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- एमएसपी का मुद्दा
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लखनऊ की महापंचायत में किसान संगठनों ने अपनी मांगों को दोहरा कर स्पष्ट संदेश दे दिया है कि जब तक सभी मांगें नहीं मान ली जातीं, तब तक आंदोलन खत्म करने का सवाल ही नहीं उठता।
लखनऊ की महापंचायत में किसान संगठनों ने अपनी मांगों को दोहरा कर स्पष्ट संदेश दे दिया है कि जब तक सभी मांगें नहीं मान ली जातीं, तब तक आंदोलन खत्म करने का सवाल ही नहीं उठता। अभी तक माना जा रहा था कि तीनों विवादास्पद कृषि कानूनों को वापस लेने के सरकार के फैसले के बाद किसान धरना-प्रदर्शन खत्म कर देंगे। पर किसान जिन मांगों को लेकर अड़े हैं, उससे सरकार की मुश्किलें और बढ़ गई हैं। कृषि कानूनों की वापसी के अलावा किसानों की बड़ी मांग न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को लेकर कानून बनाने की है।
किसानों की यह मांग कम जटिल मुद्दा नहीं है। अगर मामला आसान होता तो तीनों कृषि कानून वापस लेने की घोषणा के साथ ही सरकार एमएसपी पर भी कोई फैसला कर सकती थी। इससे समझा जा सकता है कि एमएसपी को लेकर सरकार कितनी दुविधा में होगी। दरअसल, एमएसपी का मसला ऐसा है जिस पर कृषि विशेषज्ञ और अर्थशास्त्रियों के बीच भी आमराय आसानी से नहीं बनती दिखती। जहां एक वर्ग का मानना है कि एमएसपी कानून बनने से ही छोटे किसानों को उपज का लाभ मिल पाएगा, वहीं ऐसा नहीं मानने वाला वर्ग कहीं ज्यादा बड़ा है। जाहिर है, एमएसपी का मुद्दा आसानी से नहीं हल नहीं होने वाला।
सवाल है ऐसे में हो क्या? बिना समाधान निकाले तो आगे बढ़ पाना संभव नहीं होगा। सरकार के सामने व्यावहारिक समस्या यह है कि अगर एमएसपी कानून बन गया तो उसके लिए किसानों की उपज खरीदने की मजबूरी हो जाएगी। यह तर्क भी दिया जा रहा है कि एमएसपी कानून बन जाने के बाद अगर सरकार ने व्यापारियों को तय दाम पर उपज खरीदने के लिए मजबूर किया तो व्यापारी कम दाम पर आयात करने जैसा कदम उठा सकते हैं। संकट यही है कि जब सरकार पूरी उपज खरीद नहीं सकती, व्यापारी निर्धारित एमएसपी पर उपज खरीदने से बचेंगे, तो किसान करेगा क्या?
हालांकि एमएसपी की व्यवस्था देश में छठे दशक के दौरान खाद्यान्न संकट के दौरान शुरू की गई थी, ताकि सरकार किसानों से उपज खरीदे और भंडार भरे। यह किसानों के हित के लिए ही किया गया था। पर आज सरकारी गोदाम गेहूं, चावल आदि से अटे पड़े होने का दावा किया जा रहा है। बात यहीं खत्म नहीं होती। विश्व व्यापार संगठन खाद्यान्न खरीद पर सबसिडी का विरोध करता रहा है। ऐसे में अगर सबसिडी बढ़ती रही तो निर्यात का संकट खड़ा हो जाएगा। कहा यह भी जाता रहा है कि एमएसपी से छोटे और सीमांत किसानों को कोई लाभ नहीं होता है, सिर्फ पांच-छह फीसद बड़े किसान ही इसका फायदा उठाते हैं। इससे तो एमएसपी व्यवस्था की प्रासंगिकता पर ही सवाल खड़ा हो जाता है।
इस बात से कोई इनकार नहीं करेगा कि किसानों को उपज का पूरा दाम मिलना चाहिए। अगर मौजूदा व्यवस्था से समाधान नहीं निकल रहा है तो इसके लिए नए उपायों पर विचार किया जाना चाहिए। एमएसपी संकट का हल तो कृषि विशेषज्ञों, कृषि अर्थशास्त्रियों और किसान संगठनों के नुमाइंदों की समिति को ही खोजना होगा। प्रधानमंत्री इस मसले पर समिति बनाने की बात कह चुके हैं। दरअसल, पूरी दुनिया में कृषि और कृषि बाजार का स्वरूप बदल रहा है। हम बाजार आधारित वैश्विक अर्थव्यवस्था का अभिन्न हिस्सा बन चुके हैं। ऐसे में वक्त के साथ बदलने की जरूरत है। सबसे बड़ी बात तो यही कि जो भी कदम उठाए जाएं, वे मुट्ठीभर किसानों के हितों के लिए नहीं हो, बल्कि अस्सी फीसद से ज्यादा छोटे और मझोले किसानों के हितों को पूरा करने वाले हों।
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