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उत्तर पूर्व मे विकास और तरक्की का पर्याय बताए जा रहे एनडीए शासित राज्यों- असम, मणिपुर, अरुणाचल से लेकर कश्मीर में बालटाल तक के इलाके इस समय सदी की भीषणतम बाढ़ से त्राहि-त्राहि कर रहे हैं
सोर्स- नवजीवन
उत्तर पूर्व मे विकास और तरक्की का पर्याय बताए जा रहे एनडीए शासित राज्यों- असम, मणिपुर, अरुणाचल से लेकर कश्मीर में बालटाल तक के इलाके इस समय सदी की भीषणतम बाढ़ से त्राहि-त्राहि कर रहे हैं। पर्यावरण पर चिंता जताने वाली मीटिंगों के सरगना देश, जैसी कि उनकी आदत और निहित स्वार्थ है, आपदा के मानवनिर्मित पक्ष की बजाय इस तरह की तमाम घटनाओं को ग्लोबल वार्मिग से जोड़कर देख और दिखा रहे हैं कि यह तो होना ही था। घरेलू मंच पर भी कई ऐसे विशेषज्ञ हैं जो जबरन रासायनिक खाद पर रोक लगा कर खेती के विनाश और उधार ले कर औद्योगीकरण का घी पीने से भीषण जन विद्रोह के शिकार श्रीलंका की दुर्दशा के बावजूद 'नेचुरल फार्मिग' और शहरीकरण के ध्वजाधारी बने हुए हैं।
इन दिनों कई प्रवासी पहाड़़ी दोस्तों से मिलना हुआ जो अभी-अभी बाहरिया बन कर समर हॉलिडे मनाने परित्यक्त मातृदेश जाकर निराशा से भरे हुए वापिस आए हैं। सबने वहां बढ़ते शहरीकरण, गांवो से भारी पलायन और भूमि की बढ़ती दुर्दशा को सीधे देखा और आज विकास तथा धार्मिक पर्यटन के नाम पर हो रही विनाशकारी पेड़ कटाई और सड़क निर्माण से हो रहे भूस्खलन से विचलित हैं। जब से बेसोचे-समझे किए गए विकास से हो रहे कार्बन उत्सर्जन और पृथ्वी की सतह गरमाने के मुद्दे उभरे हैं, हमारे यहां के कई जिम्मेदार नेता और प्रशासक पुरानी आपदाओं में प्रकटे अपने मौकापरस्त परस्पर दोषारोपण तथां नाकारापन को दरकिनार कर नई कुदरती आपदाओं का दोष सबसे पहले प्रकृति पर डालने लगे। लेकिन यह याद रखने लायक है कि जंगलों की आग, विनाशकारी बारिश, बाढ़ या भूस्खलन कोई अचानक आ जाने वाले पाहुन नहीं होते। कुदरत की तरफ से तो देश के हर भाग में मानसून के आने का समय और भारी बरसात की संभावनाओं की निर्मिति लगभग तय है।
हम सब जानते आए हैं कि तमिलनाडु में हर साल जाड़ों में बंगाल की खाड़़ी से गुजरता मानसून तेज बौछारें लाता है और कई बार चक्रवाती तूफान भी। फिर यह क्रम धीरे-धीरे उत्तर शिफ्ट होता है जहां लगातार निर्माण से हिमालयीन इलाका नाजुक होता जा रहा है। लेकिन पुराने लोगों से बात करने पर साफ दिखाई देता है कि मौसम का मिजाज इधर बदला है, पर हमारी राष्ट्रीय प्राथमिकताएं और मानसून से निबटने का नजरिया अभी उसके अनुरूप खास नहीं बदले गए हैं। अभी भी पर्यावरण की बाबत जानकारी और उसके संरक्षण का काम सिखाना कमोबेश सरकारी शिक्षा संस्थाओं और राजकीय विभागो को ही सुपुर्द किया जा रहा है। लोकल तौर से कई निजी शोधकर्ता और वैज्ञानिक संस्थान अनागत की बाबत डाटा पर आधारित चेतावनियां जारी कर रहे हैं लेकिन सरकारी पहल की बाबत राज्य सरकारें समयानुकूल निर्देश अभी तक दिल्ली से ही जारी होने का इंतजार करती हैं।
लगता है कि निर्देश इधर मौसम वैज्ञानिकों के आकलन से कम कुछ फौरी वजहों से अधिक तय होते हैं। वरना क्या वजह थी कि भर बारिश के मौसम में ही असम जैसे बारिश तथा बाढ़ के सनातन लक्ष्य रहे राज्य में महाराष्ट्र के विधायकों का जत्था पठाया गया। यह जानते हुए भी कि बरसात में चार धाम यात्रा से अमरनाथ यात्रा तक के सारे दुर्गम पहाड़़ी रास्तों पर भूस्खलन होने ही हैं, यात्रियो के बड़़े-बड़़े दल वहां बड़़े उत्साह से न्योते गए?
