सम्पादकीय

चंद्रधर शर्मा गुलेरी का बहुपक्षीय योगदान

Rani Sahu
6 July 2022 7:12 PM GMT
चंद्रधर शर्मा गुलेरी का बहुपक्षीय योगदान
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हिंदी साहित्य की 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध और 20वीं शताब्दी के प्रारंभिक चरण का युग युगांतरकारी परिवर्तनों, परिवर्द्धनों और नव उत्थानात्मक दृष्टियों से सदैव स्मरणीय रहेगा

हिंदी साहित्य की 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध और 20वीं शताब्दी के प्रारंभिक चरण का युग युगांतरकारी परिवर्तनों, परिवर्द्धनों और नव उत्थानात्मक दृष्टियों से सदैव स्मरणीय रहेगा। इस कालखंड में भाषा, साहित्य और रचना-शिल्प की दृष्टि से समृद्धि के साथ-साथ साहित्य की विभिन्न विधाओं के पदार्पण से हिंदी साहित्य भी संपन्न हुआ। बीसवीं शताब्दी के प्रारंभिक साहित्योत्थान में पं. चंद्रधर शर्मा गुलेरी का नाम प्रथम पंक्ति के साहित्य सेवियों में लिया जाता है। गुलेरी जी उन हिंदी प्रेमियों में से हैं जिन्होंने स्वभाषा की संगठनात्मक, प्रचारात्मक और रचनात्मक दृष्टि से भरपूर सेवा की। कदाचित इसीलिए उनकी गणना आधुनिक हिंदी साहित्य के कर्णधारों में होती है। राज-सम्मान प्राप्त महान संस्कृतज्ञ, दार्शनिक और लब्ध प्रतिष्ठ विद्वान पं. शिवराम जी शास्त्री के घर उनकी तृतीय पत्नी लक्ष्मी से अमर कहानीकार श्री चंद्रधर शर्मा गुलेरी का जन्म 25 आषाढ़ संवत् 1940 (तदनुसार 7 जुलाई, सन् 1883 ई.) को जयपुर में हुआ। उस दिन शनिवार था। पं. चंद्रधर शर्मा गुलेरी अपने पिता के चिर प्रतीक्षित ज्येष्ठ पुत्र थे। इनकी जन्म कुंडली में कर्क राशि का स्वामी चंद्र था। इसीलिए पिता ने इनका नाम चंद्रधर रख दिया। शिवराम जी के परिवार में मुख्य कार्य पौरोहित्य का था। वह स्वयं तो पुरोहित थे ही, उनके दोनों भाई भी यही कार्य करते थे। उनमें से शिवदत्त जी के मोतीराम और चेतराम जी के राम लाल पुत्र हुए। इनकी शिक्षा-दीक्षा जयपुर में पं. शिवराम जी के पास ही हुई।

