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पड़ोसी देश म्यांमा में एक फरवरी को हुए तख्तापलट के बाद देश के भीतर जिस बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं,
जनता से रिश्ता वेबडेस्क | पड़ोसी देश म्यांमा में एक फरवरी को हुए तख्तापलट के बाद देश के भीतर जिस बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं, उससे सैन्य सरकार के भी पसीने छूट रहे हैं। राजधानी नेप्यीता, यांगून और मांडले सहित देश के तीस से ज्यादा प्रमुख शहरों में जिस तरह लोग सड़कों पर उतरे हुए हैं, उससे साफ है कि सैन्य शासन के लिए आने वाले दिन आसान नहीं होंगे। हालांकि विरोध प्रदर्शनों को कुचलने के लिए सेना कोई कसर नहीं छोड़ रही और नागरिकों का दमन जारी है।
इसका असर यह हो रहा है कि और ज्यादा लोग घरों से निकल रहे हैं और सैन्य शासन के खिलाफ प्रदर्शनों में बढ़-चढ़ कर शिरकत कर रहे हैं। बढ़ते जनाक्रोश का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि अब बौद्ध भिक्षु, पुलिस, डॉक्टर और चिकित्साकर्मी भी प्रदर्शनकारियों के साथ आ गए हैं। पिछले एक दशक में यह पहला मौका है जब म्यांमा में फिर से देशव्यापी विरोध प्रदर्शनों का दौर चल पड़ा है। इसमें कोई संदेह नहीं कि आने वाले दिनों में म्यांमा में यह जनविरोध और जोर पकड़ेगा और सैन्य सरकार को घुटने टेकने के लिए मजबूर होना पड़ सकता है।
म्यांमा की जनता ने दशकों तक सैन्य शासन की पीड़ा झेली है। उसे मालूम है कि सैन्य शासकों के राज में किस तरह से नागरिकों का दमन होता है। ऐसे में जनता अब फिर से किसी भी सूरत में सैन्य शासन का समर्थन नहीं करेगी। लोकतंत्र के लिए जनता को लंबा संघर्ष करना पड़ा था। दो दशक के सैन्य शासन के बाद पहली बार 2011 में आंग सान सू की की पार्टी नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी (एनएलडी) चुनाव जीत कर सत्ता में आई थी। लेकिन सैन्य शासन का संविधान सू की के रास्ते में बड़ी अड़चन बना रहा।
गृह, रक्षा, सीमा और वित्त जैसे अहम मंत्रालय सेना के कब्जे में ही रहे। सेना से मुक्ति के लिए एनएलडी लंबे समय से संविधान में संशोधन की मांग कर रही है। इसलिए सेना सतर्क है। पिछले साल नवंबर में हुए चुनाव में एनएलडी को चार सौ चालीस में से तीन सौ पंद्रह सीटों पर जीत हासिल हुई थी। इससे सेना की बेचैनी और बढ़ गई। तभी से सेना को लग रहा था कि अगर जल्द ही उसने सत्ता नहीं हथियाई तो वह कमजोर पड़ सकती है। तख्तापलट के मूल में बड़ा कारण यह भी है। लेकिन देश में जिस तरह से लोग सेना के खिलाफ हैं, उसका निहितार्थ सेना को समझना चाहिए, बजाय लोगों की आवाज को कुचलने के।
म्यांमा का यह राजनीतिक घटनाक्रम मामूली नहीं है। अमेरिका सहित दुनिया के कई देशों ने तख्तापलट के विरोध में कड़े कदम उठाने शुरू कर दिए हैं। न्यूजीलैंड ने तो म्यांमा से सारे रिश्ते ही खत्म कर दिए। ब्रिटेन और यूरोपीय संघ ने कड़े प्रतिबंध लगाने का संकेत दे दिया है। अमेरिका ने म्यांमा के सैन्य शासन पर शिकंजा कसना शुरू कर दिया है और अरबों डॉलर की मदद रोक दी है। अमेरिका इसलिए भी ज्यादा परेशान है कि म्यांमा के सैन्य शासन को चीन का पूरा समर्थन हासिल है।
अमेरिका यह बखूबी समझ रहा है कि अगर चीन और म्यांमा एक हो गए तो उसके लिए चीन को घेरने की रणनीति प्रभावित हो सकती है। इसलिए वह किसी भी सूरत में सू की सत्ता में वापसी के लिए सैन्य शासन पर दबाव बनाए रखेगा। जो हो, म्यांमा के घटनाक्रम देश के लिए तो नुकसानदायक हैं ही, क्षेत्रीय अशांति को भी जन्म देंगे।
TagsMyanmar crisis
Subhi
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