सम्पादकीय

काशी की नगरवधुएं : जहां आम्रपाली की कहानी मिथक नहीं सचाई बन जाती हैं

Rani Sahu
24 July 2021 1:43 PM GMT
काशी की नगरवधुएं : जहां आम्रपाली की कहानी मिथक नहीं सचाई बन जाती हैं
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चंपाबाई से मुलाकात ने मेरे मन में जमी कई भ्रांतियां तोड़ दीं. ये भ्रांतियां हमारे आस-पास के समाज की बनाई हुई थीं

हेमंत शर्मा। चंपाबाई से मुलाकात ने मेरे मन में जमी कई भ्रांतियां तोड़ दीं. ये भ्रांतियां हमारे आस-पास के समाज की बनाई हुई थीं. कुंठा से भरे इस समाज में तवायफ को उपभोग की वस्तु के तौर पर प्रचारित किया गया. चंपाबाई के तौर पर मैंने तवायफ़ का गुणशील, उदात्त और मानवीय रूप देखा था. जिसे लय की पकड़ और समय की समझ थी. तब तक मैंने वैशाली की नगरवधू आम्रपाली की कहानी ही पढ़ी थी. जिसने अपनी मानवीय क्षमता और व्यक्तित्व की गरिमा से बुद्ध को भी विवश कर दिया था कि वे उसे बौद्ध संघ में प्रवेश दें. चंपाबाई से मिल मुझे यकीन हो गया कि आम्रपाली की कहानी मिथक नहीं बल्कि सचाई थी. एक ऐसी सचाई जिसकी धुंधली पर बड़ी तस्वीर कई सदियों बाद भी ज़िंदा है.

चंपाबाई जिस दालमंडी में रहती थीं, उस दालमंडी की एक लम्बी सांस्कृतिक विरासत थी. इस सांस्कृतिक परम्परा के तार पौराणिक काल से जुड़े हैं.'मत्स्यपुराण' में काशी को 'गन्धर्वसेविता' कहा गया है- "वाराणस्यां नदी पुसिद्धगन्धर्वसेविता। प्रविष्टा त्रिपथा गंगा तस्मिन् क्षेत्रे मम प्रिये।' श्रीमद्भागवत के एकादश स्कंध में भी एक गणिका कथा आती है. 'बुद्ध के आस पास तो कई नर्तकियों का ज़िक्र आता है. बौद्धकालीन साहित्य में 'अट्ठकाशी' नाम की मशहूर वेश्या का एक रात का मनोरंजन-शुल्क एक हजार कार्षापण (तत्कालीन राजकीय मुद्रा) था. जबकि काशी-राज्य से काशीराज को प्रतिदिन लगभग इतनी ही आमदनी होती थी. सोचिए कितनी मूल्यवान थी अट्ठकाशी . अट्ठकाशी बुद्ध की प्रारम्भिक शिष्यों में थी. विनय पिटक के मुताबिक़ बौद्ध धर्म में प्रवज्या लेने वालों में जनपदकल्याणी अट्ठकाशी का उल्लेख है. उसका रुतबा देखिए उसे जनपदकल्याणी कहा गया. प्रवज्या के बाद अट्ठकाशी अरहत को प्राप्त हुई. बौद्ध धर्म में अरहत या अरहंत (पाली) उसे कहते हैं जिसने निर्वाण की अन्तर्दृष्टि प्राप्त की हो. महायान बौद्ध परम्परा में इस शब्द का इस्तेमाल बुद्धत्व की चरम अवस्था पाए लोगों के लिए ही किया जाता है.
बुद्ध के समय में आम्रपाली का जलवा
आम्रपाली अपने समय की विलक्षण सुंदरी थी. वह नगरवधू थी. उसके 'परसोना' ने बुद्ध को भिक्षु संघ का नियम बदलने पर मजबूर कर दिया. बौद्ध धर्म के भिक्षु संघ में प्रवेश पानेवाली आम्रपाली पहली बाहरी महिला थी. उससे पहले आनंद की मां तो परिवार की ही थीं. आम्रपाली से पहले महिलाओं को भिक्षु संघ में प्रवेश पर पाबंदी थी . काशी की वेश्याओं ने उज्जैन जैसे दूरदराज के शहरों में भी जाकर यश, मान, प्रतिष्ठा अर्जित की थी. 5वीं शती में लिखे गए 'पदतण्डिम्' नाटक में इसका जिक्र है कि उज्जैन में काशी की 'पराक्रमिका' नामक वेश्या सबसे महंगी थी. 5वीं सदी (ईसा पूर्व) के वेश्या-जीवन की झलक बनारस के राजघाट की खुदाई से मिली मिट्टी की मूर्तियों के भग्नावशेष में मिलती हैं.
