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- मुस्लिम व ईसाई दलित ?
आदित्य चोपड़ा; केन्द्र की मोदी सरकार ने उन अनुसूचित जाति वर्ग के लोगों के लिए एक तीन सदस्यीय आयोग का गठन किया है जिन्होंने वर्तमान में ही हिन्दू धर्म से मुस्लिम या ईसाई धर्म में प्रवेश किया है। दलित समाज के इन लोगों के साथ मुस्लिम या ईसाई बन जाने के बावजूद सामाजिक भेदभाव समाप्त नहीं हुआ और उनकी प्रताड़ना यथावत जारी रही जिसकी वजह से ये धर्मान्तरित लोग हिन्दू अनुसूचित वर्ग के समान ही मिलने वाली आरक्षण आदि सुविधाओं की मांग कर रहे हैं। इस हकीकत से यह तथ्य उजागर हो गया है कि इस्लाम व ईसाई धर्म में भी जन्म जातिगत आधार पर लोगों के बीच भेदभाव किया जाता है, जबकि इन नव धर्मान्तरित लोगों ने अपना धर्म केवल इसलिए बदला था कि उनके मुसलमान या ईसाई हो जाने पर उनके साथ इन समाजों में बराबरी का व्यवहार किया जायेगा और उन्हें अन्य लोगों के समान ही सम्मान व रुतबा मिलेगा। अतः यह भ्रम साफ हो जाना चाहिए कि इस्लाम या ईसाइयत में जन्मगत जाति के आधार पर भेदभाव करने की व्यावहारिक व्यवस्था नहीं है हालांकि इन धर्मों के मूल ग्रन्थों में जाति प्रथा के लिए कोई स्थान नहीं है। इसे हमें समग्रता में भारतीय समाज में फैली कुप्रथा का असर भी कह सकते हैं। 1950 में जब अनुसूचित जातियों के लोगों को 15 प्रतिशत राजनैतिक आरक्षण दिया गया था तो उसमें केवल हिन्दू समाज के दलित ही शामिल थे, परन्तु कालान्तर में सबसे पहले सिख दलितों को भी यह सुविधा दी गई और उसके नव बौद्धों में शामिल दलितों को भी इस श्रेणी में शामिल कर लिया गया। उसके बाद से ही मुस्लिम व ईसाई धर्म अपनाने वाले दलित भी ऐसी मांग कर रहे हैं। सवाल बहुत महत्वपूर्ण है कि यदि कोई दलित हिन्दू से मुसलमान या ईसाई बन जाने के बावजूद दलित का दलित ही रहता है तो उसके धर्म परिवर्तन का अर्थ क्या है? मगर ऐसे मुस्लिम या ईसाई दलितों की सामाजिक,आर्थिक व शैक्षणिक स्थिति का आंकलन बहुत जरूरी है जिसकी वजह से सरकार ने आयोग का गठन किया है। इस तीन सदस्यीय आयोग के अध्यक्ष भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश श्री के.जी. बालकृष्णन होंगे जो कि स्वयं अनुसूचित जाति वर्ग से आते हैं। परन्तु यह सवाल इतना सरल नहीं है कि एक आयोग गठित करने से हल हो जाये। इसके पीछे भारत का पूरा इतिहास है और वे सम-सामयिक प्रश्न हैं जो धर्मान्तरण से जुड़े हुए हैं।हजारों साल से हिन्दू समाज के भीतर जो वर्ण व्यवस्था है वह जातिगत प्रणाली में फलीभूत हुई और जन्म के आधार पर किसी विशेष जाति में जन्म लेने वाले व्यक्ति का सामाजिक स्थान नियत होने लगा और उनके व्यवसाय भी तय होने लगे। इन पेशों या व्यवसायों ने भी जातियों को जन्म दिया और हिन्दू समाज हजारों जातियों में बंट गया। चार वर्णों ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व, शूद्र के बीच भी उप-जातियों का गठन होता चला गया और इनमें भी ऊंच-नीच का भेद पैदा होता गया। पूरी दुनिया में केवल भारतीय उपमहाद्वीप ही ऐसा इलाका है जहां जातियों के आधार पर मनुष्यों का सामाजिक रुतबा तय होता है। इस प्रथा ने सबसे ज्यादा जुल्म शूद्र वर्ण में जन्म लेने वाले जातिगत लोगों पर किया मगर उनमें भी व्यवसाय या पेशे के आधार पर सैकड़ों उपजातियों को जन्म दिया। इसके बावजूद हिन्दू समाज के लिए ये सभी जातियां व उपजातियां एक जमाने तक अस्पृश्य बनी रहीं जिन्हें इससे मुक्ति दिलाने के लिए महात्मा गांधी ने स्वतन्त्रता आंदोलन के समानान्तर ही बड़ा आन्दोलन खड़ा किया और इन्हें 'हरिजन' नाम दिया। आजादी के बाद इस वर्ग के लोगों को संविधान में अनुसूचित जाति शृंखला में दर्ज कर शेष समाज के समकक्ष लाने के उद्देश्य से 15 प्रतिशत आरक्षण देने की व्यवस्था की गई और सीधे राजनैतिक सत्ता में इस वर्ग के लोगों की भागीदारी तय की गई जिसके तार 1932 में महात्मा गांधी व संविधान निर्माता डा. भीमराव अम्बेडकर के बीच हुए ऐतिहासिक 'पूना पैक्ट' से जाकर जुड़ते हैं। संपादकीय :सुरक्षा है तो खुशियां ही खुशियांनोबेल शांति पुरस्कारअम्बानी को धमकीज्ञानवापी का 'बोलता सच'गरबा में हंगामा क्यों?तेलंगाना की राष्ट्रीय आकांक्षा?अब सवाल नव परिवर्तित मुस्लिमों व ईसाइयों का आता है। मुस्लिम समाज के लिए 1947 में भारत का बंटवारा किया गया और पाकिस्तान का निर्माण हुआ जबकि ईसाई समुदाय की भारतीय समाज में भूमिका दीन-दुखियों की सेवा व उनमें शिक्षा के प्रचार के रूप में देखी गई। हालांकि बीच-बीच में ईसाई मिशनरियों ने अपने धर्म के प्रचार में विशेष रूप से दलितों व आदिवासियों का धर्मान्तरण भी किया। इसके बावजूद यह समाज कभी आक्रामक नहीं हुआ। इतना जरूर हुआ कि मिशनरियों ने दलितों व आदिवासियों को प्रभावित करने के लिए सनातनी पूजा पद्धति के रास्तों को भी अपनाने से गुरेज नहीं किया। सवाल यह है कि जब इस्लाम कबूल करने वाले दलितों के साथ बराबरी का व्यवहार नहीं हुआ तो उन्हें अपने 'दलित' होने की याद आयी। इसी प्रकार ईसाई मजहब में जाने वाले लोगों को भी अपनी हकीकत याद आयी। इससे कम से कम यह तो साबित होता ही है कि दलितों के साथ सभी धर्मों के भीतर एक जैसा दुर्व्यवहार व भेदभाव होता है। इस स्थिति को बदलने के लिए विभिन्न धर्मों की जातिगत व्यवस्था का सबसे पहले अध्ययन करना पड़ेगा और ऐसा करते हुए कई खास मजहबों के चारों तरफ बुने हुए कई भ्रामक जालों को तोड़ना होगा।