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- मातृभाषा बनाम शिक्षण
अरिमर्दन कुमार त्रिपाठी: यह शिक्षा-नीति इसके लिए अनेक उपाय सुझाती है। मसलन, स्थानीय भाषा में पाठ्य-सामग्री का निर्माण, बहुभाषी शिक्षण की व्यवस्था, केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा स्थानीय भाषाओं के जानकार शिक्षकों की व्यवस्था करना, इस क्षेत्र में प्रौद्योगिकी का भरपूर उपयोग करना आदि। इसके साथ इस बात को भी रेखांकित किया गया है कि विज्ञान और गणित की पाठ्य-सामग्री यथासंभव द्विभाषी बनाई जाएगी, जिसमें एक भाषा अंग्रेजी भी होगी। निश्चित रूप से 'नई शिक्षा नीति-2020' भारतीय जनमानस से औपनिवेशिक पहचान को निकाल कर उसके स्थानीयकरण की दिशा में एक मजबूत सैद्धांतिक आधार तैयार करती है।
अब इस शिक्षा-नीति की सिफारिशों पर काम शुरू हो चुका है और नई 'राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा' बनाने की पहल दिखने लगी है। मगर संशय बना हुआ है कि क्या सही मायनों में इसे भाषायी अनुशंसाओं को धरातल पर उतारा जा सकता है? क्योंकि देश में भाषाओं को लेकर कोई तार्किक नीति नहीं रही है और जिस नीति से अब तक का कामकाज हुआ है, उसमें भाषिक अस्मिताओं के तुष्टीकरण का प्रभाव सबसे अधिक रहा है।
वैसे भी मातृभाषायी शिक्षा की वकालत कोठारी आयोग ने आज से पचास साल पहले भी की थी और इस बात को 'राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा-2005' में भी दोहराया गया था। जाहिर है कि इस दिशा में ऐसा कुछ निर्णायक प्रयास अब तक नहीं हुआ था, अन्यथा इन्हीं बातों को पचास वर्ष बाद की शिक्षा-नीति में फिर से दर्ज करने की आवश्यकता नहीं होती।
कोई नीति बदलते समय की चुनौतियों को पहचानने और उनका सामना करने के साधन के रूप में सामने आनी चाहिए, न कि पुरानी बातों के लगातार पुनरावृत्ति के लिए। बहरहाल, अब चूंकि सरकार ने इस दिशा में काम करना शुरू कर दिया है, तो उम्मीद की जानी चाहिए कि शायद धरातल पर कुछ बदलाव दिखे।
भारत एक सघन बहुभाषिकता वाला देश है, जहां 2011 की जनगणना प्रक्रिया में कुल मातृभाषाओं की संख्या 19569 दर्ज की गई थी। भाषावैज्ञानिक आधारों पर इनके कोटिकरण के बाद इनकी संख्या 1369 रखी गई। आगे 1474 भाषाओं को 'अन्य' भाषाओं की कोटि में रखा गया। जबकि कुल दस हजार या इससे अधिक मातृभाषी जनसंख्या के आधार 121 मातृभाषाओं की संख्या दर्ज की गई है।
इन भाषाओं को अनुसूचित और गैर-अनुसूचित भाषाओं की कोटि में रखा गया है। अनुसूचित वही बाईस भाषाएं हैं, जिन्हें संविधान की आठवीं अनुसूची में स्थान दिया गया है और अनेक भाषायी अस्मिताएं अपनी भाषाओं को इस सूची में नाम जुड़वाने के लिए संघर्षरत हैं।
कहने का मतलब यह कि मातृभाषायी शिक्षण के विचार को धरातल पर उतारने के क्रम में इन सभी पक्षों को नकारा नहीं जा सकता। यह इसलिए भी चुनौती है कि देश में सिक्किम जैसे अपेक्षाकृत छोटे राज्य में अंग्रेजी के अलावा ग्यारह भाषाओं को राजभाषा का दर्जा दिया गया है।
