सम्पादकीय

आंदोलन और अड़चन

Gulabi
26 Dec 2020 10:46 AM GMT
आंदोलन और अड़चन
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कृषि कानूनों के विरोध में किसानों के आंदोलन को एक महीना हो गया।

जनता से रिश्ता वेबडेस्क। कृषि कानूनों के विरोध में किसानों के आंदोलन को एक महीना हो गया। इस बीच सरकार ने उनसे कई बार बातचीत करने की कोशिश की, पर कोई नतीजा नहीं निकल सका। कृषि मंत्री ने धरने पर बैठे किसानों को दो लंबे पत्र लिख कर कानूनों को लेकर फैले भ्रमों का निवारण करने का प्रयास किया। मगर किसानों ने उनके प्रस्तावों को नकार दिया। इस बीच गृहमंत्री ने भी उन्हें समझाने की कोशिश की, मगर कामयाब नहीं हो सके। प्रधानमंत्री भी गुजरात के कच्छ और मध्यप्रदेश के किसानों से अलग-अलग बात की। फिर किसान निधि का हस्तांतरण करने के बाद सात राज्यों के चुनिंदा किसानों से वीडियो के जरिए बात की।



अंत में अपने संबोधन में उन्होंने समझाने का प्रयास किया किया कि नए कानून उनके लिए लाभकारी हैं, जमीन पर उनका मालिकाना हक इससे प्रभावित नहीं होगा, उन्हें अपनी फसल खुले बाजार में बेचने में सुविधा होगी, कमाई बढ़ेगी आदि। मगर किसान नेताओं पर प्रधानमंत्री की बातों का कोई सकारात्मक असर नहीं दिखा। उनकी मांग जस की तस बनी हुई है कि इन कानूनों को वापस लिया जाए और न्यूनतम समर्थन मूल्य को लेकर कानून बनाया जाए। हालांकि प्रधानमंत्री ने न्यूनतम समर्थन मूल्य को लेकर भी आश्वस्त किया, मगर उन्हें इस पर भरोसा नहीं बन पा रहा है।

दरअसल, इस मसले पर दोनों तरफ से अपनी-अपनी लक्ष्मण रेखाएं खींच ली गई हैं, जिनके पार वे जाना नहीं चाहते। किसानों की शर्त है कि सरकार पहले कानून समाप्त करने की घोषणा करे, तभी आगे की बातचीत का सिलसिला शुरू होगा। सरकार कह रही है कि किसान इस जिद को छोड़ कर बातचीत करना चाहें, तो वह किसी भी समय बात करने को तैयार है। असल अड़चन यही है। सरकार कह रही है कि किसानों को कुछ राजनीतिक दलों ने उकसाया है और वे अपने राजनीतिक स्वार्थ साधने के लिए यह आंदोलन कर रहे हैं। किसानों का कहना है कि उनका किसी राजनीतिक दल से संबंध नहीं है। सरकार उनके आंदोलन को भटकाने की कोशिश कर रही है।

सरकार अगर सचमुच चाहती है कि कृषि कानूनों को लेकर किसानों में फैले भ्रम का निवारण हो, तो उसे इस आंदोलन को राजनीतिक रंग देने के बजाय खुले मन से बातचीत करनी चाहिए। शुक्रवार को प्रधानमंत्री ने देश भर के किसानों को संबोधित किया, मगर उनका स्वर भी इस आंदोलन को लेकर राजनीतिक था। सरकार को इस हकीकत से मुंह नहीं चुराना चाहिए कि इस आंदोलन को देश के विभिन्न हिस्सों से किसानों का समर्थन हासिल है। अब भी जगह-जगह से किसान इसमें हिस्सा लेने के लिए चले आ रहे हैं। उनके समर्थन में समाज के दूसरे वर्गों से जुड़े लोग भी उतर आए हैं।

लोकतंत्र का तकाजा है कि जब किसी विषय पर बड़े जनसमुदाय को एतराज हो, तो सरकार को उस पर राजनीतिक नफे-नुकसान से परे होकर विचार करना चाहिए। आंदोलन करने वालों से भी यही अपेक्षा रहती है कि वे भी कुछ कदम आगे बढ़ कर बीच का कोई रास्ता तलाशने में सहयोग करें। वे भी खुले मन से बातचीत के लिए आएं। फिलहाल ऐसी सूरत नजर नहीं आ रही। शुक्रवार को एक तरह से पूरी केंद्र सरकार ने एकजुट होकर अपने पक्ष में दलील पेश की। देश भर में किसानों को जुटा कर प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और विदेश मंत्री का बयान सुनवाया गया। मगर फिर भी अंदोलन पर उतरे किसानों पर कोई सकारात्मक असर नजर नहीं आ रहा, तो इस मसले पर फिर से गंभीरता से सोचने की जरूरत है, क्योंकि यह आंदोलन लगातार बढ़ रहा है।

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