मध्ययुग में इन नर्तकियों का एकछत्र राज था. गुप्तकाल में महाजन पर्व की जातक-कथा के अनुसार काशीराज के दरबार में 'छत्रमंगल-दिवस' पर एक हजार नर्तकियां एक साथ नृत्य करती थीं. जातकों में काशी की सामा (श्यामा) नामक गणिका का भी उल्लेख है. उसके घर पर पांच सौ दासियां काम करती थीं. उसने मोटा धन देकर नगर गुत्तिक को ख़रीद लिया था और अपने दोस्त एक डाकू सरदार को छुड़वा उसकी जगह किसी और आदमी के फांसी पर चढ़वा दिया था. कश्मीर नरेश जयापीड़ (779-813 ईं) के महामंत्री दामोदर गुप्त के ग्रन्थ 'कुट्टनीमतम्' में काशी की गणिकाओं पर विस्तार से चर्चा है.
उस वक्त के साहित्य से पता चलता है कि गणिकाओं और वेश्याओं की समाज में काफ़ी प्रतिष्ठा थी उन्हें राज्याश्रय भी मिलता था. उनकी उचित देखभाल के लिए शासन की ओर से एक 'वेश्याध्यक्ष' की व्यवस्था होती थी. चाणक्य के अर्थशास्त्र में भी गणिकाओं के लिए शुल्क निर्धारण, राज्यकर, दण्ड आदि की भी चर्चा है. 'उभयाभिसारिका' में वेश्यागामिता की निन्दा और सम्भवत: शूद्रक रचित 'पद्यप्राभृतकम्' में वेश्या-आवास को दु:खप्रद माना गया है.
तवायफों और गणिकाओं के तीन बड़े केन्द्र
अवध, बनारस और चतुर्भुज स्थान तवायफों और गणिकाओं के यही तीन बड़े केन्द्र थे. लखनऊ में मुजरे की शानदार परम्परा रही है. उमरावजान, बेगम अख़्तर अवध की सरज़मीं की नायाब हस्ती थी. राहुलदेव हमारे संपादक रहे हैं. भाषा के साथ साथ कला में भी वे शुद्धता के आग्रही हैं और गालिब के बाद मयखानों के सबसे बड़े जानकार. उनका कहना है कि शुद्ध और ख़ानदानी मुजरा तीस बरस पहले तक लखनऊ में उन्होंने देखा था. चौक में ज़ोहरा बेगम का नृत्य देखने वे ज़ाया करते थे. एक बार कार्ल्टन के दरबार हाल में महफ़िल जमी. परियों जैसा सौन्दर्य था उनका. क्या नफ़ासत थी? संपादक जी कहते हैं ख़ानदानी रवायतों में पगी ऐसी महफ़िल फिर नहीं जमी. शोख़ी और नैसर्गिक चुलबुलेपन से मंजा वह नृत्य अब तक दिमाग़ पर अंकित है. क्या गायन था ? गजब था उनका जादुई कण्ठ और स्वर लहरी. ज़ोहरा बेगम के साथ लखनऊ से वो कला चली गयी. ज़ोहरा बेगम अंग्रेज़ी बोलती थीं. राहुल जी उनकी शास्त्रीयता पर लट्टू थे. याद करने की कोशिश में वे भावुक हो गए शून्य की ओर उनकी आँखें टंग गयी और बात रुक गयीं. मैं समझ गया मामला संवेदनशील है.