वहां अगर स्वाभाविक शहरोन्मुखी विस्थापन के कारण राज्य के राजधानी क्षेत्र गंगटोक के किसी विद्यालय में सिर्फ इन ग्यारह भाषाओं के छात्र भी उपस्थित हों, तो यह संभव नहीं कि एक ही गणित या विज्ञान के शिक्षक को ग्यारह भाषाओं का इतना ज्ञान हो कि वह अपने विषय को उन भाषाओं के माध्यम से छात्रों तक पहुंचा सके।
अगर ग्याह भाषाओं का ज्ञान हो भी जाए, तो एक ही बात को ग्यारह बार अलग-अलग भाषाओं में बताने में जो समय खर्च होगा, वह उस विषय के मूल ज्ञान के संप्रेषण के प्रवाह को रोकेगा और अतिरिक्त समय की जरूरत पड़ेगी।
दूसरी तरफ देश में अलग-अलग परिस्थितियों में पढ़ा सकने योग्य बहुभाषी शिक्षक तैयार करने के लिए वर्तमान ढांचा पर्याप्त नहीं है और अगर मातृभाषायी शिक्षण को वाकई धरातल पर उतारना है, तो कम से कम प्राथमिक शिक्षा के वर्तमान ढांचे में आमूल-चूल परिवर्तन की आवश्यकता होगी, क्योंकि वर्तमान शिक्षक प्रशिक्षण की प्रक्रियाओं में इन सभी बातों की प्राय: अवहेलना की गई है।
अंग्रेजी सिर्फ सत्ता-प्रतिष्ठान, ज्ञान-विज्ञान और शिक्षा के माध्यम में नहीं, बल्कि भूमंडलीकरण के बाद से तो देश में यह मध्यमवर्गीय समाज के सपनों में रच-बस चुकी है। यही कारण है कि देश के सुदूर इलाकों में भी अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय तेजी से अपना पांव पसार चुके हैं, जो न्यूनतम और द्वितीयक संसाधनों के साथ भी सिर्फ अंग्रेजी माध्यम के नाम पर अपना व्यापार कर रहे हैं।
जाहिर है, वे ऐसा सिर्फ इसलिए कर पा रहे हैं कि अभिभावकों को अपने बच्चों द्वारा अंग्रेजी में बात करते हुए सुन लेने मात्र से ही उनके उज्ज्वल भविष्य का भरोसा जग रहा है। ऐसे में नई शिक्षा-नीति इन विद्यालयों पर कितना बाध्यकारी हो सकेगी ताकि ये अंग्रेजी में नहीं, बल्कि स्थानीय भाषाओं पर भरोसा करें। इस पर नए सिरे से विचार करना होगा।
देश में शिक्षा समवर्ती सूची का विषय है, इसलिए राज्य सरकारें इस शिक्षा-नीति के अनुपालन की दिशा में भी अपनी प्राथमिकता राजनीतिक लाभ-हानि के आधार पर तय कर सकतीं हैं। वैसे भी दिल्ली और तेलंगाना जैसी मौजूदा राज्य सरकारें अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा को लगातार अपनी उपलब्धि बता रही हैं।
देश में भाषाओं के राजनीतिक आधार का पुराना इतिहास रहा है, इसलिए इस प्रकरण में भाषाई अस्मिता का कोई मुखरित लोकतांत्रिक रूप न उभरे, इसकी संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता।
यही कारण है कि देश के शिक्षामंत्री को इस बीच कई मंचों से यह घोषणा करनी पड़ी है कि देश की सभी भाषाएं राष्ट्रीय भाषाएं हैं। दूसरी तरफ, देश में निजी विद्यालयों का बढ़ता बाजार, उनको मिले सरकारी और राजनीतिक संरक्षण ने जो परिवेश तैयार किया है, उसमें भाषा और संस्कृति से अधिक चिंता पूंजी की होती है, इसलिए इन सबके बावजूद मातृभाषायी शिक्षण की स्थिति भी कहीं वही न बनकर रह जाए, जो देश में राजभाषा के रूप में हिंदी का है।
निश्चित रूप से नई शिक्षा नीति इस ओर नए सिरे से सजग करती है, लेकिन इसका अनुपालन न सिर्फ सरकारों की दृढ़ इच्छा और दूरदर्शिता पर निर्भर करेगा, बल्कि यह पूरे समाज के लिए चुनौती है, अन्यथा कोई नीति कागजों में कितनी भी अच्छी हो, जब तक उसे यथावत धरातल पर न उतारा जाए, तब तक उस नीति के मायने महज पाठ और पुनर्पाठ तक सीमित रहेंगे।