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- मुकुल राय की घर वापसी...
आदित्य चोपड़ा: भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष श्री मुकुल राय के तृणमूल कांग्रेस में आने को जिस तरह घर वापसी बताया जा रहा है वह वर्तमान दौर की राजनीति का सच इसलिए है क्योंकि विचारधारा की लड़ाई निजी हितों की बलि चढ़ रही है और उसे महिमामंडित किया जा रहा है। राज्य में एक महीने पहले ही हुए विधानसभा चुनावों से पूर्व जिस तरह सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस से नेताओं का पलायन भारतीय जनता पार्टी में हुआ था उससे यही सन्देश राष्ट्रीय स्तर पर गया था कि राजनीति अब कोरे स्वार्थ का धंधा बन गया है। परन्तु यह कमाल प. बंगाल की प्रबुद्ध जनता का है कि उसने राजनीतिज्ञों को सीख देते हुए समझाया कि जो लोग वोटों की तिजारत करने निकले हैं उनके लिए राजनीति बेशक बाजार हो सकती है मगर जनता के लिए यह संविधान द्वारा दिया गया पवित्र अधिकार है जिसका उपयोग वह अपनी अन्तरात्मा की आवाज पर करती है। प. बंगाल के चुनावों ने यह भी सिद्ध किया कि चुनावों में लोकहित से जुड़े मुद्दों को किसी कीमत पर दबाया नहीं जा सकता है और चुनाव प्रचार के भारी शोर-शराबे से रातोंरात राजनीतिक दलों की किस्मत नहीं बदली जा सकती है। मुकुल राय का भाजपा से दामन अलग करके तृणमूल कांग्रेस से गांठ बांधने का यही अभिप्राय है कि प. बंगाल की राजनीति जमीनी हकीकत से ही संचालित होती है। यह जमीनी हकीकत यह है कि बंगाल की राजनीति इसके बांग्ला मानकों से तय होती है और यह ऊपर से थोपी हुई कोई भी संस्कृति बर्दाश्त नहीं करता है।
भाजपा के संस्थापक डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी बंगाल से ही थे और आजादी से पूर्व वह हिन्दू महासभा में रहते हुए अविभाजित बंगाल की मुस्लिम लीग व अन्य दलों की सांझा सरकार के वित्तमंत्री भी रहे थे। आजादी के बाद उन्होंने 1951 में अलग भारतीय जनसंघ पार्टी बनाई और 1952 का पहला लोकसभा चुनाव लड़ा तो जनसंघ की तीन सीटें आयीं जिनमें से दो प. बंगाल से थीं और एक राजस्थान के भीलवाड़ा से। उत्तर कोलकाता से स्वयं श्री मुखर्जी चुनाव जीते थे। अतः भाजपा की जड़ें 1952 से ही प. बंगाल में हैं। परन्तु 2019 के लोकसभा चुनाव में राज्य की 42 में से 18 सीटें जीत कर भाजपा ने अपनी साख में वृद्धि की लेकिन इसमें श्री मुकुल राय की बहुत बड़ी भूमिका मानी गई। वह 2017 में तृणमूल से भाजपा में शामिल हो गये थे । उन्होंने पूरे बंगाल में भाजपा की विचारधारा से ऊपर अपने संगठनात्मक कौशल का परिचय दिया। इसके साथ ही प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी की राष्ट्रीय स्तर पर लोकप्रियता ने लोगों को क्षेत्रीय दल तृणमूल कांग्रेस को नई दिल्ली में प्रभावी भूमिका निभाने के योग्य नहीं समझा। इसके साथ ही इन चुनावों में राष्ट्रीय सुरक्षा का मुद्दा प्रमुख था जिसकी वजह से इन चुनावों में तत्कालीन परिस्थितियों के अनुसार भाजपा को सम्मानजनक सफलता मिली। परन्तु 2021 के विधानसभा चुनावों के दौरान जिस प्रकार थोक के हिसाब से तृणमूल से भाजपा में पलायन हुआ उससे बंगाली जनता में अपने ही घर में पर-बस में हो जाने का खौफ व्याप्त हो गया । क्योंकि भाजपा की ओर से चुनाव प्रचार की कमान 2019 के लोकसभा चुनाव वाले हाथों में ही थी। इस फर्क को बंगाली मानुष समझ गया मगर राजनीतिज्ञ नहीं समझ पाये। इसकी वजह यही है कि बंगाली नागरिकों ने अपनी भाषाई पहचान से कभी कोई समझौता नहीं किया।
बंगाल का विश्वास और सूरत व सीरत नेता आयात करने की कमी नहीं रही बल्कि इसने हमेशा इनका निर्यात किया है। इस श्रेणी मंे अनगिनत नाम हैं जिनसे अखबार का पूरा पृष्ठ भरा जा सकता है मगर सबसे अग्रणी नाम नेताजी सुभाष चन्द्र बोस का हैं। अतः विधानसभा चुनावों में ममता दीदी के आगे कोई नहीं टिक पाया । हालांकि वह नन्दी ग्राम से अपना चुनाव बहुत कम वोटों से हार गईं मगर पूरे राज्य में उनका डंका बजता रहा। दूसरी तरफ भाजपा ने भी सीधे ममता दी को टक्कर देकर सिद्ध करने की कोशिश की प. बंगाल में उसकी विचारधारा भी सुप्त नहीं है और उसे भी जमीनी समर्थन मिल रहा है। इसी वजह से 294 सदस्यीय विधानसभा में उसके 77 सदस्य चुन कर आये। मगर इस बार मुकुल राय की इसमें भूमिका हांशिये पर थी और उनकी जगह शुभेन्दु अधिकारी ने ले ली थी जो दिसम्बर 2020 में ही मन्त्री पद से इस्तीफा देकर भाजपा में शामिल हुए थे। मगर हकीकत यह भी है कि विधानसभा चुनावों में भाजपा ने तृणमूल से आये 148 नेताओं को चुनाव लड़ाया था जिनमें से केवल छह ही विजय प्राप्त कर सके। इसके बावजूद भाजपा के 77 विधायक चुने गये तो मतलब साफ है कि भाजपा कहीं न कहीं जमीन में जरूर फैली है। जाहिर तौर पर यह काम मुकुल राय के सहारे ही भाजपा करने में सफल हो सकी है क्योंकि मुकुल दा मूलतः संगठन के आदमी ही हैं। वह कुछ दिनों के लिए केन्द्र में मनमोहन मन्त्रिमंडल में रेल मन्त्री जरूर रहे मगर उनका कार्यक्षेत्र संगठन ही रहा है। ममता दी ने उनकी इसी खूबी की वजह से उन्हें तृणमूल कांग्रेस में लिया है और अन्य छुटभैये नेताओं के लिए अपने दरवाजे बन्द कर दिये हैं। मुकुल राय के वापस अपनी पार्टी में आने से एक सन्देश यह भी जाता है कि दल बदलू नेताओं का जमाना कब लद जाये कुछ कहा नहीं जा सकता। क्योंकि उनकी स्वीकार्यता किसी भी दल में उनकी उपयोगिता पर ही निर्भर करती है।