अवधी रवायत बेगम अख़्तर का ज़िक्र बग़ैर अधूरी रहेगी. वह अवध की मशहूर तवायफ थीं. उन्होंने दिल के टूटने को भी दिलकश बना दिया था. महाराज जगदम्बिका प्रताप सिंह अयोध्या के राजा थे. अख्तरी बाई फैजाबाद जो बाद में बेगम अख़्तर कहलायीं उनकी रक्षिता थीं और अयोध्या राज दरबार की प्रतिष्ठित गायिका भी. जगदम्बिका प्रताप सिंह आज़ादी तक अयोध्या के राजा थे. राजा साहब बेगम अख़्तर के एक दादरे पर ऐसे फ़िदा हुए कि साठ एकड़ का एक बाग उनके नाम कर दिया. अख्तरी बाई उनके दरबार की लम्बे समय तक गायिका थीं. अख्तरी बाई जब फैजाबाद छोड़ कर जाने लगीं तो वह बाग राजा साहब को लौटाने गयीं. राजा साहब ने मना किया तो वे अड़ी रहीं और कहा की हुज़ूर आपने मेरी वजादारी की इसके लिए ताउम्र शुक्रगुज़ार रहूंगी. लेकिन अगर मैं इसे बेचकर जाती हूं, तो फैजाबाद के लोग मेरे बारे में क्या सोचेगें? तवारीख़ मुझे माफ नहीं करेगी कि एक गाने वाली बाई ने राजा के उपहार में दिए बाग का सौदा कर लिया. इसलिए आप इसे रख लें ताकि इतिहास में आपके साथ ही मेरा नाम भी सम्मान के साथ लिया जाय. राजा साहब के मना करने पर उन्होंने राजा साहब के दामाद को वह बाग लौटा दिया.
आज भी दस्तावेज़ों में उस ज़मीन का कागज़ अख़्तरी बाई फैजाबादी बनाम डॉ. रमेन्द्र मोहन मिश्र के तौर पर दर्ज है. रमेन्द्र जी, राजा जगदम्बिका प्रताप नारायण सिंह की इकलौती बेटी राजकुमारी विमला देवी जी के पति थे, यानी कवि मित्र यतीन्द्र मिश्र के बाबा. और अब चतुर्भुज स्थान. पद्मभूषण छन्नूलाल लाल मिश्र ने यहीं शागिर्दी कर संगीत में अपनी पहचान बनाई. उनका पानी की तरह हारमोनियम पर चलता हाथ यहीं सधा. वे यहीं पहले बजाते थे बाद में गाने लगे। भारतीय संगीत की दुनिया के कई बड़े नाम चतुर्भुज स्थान में ही पले बढे़.
बनारस की विरासत और परंपराएं
बनारसी हूं, सो बनारस की विरासत और परंपराओं का अध्ययन किया है. आप ये जानकर दंग रह जाएंगे कि इन्हीं तवायफ़ों ने अपने कंधे पर बनारस की कलाओं की इस समृद्ध विरासत को संजो रखा था. प्रतिकूल परिस्थितियों में भी सामाजिक, आर्थिक व मानसिक कुंठा , संत्रास, आघात, एवं घुटन में भी इन तवायफ़ों ने बनारसी संगीत की परम्परा को ऊर्जावान और प्राणवान बनाए रखा. भारतेन्दु को पढ़ते हुए मुझे इस परंपरा का ख़ास अनुभव हुआ. कुछ कहानियां बुजुर्गों से भी सुन रखीं थीं. इनकी गायकी से तवायफ़ी और फिर देह व्यापार की कहानियों के बदलते रंग फ़नकार, हुस्न, आशिक,माशूक, फ़रेब, तालीम और कठिन रियाज से पगी मुहब्बत व फरेब की कहानियां तक. अपमान और जलालत से भरे दुखद जीवन का अफ़साना. जगमगाती गलियों की अधूरी कामनाओं की अनकही कहानियां. इन्हीं गलियों में आपको जमाने भर की नफरत और निन्दा बर्दाश्त कर मुस्कुराते और गुनगुनाते हुए किरदार मिल जाते थे.
