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- कर्ज संकट में फंसा...
आदित्य नारायण चोपड़ा: कोरोना महामारी अब पूरी तरह अंत के करीब है लेकिन महामारी के दुष्प्रभाव अभी हमारा पीछा छोड़ने वाले नहीं हैं। महामारी का दर्द अब परेशान कर रहा है। महामारी के दौरान पिछले दो वर्षों के दौरान अर्थव्यवस्था पर पड़ी जबरदस्त मार ने सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यमों (एमएसएमईएस) को सबसे अधिक प्रभावित किया है। मार्च 2020 में कोविड के चलते देशव्यापी सख्त लॉकडाउन की घोषणा के बाद हजारों एमएसएमई बंद हो गए या उनकी हालत खस्ता हो गई। ऐसे में आरबीआई और सरकार ने इमरजैंसी क्रेडिट लाइन गारंटी योजना सहित कई उपाय किए गए, जिसके तहत एमएसएमई और व्यवसाय को तीन लाख करोड़ का ऋण प्रदान किया। रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने एमएसएमई को एसेट क्लासिफिकेशन्स डाउन ग्रेड के बिना वन टाइम रिस्ट्रक्चरिंग ऑफ लोन योजना को भी बढ़ाया गया। उपायों के बावजूद एमएसएमई का ग्रॉस नॉन परफार्मिंग एमेट (एनपीए) पर इन उद्यमों का डिफाल्ट लोन सितम्बर 2021 तक 20 हजार करोड़ रुपए बढ़कर 1,65732 करोड़ हो गए। सितम्बर 2020 में यह आंकड़ा 1,45,673 करोड़ रुपए था। एमएसएमई का बैड लोन सितम्बर 2020 में 8.2 प्रतिशत के मुकाबले अब 17.33 लाख करोड़ रुपए ग्रॉस एडवांस का 9.6 प्रतिशत है। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का एमएसएमई एनपीए में 1,37087 करोड़ का बड़ा हिस्सा है। लोन नॉन परफार्मिंग एसेट तब बैड लोन में बदलता है जब प्रिंसिपल या इंटरेस्ट 90 दिनों के बाद ओवरड्यू हो जाता है। रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने जनवरी 2019, फरवरी 2020, अगस्त 2020 और मई 2021 में चार बार लोन रिस्ट्रक्चरिंग स्कीम की घोषणा की थी। इन योजनाओं के तहत 1,16332 करोड़ के 24.51 लाख खातों का रिस्ट्रक्चर किया गया। मई 2021 में 51,467 करोड़ के कर्ज का रिस्ट्रक्चरिंग किया गया था। एमएसएमई क्षेत्र के लगभग 99 फीसदी उद्यम माइक्रो श्रेणी में आते हैं और देश के विभिन्न भागों में स्थित एमएसएमई उद्यम 11 करोड़ लोगों को रोजगार उपलब्ध कराते हैं। इनमें से लगभग 55 फीसदी रोजगार शहरी क्षेत्रों में स्थित उद्यमों द्वारा उपलब्ध कराया जाता है। एमएसएमई द्वारा जीडीपी में 20 प्रतिशत का योगदान रहता है लेकिन यह क्षेत्र वर्तमान में चुनौतियों से जूझ रहा है। इसे अधिक उत्पादक और प्रतिस्पर्धी बनाने के लिए दूरभागी और साहसिक नीतियों की जरूरत है। यदि हम भारत के सबसे बड़े कपड़ा समूह तथा बंगलादेेश के सबसे बड़े समूह पर विचार करें तो तिरूपुर में 70 प्रतिशत से अधिक इकाइयों, 10 से कम कर्मचारियों वाले सूक्ष्म उद्यम हैं। जबकि बंगलादेश के नारायणगंज में केवल 20 प्रतिशत इकाइयों में 10 से कम कर्मचारी हैं। भारत में यह क्षेत्र कई तरह की चुनौतियों का सामना कर रहा है। अगर इस क्षेत्र पर तुरंत ध्यान नहीं दिया गया तो अर्थव्यवस्था पर इसके गहरे परिणाम होंगे और रोजगार के अवसर भी सृजन नहीं होंगे। एमएसएमई के अलावा बैंकों का बढ़ता एमपीए एक बड़ी मुसीबत बना हुआ है। एमएसएमई उद्यमों को शुरू करने के लिए कम पूंजी की जरूरत होती है और यह क्षेत्र भारत की विरासत आर्थिक मॉडल, उत्पादों और सेवाओं के लिए महत्वपूर्ण आपूर्ति शृंखला का एक हिस्सा है। आजकल बहुराष्ट्रीय कम्पनियां छोटे उद्यमों से अर्ध तैयार और सहायक उत्पाद खरीद रही है। इस तरह इस क्षेत्र और बड़ी कम्पनियों के संबंध बढ़े हैं। खास बात यह है कि इनमें श्रम की आवश्यकता कम होती है और इसके लिए उच्च कुशल मजदूर की आवश्यकता कम होती है। इससे उत्पादकों का खर्चा कम होता है। अकुशल नए स्नातकों के लिए रोजगार के बड़े अवसर पैदा किए जा सकते हैं। अब सबसे बड़ा सवाल यह है कि इस क्षेत्र को फिर से अपने पांव पर कैसे खड़ा किया जाए। कोरोना काल में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने आर्थिक पैकेज की पहली किश्त का ऐलान किया था। इसमें सबसे ज्यादा ध्यान एमएसएमई पर दिया गया था। सरकार ने कई राहत के ऐलान किए थे, साथ ही इनकी परिभाषा में भी बदलाव किया था। पहले एमएसएमई की परिभाषा निवेश की गई रकम के आधार पर की जाती थी। अब निवेश की रकम के साथ उनके टर्नओवर के आधार पर उनका वर्गीकरण किया जाता है। अब पांच करोड़ रुपए से कम टर्नओवर वाली इकाई को माइक्रो माना गया है। पहले सर्विस से जुड़ी दस लाख रुपए के निवेश वाली और मैनूफैक्चरिंग से जुड़ी 25 लाख रुपए तक निवेश वाली इकाई को माइक्रो माना जाता था। इसी तरह स्माल यूनिट और मीडियम यूनिट की निवेश सीमा को भी 10 करोड़ और 20 करोड़ तक बढ़ा दिया गया था। दरअसल परिभाषाएं बदलने से स्थितियां नहीं बदल रहीं। इस सैक्टर को भारी-भरकम मदद की जरूरत है। गांव-गांव में सूक्ष्म एवं लघु उद्योग जीवित रहेंगे तो लोगों को रोजगार मिलता रहेगा और देश की अर्थव्यवस्था को भी मजबूती मिलती रहेगी।