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- मेरी डफली, मेरा राग
भारतीय सरकारी सेवाओं का कटु सत्य है कि भले ही साँप और कुत्ते के काटे का ईलाज संभव हो लेकिन बाबू छोटा हो या बड़ा, उसके काटे का कोई उपचार नहीं। इतिहास गवाह है कि अलाउद्दीन खिलजी को अपने राज में गड़बड़ करने वाले बाबुओं के हाथ कटवाने या माथे पर 'चोर' गुदवाने जैसे जघन्य दंड निर्धारित करने के बावजूद उन्हें क़ाबू में रखने में सफलता नहीं मिल पाई थी। उसने अपने राज में बाबुओं के प्रशिक्षण की कोई व्यवस्था नहीं की थी। शायद वह भविष्य द्रष्टा था। उसे पता था कि आधुनिक भारत में प्रशासनिक सेवाओं के प्रशिक्षण के दौरान सुपर बॉस घड़ने के लिए सिखाए जाने वाले तमाम गुर धीरे-धीरे गुणों में परवर्तित हो कर, उनके व्यक्तित्व का अहम हिस्सा बनने के बाद प्राशसनिक व्यवस्था और गुणवत्ता, दोनों पर ग्रहण लगाएंगे। प्रायः देखने में आता है कि कुछ समय के बाद अखिल भारतीय और प्रादेशिक प्रशासनिक सेवाओं के अधिकारी 'तेरी डफली मेरा राग' के अभ्यास अर्थात लोगों की सेवा करने की बजाय 'मेरी डफली मेरा राग' में सिद्धहस्त हो जाते हैं। शायद अकादमी में उन्हें प्रशिक्षण ही इस बात का दिया जाता है कि दूसरे की डफली छीन कर, उस पर केवल अपना ही राग बजाना और अलापना है, चाहे वह बेसुरा ही क्यों न हो। जन सेवा की आड़ में लोगों को एक ताल, तीन ताल, रूपक, झप ताल या भैरवी, आसवरी, ललित, यमन, कल्याण आदि राग सुनाने का स्वांग भरते हुए, एक ही ताल पर एक ही राग बजाना और अलापना है, अपनी श्रेष्ठता का राग।