सम्पादकीय

वादों और छलावों के बीच मुस्लिम वोट : राजनीति में प्रासंगिक बने रहने की जद्दोजहद, विरासत संभालने की जिम्मेदारी

Neha Dani
1 Nov 2022 1:50 AM GMT
वादों और छलावों के बीच मुस्लिम वोट : राजनीति में प्रासंगिक बने रहने की जद्दोजहद, विरासत संभालने की जिम्मेदारी
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यही असली कारण है कि समुदाय अपनी संख्यात्मक ताकत के बावजूद तेजी से हाशिये पर जा रहा है।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सहारनपुर क्षेत्र के एक प्रभावशाली युवा मुस्लिम राजनेता इमरान मसूद की राजनीतिक यात्रा के साथ ही उनकी पीड़ा राज्य में मुस्लिम समुदाय के नेताओं की दुर्दशा को ही दर्शाती है। इस एक साल में ही मसूद कांग्रेस छोड़कर समाजवादी पार्टी में गए और फिर बहुजन समाज पार्टी में ताकि वह राजनीतिक रूप से प्रासंगिक बने रहें। उनकी इस हालत के बारे में उनका हालिया राजनीतिक रुख बता रहा है। उन्हें पिछले एक दशक में एक ऐसे होनहार मुस्लिम नेता के रूप में देखा गया है, जिसे सहारनपुर और उसके आसपास के क्षेत्रों में समुदाय का व्यापक समर्थन हासिल रहा है।
अनेक राजनीतिक पर्यवेक्षक इमरान मसूद को उनके चाचा और नौ बार सांसद रहे रशीद मसूद के राजनीतिक उत्तराधिकारी के तौर पर देखते हैं। दिवंगत रशीद मसूद पांच बार लोकसभा और चार बार राज्यसभा के सदस्य रहे। उनकी गिनती पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सबसे ताकतवर मुस्लिम नेताओं में होती रही और उन्हें लोकदल, जनता पार्टी, जनता दल, समाजवादी पार्टी और कांग्रेस में काफी सम्मान से देखा जाता था। उनके चाचा ने अपने बेटे शादान मसूद को आगे बढ़ाया, इसके बावजूद पिछले दशक में इमरान ने कांग्रेस नेता के रूप में मसूद परिवार की विरासत को तेजी से आगे बढ़ाया।
प्रियंका गांधी वाड्रा के अत्यंत करीबी के रूप में जाने जाने वाले युवा मुस्लिम नेता इमरान उत्तर प्रदेश कांग्रेस के उपाध्यक्ष, पार्टी की राज्य इकाई की सलाहकार परिषद के सदस्य और अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के सचिव जैसे पदों पर पहुंचे। हालांकि अपनी व्यक्तिगत लोकप्रियता और कांग्रेस पार्टी में अपने उभार के बावजूद मसूद चुनावों के मामले में अत्यंत दुर्भाग्यशाली रहे। 2007 में उत्तर प्रदेश की मुजफ्फराबाद विधानसभा सीट से पहली बार निर्दलीय चुनाव जीतने के बाद से वह लगातार कांग्रेस उम्मीदवार के रूप में विधानसभा और संसदीय चुनावों में हारते रहे।
2012 में मसूद को 36 फीसदी वोट मिले लेकिन वह बसपा उम्मीदवार धर्म सिंह सैनी से दो फीसदी से भी कम वोटों से हार गए। 2014 के लोकसभा चुनावों के दौरान इमरान मसूद ने नरेंद्र मोदी के खिलाफ भड़काने वाला भाषण देकर विवाद भड़काया था, जिसके कारण उनकी गिरफ्तारी भी हुई थी। तब खुद मसूद ने सहारनपुर से चुनाव लड़ा था, जहां से उन्हें 34 फीसदी वोट मिले थे और वह भाजपा उम्मीदवार से हार गए थे। 2017 के विधानसभा चुनाव में इमरान ने नकुड़ से चुनाव लड़ा था, लेकिन उन्हें उनके पुराने प्रतिद्वंद्वी और बसपा से भाजपा में जा चुके धर्म सिंह सैनी ने महज एक फीसदी वोट से पराजित कर दिया।
राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि हर चुनाव में इमरान के मामूली वोटों से हारने की वजह उनके चाचा रशीद मसूद थे जो कि कांग्रेस में रहते हुए चुनाव में भितरघात को अंजाम देते थे, क्योंकि वह अपने बेटे को आगे बढ़ाना चाहते थे। 2019 के लोकसभा चुनावों में प्रियंका गांधी की मध्यस्थता से चाचा और भतीजे में सुलह हो गई थी, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी, क्योंकि तब तब बसपा और सपा में चुनावी गठबंधन हो चुका था जिससे मुस्लिम वोट इस गठबंधन के पक्ष में एकजुट हो गया।
अपने चुनावी करिअर में पहली बार सहारनपुर से चुनाव लड़ रहे मसूद का वोट प्रतिशत एक बार फिर बमुश्किल 16 प्रतिशत तक गिर गया और वह जीतने वाले बसपा और उपविजेता भाजपा उम्मीदवारों के बाद तीसरे नंबर पर थे। इसके तीन साल बाद इस साल की शुरुआत में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों से ठीक पहले जब अधिक से अधिक मुस्लिम पश्चिमी उत्तर प्रदेश और राज्य के अन्य क्षेत्रों में समाजवादी पार्टी गठबंधन से जुड़ रहे थे, तब मसूद भी सपा में चले गए। इसकी एक बड़ी वजह यह भी थी कि सपा और कांग्रेस, दोनों के बीच कोई समझौता नहीं हो सका था।
कांग्रेस छोड़ने से पहले उन्होंने अपनी गुरु प्रियंका की कड़ी मेहनत के लिए प्रशंसा की, लेकिन कहा कि वह सपा में शामिल हो रहे हैं, क्योंकि यह योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व वाली भाजपा को हराने और 'लोकतंत्र को बचाने' के लिए एकमात्र विश्वसनीय ताकत है। दुर्भाग्य से इमरान के लिए समाजवादी पार्टी में जाना विनाशकारी साबित हुआ। दरअसल सपा सुप्रीमो अखिलेश यादव को उनके करीबी लोगों ने सलाह दी कि इमरान मसूद मुस्लिम मतदाताओं के बीच अपनी अपील खो चुके हैं। लिहाजा उन्हें और उनके समर्थकों को चुनाव में टिकट ही नहीं दिए गए।
विधानसभा चुनाव में सपा गठबंधन ने 35 फीसदी वोट हासिल किए। बसपा और कांग्रेस कहीं मुकाबले में ही नहीं थी, लिहाजा इसलिए यह दोकोणीय मुकाबला था जिसमें भाजपा गठबंधन ने तीन सौ से अधिक सीटें जीतकर सत्ता बरकरार रखी। बसपा में शामिल होने वाले मुस्लिम नेता को पार्टी का पश्चिमी उत्तर प्रदेश का पार्टी समन्वयक बनाया गया है, जो कि आश्चर्य की बात नहीं है, लेकिन मसूद और उनकी नई पार्टी, दोनों के लिए संभावनाएं विशेष रूप से उज्ज्वल नहीं दिखती हैं।
वास्तव में लखनऊ में राजनीतिक पर्यवेक्षकों को लगता है कि बसपा अब एक कमजोर पड़ चुकी राजनीतिक ताकत है, जिसकी नेता कभी सर्वशक्तिमान बहनजी मायावती कथित तौर पर भ्रष्टाचार के मामलों में केंद्रीय एजेंसियों के दबाव में हैं। लखनऊ के एक वरिष्ठ पत्रकार की टिप्पणी है कि ऐसा लगता है कि पिछले चुनाव में मायावती ने भाजपा को फायदा पहुंचाने के लिए मुस्लिमों को बड़ी संख्या में टिकट दिए थे, ताकि मुस्लिम वोट बंट जाएं।
वास्तव में इमरान मसूद की त्रासदी उत्तर प्रदेश में मुस्लिम समुदाय की त्रासदी है। सूबे में 20 फीसदी (चार करोड़) की आबादी के बावजूद चुनावी राजनीति में दखल देने में वह नाकाम है। उत्तर प्रदेश में लाखों मुसलमानों के सामने असली समस्या यह है कि सभी राजनीतिक दल चुनाव दर चुनाव उनके वोटों के बदले में उनके कल्याण का वादा तो करते हैं, लेकिन हर बार उन्हें निराश करते हैं। यही असली कारण है कि समुदाय अपनी संख्यात्मक ताकत के बावजूद तेजी से हाशिये पर जा रहा है।

सोर्स: अमर उजाला

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