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Vijay Garg: हाल ही में अमरीका में गर्भ में पल रहे 140 भ्रूणों का अध्ययन किया गया था। इसके निष्कर्षों के रूप में बताया गया था कि बच्चे के मस्तिष्क के विकास के साथ-साथ बच्चा बाहरी दुनिया को समझने की कोशिश करने लगता है। यह सब बच्चे के मस्तिष्क में विकसित हो रहे न्यूरोन्स के कारण होता है। गर्भ में पल रहा बच्चा जब जन्म लेता है, तो वह बाहरी दुनिया को पहचानने लगता है। उसके सोचने, समझने और प्रतिक्रिया देने की क्षमता भी विकसित होती जाती है। इसलिए कह सकते हैं कि मां का गर्भ बच्चे की पहली पाठशाला होता है।
ऐसे शोध भी हो चुके हैं जिनमें बताया गया कि मां के मूड का बच्चे पर बहुत प्रभाव पड़ता है। मां उदास होती है, तो गर्भ का बच्चा भी उदास हो जाता है। मां रोती है, तो बच्चा भी सिसकता है। मां हंसती है, तो बच्चा भी खिलखिलाता है। यही नहीं, गर्भ में 5 महीने के बाद, बच्चा अपने घर वालों की आवाज पहचानने लगता है। प्रतिक्रिया देने लगता है। यहां तक कि अगर माता-पिता अपने गर्भस्थ शिशु से बातें करें, प्यार जताएं, तो वह कभी पांव चलाकर ,कभी हाथ चलाकर उसका उत्तर देता है और अपनी खुशी जाहिर करता है। बहुत पहले एक वीडियो में देखा गया था कि एक पिता गर्भ में पल रही अपनी बच्ची से लगातार बातें करता था। जब उस बच्ची का जन्म हुआ, तो पिता उसे देखने गया। वह बच्ची से उसी तरह से बातें करने लगा। बच्ची पिता की आवाज सुनकर गर्दन उठाकर इतनी जोर से मुस्कुराई कि वहां उपस्थित डाक्टर और नर्सें हैरान रह गए। क्योंकि इतने छोटे बच्चे अक्सर अपनी गर्दन नहीं उठा पाते। उन्हें सहारा देना पड़ता है।
यदि गर्भ के बच्चे को लगातार यह बताया जाए कि उसके आने से माता-पिता कितने खुश हैं, तो बच्चा इसे महसूस करता है और मानसिक, शारीरिक रूप से स्वस्थ रहता है। यह मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य जीवन भर रहता है। ये सब बातें जब तमाम शोधों के आधार पर बता रही हूं, तो यह बताना और याद दिलाना जरूरी है कि हमारी पुरातन पीढ़ी को इनमें से अधिकांश बातें मालूम थीं। वे कहती थीं कि मां का जो चीजें खाने का मन करे, उसे वे जरूर खिलानी चाहिएं, क्योंकि बच्चे के स्वास्थ्य के लिए ये चीजें जरूरी हैं। मां को अगर भोजन सुस्वादु लगता है, तो यह भावना बच्चे तक भी पहुंचती है। यही नहीं इन दिनों स्टैम सैल रिसर्च की बातें भी बहुत जोर-शोर से होती हैं। इन पर सारी दुनिया में शोध चल रहे हैं। शोध बताते हैं कि बच्चे के जन्म के वक्त जो गर्भनाल होती है, उसके खून को अगर प्रिजर्व कर लिया जाए, तो कहा जाता है कि आगे चलकर अगर बच्चे को कोई गंभीर बीमारी हो तो उसे ठीक किया जा सकता है।
अपने यहां और बहुत से देशों में इस खून को प्रिजर्व करने के लिए अनेक अस्पतालों में स्टैम सैल बैंकिंग का प्रावधान है। बड़ी संख्या में माता-पिता बच्चे के भविष्य को ध्यान में रखकर, इस खून को बैंक में जमा करा रहे हैं। भारत में भी यह चलन बढ़ रहा है। हां, इसकी फीस देनी पड़ती है। इसी बात को देखते हुए याद आता है कि गांव में दादी बच्चे के जन्म के बाद उसकी नाल के एक हिस्से को सुखाकर रख लेती थी। मान लीजिए कि बच्चे की आंख दुखी या उसका पेट खराब हुआ, तो इसी नाल को घिसकर आंख में डाला जाता था या उसे चटाया जाता था और आश्चर्यजनक रूप से वह ठीक हो जाता था। कोरिया में तो इसे इतना पवित्र माना जाता है कि लोग फ्रेम करवा कर अपने-अपने घरों में टांग देते हैं।
कोई पूछ सकता है कि आखिर हमारी नानी-दादियों को ये सब बातें कैसे पता थीं, जिन्हें विज्ञान आज अरबों-खरबों रुपए खर्च करके साबित कर रहा है। तो यही कहा जा सकता है कि हजारों सालों के अनुभव की प्रयोगशाला और ज्ञान को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंचाने की मौखिक परम्परा से यह सब सम्भव हुआ होगा। जाहिर है कि इन अनुभवों का भी वैज्ञानिक आधार ही था। जिसे अनुभव से सिद्ध किया गया था। आज की भाषा में इसे ही तो क्लीनिकल ट्रायल कहते हैं। इस संदर्भ में अभिमन्यु की कहानी का उल्लेख भी जरूरी है जो घर-घर में कही जाती है। अभिमन्यु जब गर्भ में थे, तो उनके पिता अर्जुन उनकी मां को युद्ध में चक्रव्यूह में प्रवेश कैसे किया जाता था, इस बारे में बता रहे थे।
लेकिन जब तक वह चक्रव्यूह से बाहर निकलने की बात बताते , उनकी पत्नी को नींद आ गई। गर्भ में पल रहे शिशु अभिमन्यु ने यह सब सुना था, लेकिन मां के सोने के बाद शायद वह भी सो गए और नहीं जान सके कि चक्रव्यूह से बाहर कैसे निकलें। इसीलिए कौरवों से युद्ध करते वक्त मारे गए। यानी कि गर्भ में बच्चा सब कुछ जान सकता है , यह हमारे यहां पीढिय़ों से सर्वमान्य है। वैज्ञानिक तो आज इस बात का पता लगा रहे हैं।
विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल शैक्षिक स्तंभकार स्ट्रीट कौर चंद एमएचआर मलोट पंजाब
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Gulabi Jagat
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