18-19वीं शती में काशी की सुप्रसिद्ध गायिकाओं में चित्रा, इमामबांदी, गुलबदन, सुखबदन आदि का उल्लेख मिलता है. करम इमाम की लिखी किताब 'म-अदन-उल मौसिकी' में इनके ब्योरे मिलते हैं. वे सन् 1855 ईं में अवध के नवाब के दरबार में थे. काशी की चित्रा एवं इमामबांदी ने टप्पा गायकी के आविष्कारक शोरी मियां के शिष्य गामू खां और उनके शिष्य शादी खां से टप्पे की विशिष्ट शिक्षा पाई और टप्पा-गायकी पर अपना वर्चस्व स्थापित किया. नृत्य-क्षेत्र में गुलबदन, सुखबदन ने खूब नाम कमाया. महाराजा चेत सिंह का राज दरबार अनेक मूर्धन्य घरानेदार कलावन्तों के साथ ही दुलारी, कज्जन, किशोरी, रुक्मिणी, छित्तनबाई के नृत्य-संगीत से जीवन्त रहा.
तवायफ संघ, गांधी और आज़ादी का आंदोलन
कभी बनारस में एक तवायफ़ संघ भी था. इसे गांधी जी ने बनवाया था. महात्मा गांधी जब बनारस आए तो इन गायिकाओं ने उनसे मिलकर अपनी समस्याएं रखीं. तब बापू ने उन्हें तवायफ़ संघ बनाने की प्रेरणा दी. काशी की हुस्नाबाई इसकी पहली अध्यक्षा चुनी गयीं. इस मौक़े पर गांधी जी का भाषण भी हुआ. उनका भाषण 'वारवधू-विवेचन'नामक किताब में छपा है. अपने संबोधन में महात्मा गांधी ने उन्हें आत्मवादी सुधार कर आज़ादी की लड़ाई में भाग लेने की राय दी. काशी की ख्यातनाम गायिका विद्याधरी से बापू ने आग्रह किया, कि आप देश के किसी हिस्से में अपना संगीत कार्यक्रम करें तो साथ-साथ वहां अंग्रेजी हुकूमत के ख़िलाफ़ राष्ट्रीय गीत गाकर आजादी के लिए जन-समर्थन भी जुटाएं. फिर क्या, अंग्रेजी हुकूमत की परवाह न करते हुए विद्याधरी ने महात्मा गांधी की आज्ञा का पालन किया. उनका यह गीत भीड़ खींचने लगा.
"चुन-चुन के फूल ले लो, अरमान रह न जाए।
ये हिन्द का बगीचा, गुलजार रह न जाए।।"
बनारस की तवायफ़ों से जुड़े कई रोचक किस्से हैं. एक महफिल में बनारस की एक नामी गायिका जो देखने में दुबली पतली और छोटे कद की थीं. वह नृत्य के लिए पेश हुईं. संयोगवश उनके पेशवाज के रेशमी धागों में फंसकर उनकी पैर की एक जूती आंगन तक आ गई जिसे देखकर एक परिहासी संगीतप्रेमी ने कहा, "अरे! आपका जोड़ा यहां तक साथ-साथ चला आया" इस व्यंग्य से गायिका का चेहरा लाल हो गया. तत्काल उसने उत्तर दिया- 'हुजूर! मेरा जोड़ा तो मेरे साथ है, मगर आपका जोड़ा तो नौकर के पास है' उन सज्जन का चेहरा देखने लायक था.
