिहास में जाकर कतई भावुक न हों कि अफगानिस्तान कभी भारत वर्ष का हिस्सा था, जहां सनातन धर्म और बौद्धों का वर्चस्व था, हमें अभी अपने उस तन-मन-धन के निवेश पर गौर करना चाहिए, जो हमने विगत कम से कम बीस वर्षों में वहां किया। एक उदारवादी ताकत के रूप में न जाने कितनी विकास परियोजनाओं में भारत की वहां हिस्सेदारी रही। लगभग तीन हजार भारतीय अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण में लगे थे। एक अनुमान के अनुसार, भारत ने वहां 2.3 अरब डॉलर के सहायता कार्यक्रम चला रखे हैं, अब उनका क्या होगा? भारत और भारतीयों द्वारा वहां मानवीय सहायता, शिक्षा, विकास, निर्माण और ऊर्जा क्षेत्र में किए गए निवेश का क्या होगा? आम अफगानियों के मन में भारत के प्रति अच्छे भाव हैं, लेकिन तालिबान का रुख तल्ख ही रहा है।

बहरहाल, भारतीय ही नहीं, दुनिया के अन्य देशों के लोग भी अफगानिस्तान से भाग रहे हैं और तालिबान में इतनी सभ्यता भी नहीं कि वह लोगों को रोकने के लिए कोई अपील करे। संयुक्त अरब अमीरात भी मजहबी आधार वाला देश है, लेकिन उसने कैसे दुनिया भर के अच्छे और योग्य लोगों को जुटाकर अपने यहां आदर्श समाज जुटा रखा है, लेकिन अफगानिस्तान में जो इस्लामी खलीफा शासन स्थापित होने वाला है, उसमें इतनी सभ्यता भी नहीं है कि उन लोगों को रुकने के लिए कहे, जो अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण में दिन-रात एक किए हुए थे। विगत दशकों में तालिबान ने एकाधिक आतंकी हमले सीधे भारतीय दूतावास पर किए हैं और अपनी मंशा वह साफ कर चुका है। कंधार विमान अपहरण के समय तालिबान की भूमिका भारत देख चुका है। क्या दुनिया के आतंकवादियों को अफगानिस्तान में सुरक्षित ठिकाना मिल जाएगा? क्या ये पैसे लेकर सभ्य देशों को परेशान करने और निशाना बनाने का ही काम करेंगे? जो देश प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से तालिबान की पीठ पीछे खड़े हैं, उनकी भी मानवीय जिम्मेदारी बनती है।
अभी कुछ ही दिनों पहले भारत की कोशिश से संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में अफगानिस्तान के बचाव के लिए विशेष बैठक हुई थी, लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला है। अभी भारत के पास परिषद की अध्यक्षता है, क्या उसे नए सिरे से पहल नहीं करनी चाहिए? तालिबान पर किसी को भरोसा नहीं है और अभी सभी का ध्यान अपने-अपने नागरिकों को बचाने पर है, लेकिन आने वाले दिनों में व्यवस्थित ढंग से सोचना होगा कि ताकत और पैसे के भूखे आतंकियों के खिलाफ क्या किया जाए? हां, यह सही है कि तालिबान में भी सभी आतंकी नहीं होंगे, कुछ अपेक्षाकृत सभ्य भी होंगे, जो अपने देश की बदनामी नहीं चाहेंगे। ऐसे लोगों को कोशिश करनी चाहिए कि अफगानिस्तान का पुनर्निर्माण न रुके। अफगानी युवाओं को बंदूकों के सहारे ही जिंदगी न काटनी पडे़। महिलाओं की तौहीन न हो। अफगानिस्तान दुनिया में नफरत और हिंसा बढ़ाने की वजह न बने। कुल मिलाकर, उदारता और समझ की खिड़की खुली रहनी चाहिए, ताकि इंसानियत शर्मसार न हो।


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