सम्पादकीय

हताशा में हत्या

Subhi
1 Jun 2022 4:56 AM GMT
हताशा में हत्या
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जम्मू-कश्मीर में एक बार फिर आतंकियों ने लक्षित हत्या की है। उन्होंने जम्मू संभाग के कुलगाम जिले में एक स्कूल अध्यापिका को गोली मार दी। कुछ दिनों पहले एक कश्मीरी पंडित को उसके दफ्तर में घुस कर गोली मारी थी।

Written by जनसत्ता: जम्मू-कश्मीर में एक बार फिर आतंकियों ने लक्षित हत्या की है। उन्होंने जम्मू संभाग के कुलगाम जिले में एक स्कूल अध्यापिका को गोली मार दी। कुछ दिनों पहले एक कश्मीरी पंडित को उसके दफ्तर में घुस कर गोली मारी थी। उससे पहले एक दवा विक्रेता कश्मीरी पंडित की हत्या की थी। उससे पहले कुछ प्रवासी मजदूरों को निशाना बनाया था। ऐसा भी नहीं कि उनके निशाने पर केवल हिंदू समाज के लोग हैं। पिछले दिनों एक टीवी कलाकार की हत्या कर दी गई। वे मुसलिम समुदाय से थीं। वे सामाजिक मंचों पर अपने गाने साझा किया करती थीं। जाहिर है, यह उन्हें नागवार गुजरता था। जो भी उनके बनाए नियम-कायदों के विरुद्ध चलता दिखता है, वे उसे निशाना बनाते हैं।

इससे यह भी जाहिर होता है कि घाटी में आतंकियों ने अपना रास्ता बदल लिया है। अब वे तालिबान के रास्ते पर चल रहे हैं। एक स्कूल अध्यापिका से आतंकियों को भला क्या खतरा हो सकता है। यही कि वे विद्यार्थियों को वह सब सिखाती-पढ़ाती होंगी, जो आतंकियों के तथाकथित मजहब से मेल नहीं खाता होगा या फिर उसका पहनावा उनकी तथाकथित तहजीब के अनुकूल नहीं बैठता होगा। उससे उन्हें युवा पीढ़ी में तार्किक विचारों के पनपने का खतरा रहा होगा। दहशतगर्द कभी नहीं चाहते कि घाटी के बच्चों को मजहब के दायरे बाहर निकल कर कुछ पढ़ाया-सिखाया जा सके।

आतंकियों के इस तरह लक्ष्य बना कर हत्या करने की रणनीति उनकी हताशा का ही परिचायक है। अगर उन्हें लगता होगा कि तालिबान के रास्ते चल कर वे घाटी के लोगों में दहशत पैदा कर सकते हैं और उन्हें अपने बनाए मजहबी नियम-कायदों को जीवन में उतारने को विवश कर सकते हैं, तो यह उनकी खामखयाली ही कही जा सकती है। जबसे अफगानिस्तान में तालिबान का शासन हुआ है, कश्मीरी अलगाववादियों और दहशतगर्दों के हौसले कुछ बुलंद हुए हैं। उन्हें वहां से समर्थन मिलने की उम्मीद बनी है। मगर घाटी में सक्रिय दहशतगर्दों को नहीं भूलना चाहिए कि अफगानिस्तान और कश्मीर का मिजाज बिल्कुल अलग है। कश्मीरी अवाम शुरू से तरक्कीपसंद और अमनपसंद रही है।

वहां की बहुत सारी महिलाएं मदरसों के बजाय आधुनिक स्कूलों में पढ़-लिख कर आजाद खयाल हैं। वे अनेक क्षेत्रों में कामयाबी की बुलंदियां छू रही हैं। उन्हें इस तरह बंदूक के बल पर मजहबी खांचे में बंद करके रखना संभव नहीं होगा। आम कश्मीरी भी दहशत में जीते-जीते आजिज आ चुका है। उस पर दोहरी मार पड़ती है। एक तरफ आतंकवादियों की और दूसरी ओर सुरक्षा बलों की। अब वे अमन चाहते हैं, इसलिए पहले की तरह दहशतगर्दों का समर्थन करते नहीं दिखते।

दरअसल, घाटी में अब सुरक्षाबलों की चौकसी के चलते सीमा पार से होने वाली घुसपैठ काफी हद तक रुक गई है। उन्हें वित्तीय मदद पहुंचाने वालों पर नकेल कसी जा चुकी है। युवाओं को बरगला कर अपने साथ जोड़ने के उनके अभियान भी कारगर नहीं रहे। आए दिन आतंकियों की पहचान कर मार गिराया जाता है। स्थानीय लोग भी अब उन्हें पहले की तरह पनाह नहीं देते। इन सबके चलते उनमें घोर हताशा पनपी है। इस तरह वे नए-नए रास्ते तलाश कर घाटी में दहशत का माहौल बनाए रखने का प्रयास करते हैं। कभी वे पुलिस महकमे में भर्ती कश्मीरी युवाओं को निशाना बनाते हैं, तो कभी प्रतिक्रिया में बाहरी हिंदुओं को। अब वे तालिबानी तरीका अपनाते देखे जा रहे हैं, तो यह उनका नया रास्ता है। मगर इसमें भी उन्हें कामयाबी नहीं मिलने वाली। इस तरह वे स्थानीय लोगों की नफरत ही बटोर रहे हैं।

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