साहित्य के पन्ने और तवायफों की कला
साहित्य के पन्ने भी इन तवायफ़ों की कला की गहराइयों से रंगे हुए हैं. प्रसिद्ध साहित्यकार पांडेय बेचैन शर्मा 'उग्र' ने 1920 में बनारस में हुई एक संगीत महफिल का जिक्र किया है. उन्होंने लिखा है, "कहानीकार विनोदशंकर व्यास के मानमन्दिर-आवास की छत पर पूर्णिमा की चांदनी रात में आधी रात तक जमाई गई सिद्धेश्वरी देवी की संगीत महफिल जीवनपर्यन्त स्मृतिपटल पर अंकित रहेगी, जिसमें प्रख्यात रससिद्ध साहित्यकार जयशंकर 'प्रसाद' की फरमाइश पर कोकिलकंठी गुणवन्ती गायिका सिद्धेश्वरी देवी की तानों से सारा वातावरण रससिक्त हो उठा था. 1928 में लखनऊ से पधारे मित्र रूपनारायण व्यास के स्वागत में मित्रों के मन में उल्लास उठा, कि आज फिर चांदनी रात की उज्जवल छटां में विनोदशंकर व्यास की छत पर मात्र चार अभिन्न यारों के साथ- जयशंकर प्रसाद, उग्र, रूपनारायण एवं विनोदशंकर, की मौजूदगी में सिद्धेश्वरी देवी के संगीत का आनंद लिया जाए. सिद्धेश्वरी देवी को सन्देश भेजा गया. वे आईं और संगीत महफिल के समापन के बाद प्रसाद जी से मेरे (उग्र) विषय में पूछा. गायिका की आंखें उठीं और मेरी अलकें. प्रसाद जी ने मनचली मुस्कुराहट और आकर्षक दुष्टता से उत्तर दिया- 'ये बड़े पहुंचे हुए एक औलिया फकीर हैं'. कार्यक्रम खत्म होते ही गायिका ने उतनी ही नाटकीयता से 'जयशंकर' कह कर प्रसाद को नमस्कार किया. हम सभी गायिका के उक्त कटाक्ष से प्रमुदित हो उठे।" पं. विनोदशंकर व्यास, प्रसाद जी के समकालीन कहानीकार थे. उनके बेटे प्रेमशंकर व्यास मेरे पिता के साथ पढ़े थे. और उनका बेटा प्रकाश शंकर मेरा सहपाठी था. आज भी उनका घर मानमंदिर घाट पर है.
बड़ी मैना, हुस्नाबाई और विद्याधरी बाई
भारतेन्दु जी भी गज़ब के रसिक थे. ठठेरी बाज़ार के भारतेन्दु भवन में उनकी अकसर निजी महफिलें होती थीं. ऐसी ही एक महफिल में काशी की अनुपम नर्तकी बड़ी मैना किसी पद के गायन भाव के साथ नृत्य कर रही थीं. महफिल में रसिक तन्मयता से आनंदविभोर थे. भारतेन्दु के मन में विचार आया की इस पद के अर्थभाव को ध्यान में रख नृत्य के आनंद को रफ़्तार दिया जाय. भारतेन्दु अपने को रोक नहीं पाये और मैना से वैसा भाव दिखाने को कहा. भरी महफिल में बड़ी मैना को भारतेन्दु की फरमाइश अच्छी नहीं लगी और उन्होंने व्यंग्यात्मक लहजे से कहा- 'हुजूर! कह देना सरल होता है, करने दिखाना कठिन'.यह सुन भारतेन्दु का कलाकार जाग गया . भरी महफिल में भारतेन्दु ने पैरों में घूंघरू बांधकर जो नाचना शुरू किया, बड़ी मैना सहित सारी महफिल आवाक थी. बाद में बड़ी मैना ने अपने कहे पर भारतेंदु से माफी मांगी.
वाकई इस दालमंडी की कहान बेहद दिलचस्प,रोमांचक और हैरतअंगेज है. दालमंडी उन दिनों कला और संगीत का शिखर हुआ करती थी. इसकी अपनी सपनीली और रूमानी दुनिया हुआ करती थी. बड़े-बड़े राजा-रजवाड़े दालमंडी की उंगलियों पर नाचते थे. बंगाल की एक रियासत से बेदख़ल राजा साहब बनारस में समय काट रहे थे. उस वक्त हुस्नाबाई की ख्याति शीर्ष पर थी. एक बार इन्हीं राजा साहब की कोठी पर हुस्ना ने गाना शुरू किया. कुशल संगीत प्रेमी राजा साहब ने तबले की जोड़ी खींच ली और शुरू किया तिरकिट धा ….. फिर संगीत की ऐसी महफिल जमी कि रात कब बीत गई, किसी को पता ही नहीं चला. हुस्नाबाई अपनी गायकी के अलावा अपनी उदारता, अदब-कायदे, अनुशासनप्रियता और साहित्य-प्रेम के लिए भी प्रसिद्ध थीं. उनके दरवाज़े पर दरबान रहते थे. हर कोई उनके कोठे पर चढ़ने की हिम्मत नहीं करता. वे अदब-कायदे की इतनी पाबन्द थीं कि घर आए आगन्तुकों के प्रवेश, बैठने और बातचीत से ही उसकी शिष्टता, कुलीनता का अनुमान लगा लेती थीं. उसी के अनुसार उन्हें महफिल में दाखिल करतीं.
