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राज्य में अनुसूचित जाति,जनजाति की आबादी लगभग सैंतीस प्रतिशत है
भोपाल. राजनीति आरक्षित वर्ग के इर्द-गिर्द सीमित हो जाने के बाद क्या ऊंची जातियां (Uper Caste) राजनीतिक तौर अप्रासंगिक हो जाएंगी? मध्यप्रदेश में सरकारी दावे में अन्य पिछड़ा वर्ग की आबादी पचपन प्रतिशत बताए जाने के बाद ऊंची जातियों की संख्या दहाई के अंक को भी नहीं छू पाती है. इस लिहाज से आने वाले सालों में महत्वपूर्ण राजनीतिक पदों पर उनकी दावेदारी भी कमजोर पड़ सकती है. राज्य में अनुसूचित जाति,जनजाति की आबादी लगभग सैंतीस प्रतिशत है. जबकि अल्पसंख्यक आठ प्रतिशत से अधिक हैं.
1931 की जनगणना के आंकड़ों पर है विवाद
ओबीसी को सत्ताइस प्रतिशत आरक्षण को हाईकोर्ट में चुनौती दी गई है. याचिका पर सुनवाई में शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व वाली सरकार ने प्रदेश में ओबीसी की आबादी 51 प्रतिशत होने का दावा किया है. जबकि राज्य नगरीय प्रशासन एवं विकास मंत्री भूपेन्द्र सिंह पचपन प्रतिशत ओबीसी आबादी प्रदेश में होने का दावा कर रहे हैं. जबकि सरकार का पिछड़ा वर्ग कल्याण विभाग 50.25 प्रतिशत ओबीसी आबादी मानता है. यद्यपि ओबीसी की आबादी बताने वाला कोई अधिकृत आंकड़े उपलब्ध नहीं है. मध्यप्रदेश में पिछड़े वर्ग की स्थिति के अध्ययन के लिए अस्सी के दशक में बनाया गया रामजी महाजन आयोग भी आबादी के अधिकृत आंकड़े जुटाने में असफल रहा था. आयोग ने अन्य पिछड़ा वर्ग की आबादी होने का सिर्फ अनुमान लगाया था. इसके लिए हिंदुओं की कुल जनसंख्या में से अनुसूचित जाति और जनजाति तथा समुदायों की जनसंख्या को घटाकर निकालने का फार्मूला अपनाया. संभवत: इसी आधार पर सरकार ने प्रदेश में ओबीसी की आबादी 51 प्रतिशत से अधिक होने का दावा किया है
कई जातियों ने खुद को ओबीसी से रखा अपने को दूर
देश में जातियों की जनगणना नहीं की जाती है. बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने जातिगत जनगणना की मांग प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के सामने रखी है. इस मांग का आधार यह अनुमान है कि देश में अन्य पिछड़ा वर्ग की आबादी का प्रतिशत पचास से अधिक है. यह आंकड़ा देश की राजनीति की दिशा बदल सकता है. लेकिन,समस्या भी है. 1931 की जनगणना रिपोर्ट भी प्रामणिक नहीं मानी जा रही. 1931 की जनगणना रिपोर्ट में कुछ जातियों की आबादी का प्रतिशत घटाया हुआ बताया गया है. मध्यप्रदेश के रामजी महाजन आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कारण का उल्लेख करते हुए लिखा कि -अहीर, यादव, क्षत्रिय, काछी-कुशवाह, कुर्मी, क्षत्रिय लोधी राजपूत, मीना, रावत तथा सौंधिया गडरिया जाति के लोगों ने अपने आपको क्षत्रिय राजपूत होना बताया. आयोग का मत है कि इसी कारण 1921 की जनगणना की तुलना 1931 की जनगणना में इन जातियों की संख्या में कमी दिखाई दी होगी. वैसे मध्यप्रदेश में अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल कई जाति के लोग अभी भी अपने आपको क्षत्रिय मानते हैं. लेकिन,राजनीतिक लाभ अन्य पिछड़ा वर्ग के ले रहे हैं.
ओबीसी की राजनीति में पीछे रह जाएगी आदिवासी राजनीति?