बाढ़ और बादल फटने की घटनाएं हर साल बढ़ती जा रही हैं। अमरनाथ गुफा के ऐन सामने बादल फटने की घटना और चार धाम यात्रा के दौरान अनेकानेक वाहनों के खाई में गिरने जैसे हादसों को शायद अगले बरस तक धर्मालु लोग भूल चुके होंगे लेकिन याद रखें बालटाल अमरनाथ की बाढ़ की आखिरी मंजिल नहीं थी। यह तो अभी एक पड़़ाव भर है। शिद्दत से बढ़ते विश्व तापमान के कारण दुनिया मे हर कहीं चक्रवाती तूफान, कीचड़ की बाढ़ और भूस्खलन गांवों ही नहीं, नामी-गिरामी नवीनतम सुविधा से लैस शहर भी तबाही झेल रहे हैं। भारत मे भी सितंबर अंत या अक्तूबर तक कुदरती हादसों का यह सिलसिला नहीं रुकने जा रहा।
कश्मीर और उत्तराखंड में धार्मिक पर्यटन प्रोत्साहन पगला गया है। नेता-बिल्डर और भूमाफिया ने पहाड़ों-नदियो का ताबड़तोड़ भट्टा बिठाकर रातोरात निर्ममाण कार्य किए, उसके भयावह नतीजे हम गए बरसो मे देख ही चुके हैं। अब की बार अमरनाथ यात्रा निशाने पर रही। तमाम रपटो से जाहिर है कि भारी बारिश की पूर्व सूचनाओं के बाद भी सारा सुरक्षा तामझाम कमोबेश आतंकियो को ही बड़़ा शत्रु मानकर तैयारी करता रहा। इलाके में जल की निकासी और नदियों, जलधाराओं के कुदरती बहाव के नियमों की अवहेलना कर सूखी नदी के क्षेत्र में यात्री कैंप और लंगर आयोजित किए गए। इसीलिए वहां बाढ़ की मारक क्षमता कहीं अधिक नजर आ रही है। भौंचक्के प्रशासन के देखते-देखते तमाम शिविर, दवाखाने, भोजनालय सब जलमग्न हो गए और अब सेना के जवान आकर हिलोरे ले रहे जल के बीच बचाव राहत कार्य कर रहे हैं।
क्या हम कभी इन विनाशकारी आपदाओं से दीर्घकालिक सबक नहीं सीखेंगे? दक्षिण का उदाहरण लें। अंग्रेजो के समय में पश्चिमी घाट की पेरियार नदी पर बांध बहुत विचार के बाद बना जिसके बाद ही एक 25 किलोमीटर लंबी नहर, द बकिंघम कनाल, खींची गई जो अडयार से कवालम तक को जलसिंचन देती रही। इसका क्षेत्र समय के साथ सिकुड़ कर 10 किलोमीटर मात्र रह गया है। इससे सटा दलदली क्षेत्र पहले से एक चौथाई भी नहीं रहा। नतीजतन हर बाढ़ में इस इलाके में भीषण जलभराव होता है। उत्तराखंड में भी यही हाल है। हमको नहीं भूलना चाहिए कि ग्लोबल वार्मिंग से ग्लेशियर पिघलना तेज हो गया है। जमीन से अधिक गर्मी के उत्सर्जन से बारिश का सामान्य पैटर्न बदल कर कहीं सूखा, तो कहीं अतिवृष्टि का नया चक्र बन रहा है जो सबसे ज्यादा पहाड़़ी इलाकों मे दिख रहा है।
एक तो हिमालय यूं ही चंचल युवा पहाड़ है, तिस पर वह एक भूकंप प्रवण इलाके मे स्थित है। उसके हर उत्पात को इलाकाई लोगों ने समझदारी से ग्रहण कर अपनी जीवन शैली और कर्मकांड सब इस तरह विकसित कर रखे थे जो कुदरती नियमों से कम-से-कम छेड़छाड़ करे। लेकिन प्रशासन में जब मेक इन यूके (उत्तराखंड) की नारेबाजी हो रही हो, तो कोई दुनियादार वफादार बाबू यह रेखांकित करने की बेवकूफी कैसे दिखाए कि जो जमीन बड़़े पैमाने पर पर्यटन उद्योग लाने और भवन निर्माण लायक पुष्ट मानी जा रही है, वह दरअसल सदियों के मलबे से बने हिमालय की भीत पर खड़़ी है। यह भी एक विडंबना ही है कि पिछली बड़़ी बाढ़ मे बह जाने वाली इमारतों में से दो बड़़े पावर प्रोजेक्ट की इमारतें थीं जो खुद जलमग्न हो गईं
जल की अपनी गहरी स्मृति होती है। अपनी पुरानी धारा को नदी छोड़ भी गई हो, उसे भुलाती नहीं, पलट कर कभी भी वापिस उधर आ जाती है। बिहार से लेकर उत्तराखंड तक में हम नदियों की सूखी धारा पर निर्माण करने वालों को हठात् मिले जलीय दंड के दर्शन कर चुके हैं। इसीलिए अंग्रेज इंजीनियरों ने जिनके बनाए कई बांध और भवन आज तलक काम में आ रहे हैं, कोई भी बस्ती, नए नगर या नहर बनाते हुए पूरा खयाल रखा था कि पुराने जलमार्गों को न छेड़़ा जाए। उनके लगाए फ्लड लाइन मार्कर गढ़वाल की विनाशक बाढ़ उतरने के बाद भी मूक चेतावनी दे रहे हैं कि इधर न आना। सो जल के स्थान पर स्थल बना दिया जाए, तो जो घटेगा, वह अघटित घटना पटीयसी माया नही। वरुण को अपने यहां यात्रियों का मार्गदर्शक ही नहीं, न्याय का भी देवता कहा जाता है। लोभी, फौरी तौर से सोचने वाले हुक्मरान जब उसकी नदियों के जलमार्गों और जल को समेट कर धार देने वाले सरोवरों, तालाबों के लिए बनाई गई प्राकृतिक न्याय व्यवस्था का अनादर करते हैं, तो यही होता है जो अमरनाथ से गुवाहाटी तक में दिख रहा है।
Rani Sahu
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