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राजनीति अब जैसे सिर्फ वादों और घोषणाओं का खेल बन चुकी है। जहां सियासी पार्टियों को सत्ता में आने की ललक होती है
राजनीति अब जैसे सिर्फ वादों और घोषणाओं का खेल बन चुकी है। जहां सियासी पार्टियों को सत्ता में आने की ललक होती है, वहां चुनाव के वक्त खूब बढ़-चढ़ कर घोषणाएं करती हैं, लोगों को ऐसे-ऐसे सब्जबाग दिखाती हैं कि लगता है, उनके आते ही लोगों के सारे दुख दूर हो जाएंगे। इन घोषणाओं की झड़ी में या तो वे भूल जाती हैं या जानबूझ कर उन पर पर्दा डालने का प्रयास करती हैं कि जो वादे उन्होंने पहले किए थे, वे अभी तक पूरे नहीं हो पाए हैं। या फिर उन्हें इस बात का पूरा यकीन है कि लोगों की याददाश्त कमजोर होती है और वे अब तक उनके पुराने वादे भूल चुके होंगे।
कुछ इसी यकीन के साथ दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल पंजाब गए थे। वहां वे स्थायी करने की मांग लेकर आंदोलन कर रहे अस्थायी शिक्षकों के साथ धरने पर बैठ गए और कहा कि अस्थायी शिक्षकों को स्थायी करना तो सरकारों के लिए बहुत मामूली काम है, मगर पंजाब सरकार की नीयत ठीक न होने की वजह से यह काम नहीं हो पा रहा। अगर उनकी सरकार आई, तो वह यह काम पूरा कर देगी। केजरीवाल भूल गए या फिर यह मान बैठे कि लोग भुला चुके होंगे कि यही वादा उन्होंने पहली बार दिल्ली की सत्ता में आने से पहले खुद किया था, जो आज तक पूरा नहीं हो सका है।
राजनीति में जुमले उल्टे भी पड़ जाया करते हैं। केजरीवाल के साथ भी यही हुआ। दिल्ली के अस्थायी शिक्षक भी स्थायी करने की मांग के साथ मुख्यमंत्री निवास के बाहर धरने पर बैठ गए। मौका देख पंजाब कांग्रेस के प्रमुख नवजोत सिंह सिद्धू भी उनके साथ धरने पर आ बैठे। स्वाभाविक ही, इससे शिक्षकों का मनोबल बढ़ गया।
हालांकि मुख्यमंत्री लापता रहे, शिक्षकों से मिलने नहीं आए और उन्हें निराश होकर वापस लौटना पड़ा। केजरीवाल का पंजाब में यह कोई पहला और अकेला वादा नहीं है। इससे पहले वे सभी को मुफ्त बिजली और सभी महिलाओं को हर महीने वजीफा देने की घोषणा कर चुके हैं। कोई उनसे पूछे कि इसके लिए पैसे आएंगे कहां से, तो शायद उनके पास कोई जवाब न हो। यही हकीकत है राजनीतिक दलों के चुनावी वादों और उनके असल इरादों में। फिर भी हर प्रदेश में चुनावी वादों की बरसात हो रही है और लोग पुलकित हो उसमें भीग रहे हैं।
अरविंद केजरीवाल ने पहली बार सत्ता में आने से पहले अस्थायी अध्यापकों को स्थायी करने का वादा किया था, मगर सात साल बीत जाने के बाद भी वे इस दिशा में एक कदम आगे नहीं बढ़े हैं। शिक्षकों की स्थिति यह है कि उन्हें दिहाड़ी मजदूरों से भी दयनीय स्थिति में काम करना पड़ता है। सवाल है कि जब शिक्षकों के तय पद खाली हैं, तो उन पर काम कर रहे अस्थायी शिक्षकों को मुस्तकिल करने में अड़चन क्या है। मगर हालत हर जगह यही बनी हुई है। सरकारें धन का रोना रोकर खाली पदों को भरने से बचती रहती हैं।
पूरे देश के सरकारी स्कूलों में भारी संख्या में अध्यापकों के स्वीकृत पद खाली पड़े हैं, पर उन्हें भरा नहीं जा रहा। स्थायी होने की लालसा में बहुत सारे लोग अस्थायी रूप में बरसों काम करते रहते हैं, पर सरकारें आखिरकार उन्हें छलती ही हैं। केजरीवाल इसके अपवाद नहीं। मगर दूसरी सरकारों की कमी के रूप में इसका उल्लेख करने से भला बाज क्यों आएं।
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