पं. मोतीराम जी गुलेर राज्य के क्षत्रियों के राजपुरोहित थे। पं. रामलाल गुलेर राज-दरबार के कुलगुरु के रूप में प्रतिष्ठित हुए। चंद्रधर शर्मा गुलेरी अपने कुल की परंपरानुसार बड़े मेधावी थे। बालक चंद्रधर ने सन् 1893 में महाराजा कालेज जयपुर में प्रवेश लिया। यहीं से इनकी अंग्रेजी शिक्षा का श्रीगणेश हुआ। सन् 1897 में उन्होंने द्वितीय श्रेणी में मिडिल पास किया। सन् 1899 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एंटे्रंस की परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास की और सभी रिकार्डों को तोड़कर सर्वप्रथम रहे। इसी वर्ष इन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय से मैट्रिक की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। इनकी अपूर्व सफलता पर महाराजा जयपुर ने जयपुर राज्य की ओर से इन्हें एक स्वर्ण पदक और कई अन्य पुरस्कार प्रदान किए। बालक गुलेरी विविध विषयों के ज्ञानार्जन में रुचि रखते थे। उन्होंने एम. ए. की परीक्षा में तर्कशास्त्र, ग्रीक तथा रोमन, इतिहास, भौतिकी, रसायन शास्त्र, संस्कृत और गणित विषय लिए। यहीं नहीं, एम. ए. की परीक्षा में गद्य के पर्चे में उन्होंने कलकत्ता के सभी कालेजों में दूसरा स्थान प्राप्त किया था। गुलेरी जी की योग्यता, कर्मठता, निष्ठा व अद्भुत ज्ञान से प्रभावित होकर विदेशी विद्वानों ने उन्हें अनेक संस्तुति पत्र प्रदान किए थे।
सन् 1902 में जब कर्नल सर स्विण्टन जैकब और कैप्टन ए. एफ. गेरेट जयपुर वेधशाला के जीर्णोद्धार के लिए नियुक्त हुए तो उन्हें ऐसे व्यक्ति की तलाश थी जो संस्कृत का प्रकांड पंडित, ज्योतिष शास्त्र का वेत्ता तथा पश्चिम की दो-तीन भाषाओं में भी पारंगत हो। इस कार्य में विदेशियों की सहायता के लिए युवक चंद्रधर शर्मा को चुना गया। उन्होंने जयपुर के ज्योतिष मंत्रालय के जीर्णोद्धार में सहायता की तथा सम्राट-सिद्धांत जैसे दुर्लभ और दुर्बोध ज्योतिष ग्रंथ का अंग्रेजी में अनुवाद किया। इसके साथ-साथ यंत्रों को स्थिर तथा निश्चित करने और उनके परीक्षण में भी योगदान दिया। लगभग 20-22 वर्ष की अवस्था में गुलेरी जी का विवाह पद्मावती से हुआ। उनके विवाह की भी बड़ी अद्भुत कहानी है। इसमें संयोग और घटना अन्योन्याश्रित रूप से जुड़े हुए हैं। जब गुलेरी जी बीए पास कर चुके तो पिता ने उनका संबंध गरली में निश्चित कर दिया। शिवराम जी उनके विवाह के लिए अपने गांव गुलेर आए हुए थे। विवाह की तैयारियां पूरी कर ली गई थीं। दुर्भाग्यवश कन्या के पिता का देहांत हो गया। पं. शिवराम जी असमंजस में पड़ गए। वे चंद्रधर जी को अविवाहित लेकर जयपुर लौटना नहीं चाहते थे। कारण, उन्हें जयपुर राज्य की ओर से विवाह के लिए पांच सौ रुपए की सहायता मिली हुई थी। वे विवाह किए बिना लौटने में अपमान समझ रहे थे। इसीलिए उन्होंने शीघ्र ही हरिपुर निवासी 'कविरैणा' की पुत्री पद्मावती से उनका विवाह बड़ी धूमधाम से संपन्न किया। गुलेरी जी परिवार में ज्येष्ठ थे। उनके दो भाई सोमदेव और जगद्धर थे तथा एक बहन विद्यावती थी। गुलेरी जी की कुल चार संतानें हुई- योगेश्वर, शक्तिधर, अदिति और विजया। वह साहित्याकाश के ऐसे नक्षत्र थे, जो अपनी अमर कथा रचना 'उसने कहा था' (सरस्वती, 1915 में प्रकाशित) के द्वारा न केवल अपने समकालीन, बल्कि हिंदी की परवर्ती पीढ़ी के स्मृति पटल पर सदैव अंकित हो गए। परिवर्तित साहित्यिक मान-मूल्यों तथा साहित्य के अनेक उतार-चढ़ावों के बावजूद यह कहानी अपने कालजयी सौंदर्य के कारण आज भी अपना विशिष्ट स्थान रखती है। साहित्य के क्षेत्र में, मात्र एक कहानी से किसी लेखक की पहचान की प्रक्रिया भी, इसी अमर रचना से प्रारंभ हुई। मात्र तीन कहानियां- 'सुखमय जीवन' (सन् 1911 ई.), 'बुद्धू का कांटा' (सन् 1911-1915 ई.) और 'उसने कहा था' (सन् 1915 ई.) लिखी। कहानी कला के विकास क्रम की दृष्टि से हिंदी कहानी के शुरुआती दौर में गुलेरी जी का स्थान निश्चय ही महत्त्वपूर्ण है। इनकी कहानियां कहानी कला के विकास के सिंह द्वार हैं। प्रभाव और प्रेरणा की दृष्टि से इनका स्थान एकांत स्वतंत्र है।
अतः ऐतिहासिक एवं कलात्मक दृष्टि से गुलेरी जी की कहानियों का पृथक रूप से अध्ययन-अनुशीलन अलग मूल्य रखता है। साहित्य सर्जक, संस्कृति एवं पुरातत्त्ववेत्ता, प्राच्य विद्या विशारद, प्रकांड भाषाविद, ज्योतिर्विज्ञानी तथा पत्रकार के रूप में गुलेरी जी ने हर क्षेत्र में अपना बहुमूल्य योगदान दिया। उन्होंने समालोचक (1902-1907) तथा काशी नागरी प्रचारिणी पत्रिका (1920-1922) का संपादन भी बड़ी योग्यता से किया। गुलेरी जी एक आदर्श पुत्र, आदर्श पति, आदर्श भाई अर्थात आदर्श व्यक्तित्व के मालिक थे। अपने गांव गुलेर के प्रति उनका गहन आकर्षण था। इस आशंका से कि उनके उत्तराधिकारी ग्राम-मोह छोड़कर मारवाड़ी न बन जाएं, उनके पिता शिवराम जी महाराज ने जयपुर राज्य द्वारा प्रदत्त जागीर को अस्वीकार कर दिया था। गुलेरी जी पिता के देहावसान के पश्चात हर वर्ष छट्टियां बिताने गुलेर आया करते थे। गुलेरी जी ने जब लिखना शुरू किया तो अपने गांव के प्रति अन्योन्याश्रित संबंध दिखाकर अपने नाम के साथ 'गुलेरी' उपाधि धारण कर ली। इस प्रकार गुलेरी जी ने अपने नाम के साथ-साथ अपने गांव गुलेर का नाम भी सदैव के लिए साहित्य संसार में अमर कर दिया। अपने गांव, अपने प्रदेश के प्रति यह साहित्यिक मौन समर्पण युगों-युगों तक अमिट रहेगा।
डा. अदिति गुलेरी
साहित्यकार

सोर्स- divyahimachal


Rani Sahu

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