मैनाबाई की एक कहानी मशहूर है. एक बार मैनाबाई काशी नरेश के न्यौते पर उनके दरबार में पेश हुईं. उस समय महाराज, बनारसी आम खा रहे थे. खाने के बाद मज़ाक़ में महाराज मैना से बोले, "अब क्या आई हो क्या कोइली (गुठली) लोगी?" मैना चतुर थी, तत्क्षण बोली- "महाराज के मुंह से कोइली निकला है तो अब हमें वही चाहिए"। महाराज ने तुरन्त काशी राज्य का 'कोयली' गांव मैना के नाम कर दिया. मैनाबाई के किस्से आज भी पुराने लोग दोहराते हैं. बनारस के काशीपुरा मुहल्ले में 'दतिया कोठी' होती थी. ये वही जगह है जहां से पहले 'संसार' और बाद में 'जनवार्ता' अख़बार छपता था. इसी कोठी में किसी रईस की बारात टिकी थी. ख़ास लोगों के लिए कोठी के भीतरी कक्ष में बाहर से आयी गायिकाओं का कार्यक्रम था. जबकि कोठी के बाहर मैदान में काशी की मैनाबाई का कार्यक्रम था. बाहर के पण्डाल में मैना ने ऐसी महफिल जमाई, कि कुछ समय बाद कोठी के अन्दर चल रही महफिल के सारे विशिष्ट संगीतप्रेमी और गानेवालियां दोनों बाहर आ गए. समूची महफिल को मैना ने अपनी रससिद्ध गायकी से लूट लिया.
बनारस की विद्याधरी बाई की भी गायन में बहुत इज़्ज़त थी. एक वाकया है. काशीराज के प्राइवेट सेक्रेटरी के बेटे का विवाह था, जिसमें नगर के अनेक गणमान्य रईसों के साथ स्वयं राजा साहब भी मौजूद थे. विद्याधरी गा रही थीं, लेकिन सुनने वाले राजा साहब की खुशामद में लगे थे. यह माहौल देखकर विद्याधरी गाते-गाते चुप हो गयीं. विद्याधरी ने राजा साहब से बड़ी शालीनता से कहा, कि "ये रईस तो बड़े लोग हैं. अपनी बात तो आपके किले पर भी जाकर सुना सकते हैं. मैं तो मात्र एक गरीब संगीत दासी हूं, इसलिए आज सिर्फ मेरी ही सुनी जाए". सारी महफिल में सन्नाटा छा गया और फिर विद्याधरी ने अपनी कलासाधना का ऐसा समां बांधा कि सारी महफिल झूम उठी. जयदेव के 'गीतगोविन्द' को जिसने भी विद्याधरी के मुंह से सुना वह ता-उम्र उसे भूल नहीं सका. काशी की सिद्देश्वरी बाई की समकालीन गायिकाओं में केसरबाई, हीराबाई, गंगूबाई (बंबई), खुर्शीद (पंजाब), नूरजहां (कलकत्ता), बनारस की शैलकुमारी, काशीबाई, रसूलनबाई, अख्तरी बाई फैजाबाद (बेगम अख़्तर) और रौशन-आरा बेगम आदि थीं.
समय के साथ दालमंडी की ये संगीत परंपरा लुप्त हो गई. लेकिन उसका इतिहास आज भी सुरक्षित है. कला की इतनी बारीक समझ, गीत-संगीत की इतनी गहन योग्यता, नृत्य का ऐसा विराट समागम, गुण-ग्राहकता की ऐसी अनूठी मिसाल और कहीं नही मिलेगी. वक्त को न रोकना मुमकिन है और न ही बीते हुए वक्त में लौटना. मगर फिर भी जब कभी दालमंडी का जिक्र आएगा, वक्त का वो बीता हुआ हिस्सा स्मृतियों में अपने आप कौंध जाएगा. मैंने इस परम्परा को बीच से देखा है. ऐश्वर्य को उजड़ते और व्यापार को बसते. फिर भी दालमंडी कभी मरेगी नहीं. उसकी कला का ऐश्वर्य ही उसकी अमरता की गारंटी है.


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