मध्यप्रदेश में लगभग 21 प्रतिशत आबादी आदिवासियों की है. आदिवासियों के लिए विधानसभा में कुल 47 सीटें आरक्षित हैं. इस कारण ही राज्य में आदिवासी नेतृत्व की मांग यदाकदा उठती रहती है. नेतृत्व की यह मांग सिर्फ कांग्रेस में सुनाई देती है. भारतीय जनता पार्टी में इस मसले पर ज्यादा चर्चा नहीं होती. भाजपा को ऊंची जातियों से जुड़ी पार्टी माना जाता रहा है. पिछले डेढ़ दशक में राज्य भाजपा की राजनीति के केंद्र में ओबीसी नेता आ गए हैं. पार्टी के तीन मुख्यमंत्री उमा भारती, बाबूलाल गौर और शिवराज सिंह चौहान अन्य पिछड़ा वर्ग से हैं. पार्टी का नेतृत्व जरूर ऊंची जातियों के हाथ में रहा है. नरेन्द्र सिंह तोमर, प्रभात झा, नंदकुमार चौहान और राकेश सिंह ने पिछले डेढ़ दशक में पार्टी का नेतृत्व किया. वर्तमान में विष्णु दत्त शर्मा पार्टी के अध्यक्ष हैं. वर्ष 2003 में दिग्विजय सिंह के दलित एजेंडे पर उमा भारती का चेहरा भारी पड़ा था. पिछड़ा वर्ग ने एक जुट होकर भाजपा के पक्ष में मतदान किया था.
ओबीसी वोटों के विभाजन पर निर्भर नतीजे
राज्य में अन्य पिछड़ा वर्ग की कुल आबादी को लेकर विवाद हो सकता है. सवर्ण समाज पार्टी के अध्यक्ष हीरालाल त्रिवेदी कहते हैं कि ऊंची जाति की आबादी दस प्रतिशत के आसपास ही होगी. त्रिवेदी कहते हैं कि हमारी लड़ाई कुल पचास प्रतिशत आरक्षण की सीमा को लेकर है. राज्य में अनुसूचित जाति वर्ग की कुल आबादी लगभग सत्रह प्रतिशत है. पैंतीस विधानसभा की सीटें इस वर्ग के लिए आरक्षित हैं. कांग्रेस की राजनीति के केन्द्र में अनुसूचित जाति के अलावा आदिवासी और अल्पसंख्यक वर्ग भी होता है. राज्य में अल्पसंख्यकों की कुल आबादी आठ प्रतिशत से अधिक है. कांग्रेस की रणनीति इन पैंतालीस प्रतिशत वोटों को बांधकर रखने की होती है। अन्य पिछड़ा वर्ग के वोटों के लिए उसकी रणनीति क्षेत्र के लिहाज से बदल जाती है. यद्यपि कांग्रेस को सबसे ज्यादा लाभ अन्य पिछड़ा वर्ग से ही हुआ है. पिछड़ा वर्ग के लिए महाजन आयोग का गठन अर्जुन सिंह के मुख्यमंत्रित्व काल में हुआ था. दिग्विजय सिंह ने सरकारी नौकरियों में चौदह प्रतिशत आरक्षण दिया. इसका लाभ 1998 के विधानसभा चुनाव में मिला था.
नतीजों में दिखाई देता है ऊंची जातियों का असर
राज्य की राजनीति में ऊंची जाति के नेताओं का दबदबा है. कांग्रेस आदिवासी, अनुसूचित जाति वर्ग और अन्य पिछड़ा वर्ग को नेतृत्व देने का प्रयोग समय-समय पर करती रहती है. उत्तर प्रदेश की तरह मध्यप्रदेश में अन्य पिछड़ा वर्ग की कोई भी जाति किसी दल विशेष के पक्ष में संगठित दिखाई नहीं देती है. यादव वोटर को अपने पक्ष में करने के समाजवादी पार्टी के प्रयास सफल नहीं रहे हैं. राज्य में पिछड़ा वर्ग की कुल 91जाति, उप जाति हैं. इन जातियों के बीच भी एका देखने को नहीं मिलता. लोधी-यादव का गठजोड़ क्षेत्र और नेतृत्व के हिसाब बदलता रहता है. यादव-किरार साथ नहीं आ पाते. यादवों के अलावा लोधी भी वोटों की राजनीति को प्रभावित करते हैं. संख्या के कम होने के बाद भी ऊंची जाति चुनाव परिणामों में बड़ा उलटफेर करने की ताकत रखती हैं. यही कारण है कि दोनों राजनीतिक दलों में महत्वपूर्ण पदों पर ऊंची जाति के लोग हैं. दोनों प्रमुख राजनीतिक दल के बीच पिछड़ों को सत्ताइस प्रतिशत आरक्षण देने का श्रेय लेने की होड़ मची हुई है। ऐसा माना जा रहा है कि इस सियासत में भारतीय जनता पार्टी के ऊंची जाति के उन नेताओं को झटका लगा है जो मुख्यमंत्री पद की दौड़ में शामिल हैं.
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
दिनेश गुप्ता
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. सामाजिक, राजनीतिक और समसामयिक मुद्दों पर लिखते रहते हैं. देश के तमाम बड़े संस्थानों के साथ आपका जुड़ाव रहा है.
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