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बेशक देश बहुमत से चलता है, लेकिन संसद सहमति से चलती है। उसके बिना संसद औपचारिकता बनकर रह जाती है।
संसद का मानसून सत्र आज से शुरू हो रहा है, जो आगामी 12 अगस्त तक चलेगा। मानसून सत्र में केंद्र सरकार 24 विधेयक पेश करने वाली है। इसमें वन संरक्षण संशोधन विधेयक, ऊर्जा संरक्षण संशोधन विधेयक, परिवार अदालत संशोधन विधेयक, राष्ट्रीय रेल परिवहन संस्थान को गतिशक्ति विश्वविद्यालय में परिवर्तित करने संबंधी विधेयक शामिल हैं। इसके अलावा, सरकार चार ऐसे विधेयक भी पेश करेगी, जिस पर संसद की स्थायी समितियों ने विचार किया है। जबकि विपक्ष की योजना है कि सरकार को जवाबदेह बनाया जाए और मुद्दों पर बहस हो।
पिछले कुछ सत्रों से देखा जा रहा है कि विपक्ष के हंगामे के कारण सरकार बिना बहस के विधेयकों को पारित करवा लेती है। संसद की कार्यवाही स्थगित होने से सरकार को ही फायदा मिलता है। इस मानसून सत्र में कई ऐसे मुद्दे हैं, जिन्हें विपक्ष संसद में उठाना चाहेगा, जिनमें खाद्य पदार्थों की महंगाई, ईंधन की कीमतों में वृद्धि, अग्निपथ योजना, चीन के साथ गतिरोध का मुद्दा, पहली बार देश में डिजिटल मीडिया को विनियमित करने के लिए लाए जाने वाले नए कानून आदि शामिल होंगे। पिछले बजट सत्र के दौरान लोकसभा में 129 फीसदी और राज्यसभा में 98 फीसदी कामकाज हुआ था।
लेकिन मानसून सत्र से ठीक पहले देश के प्रधान न्यायाधीश ने चिंता जताई है कि विपक्ष की जगह सिमट रही है। यह किसी भी संसदीय लोकतंत्र के लिए अच्छी खबर नहीं है। पिछले दिनों जो घटनाएं हुई हैं, उनसे दो चीजें पता चलती हैं। वैसे तो भाजपा का रवैया पहले से ही आक्रामक रहा है, लेकिन हालिया घटनाओं से स्पष्ट है कि वह विपक्ष के प्रति और आक्रामक हो गई है। जबकि विपक्ष और भी कमजोर होता जा रहा है तथा उसकी जगह लगातार सिकुड़ती जा रही है। इसलिए लगता है कि संसद का यह सत्र हंगामेदार रहने वाला है। इसी सत्र में राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के चुनाव भी होंगे, जिनमें भाजपा हावी रहेगी।
संसद सत्र के पहले दिन ही राष्ट्रपति चुनाव के लिए मतदान होगा और यह लगभग पक्का है कि द्रौपदी मुर्मू अच्छे मतों के साथ राष्ट्रपति चुनी जाएंगी। एक आदिवासी महिला का देश के राष्ट्रपति पद के लिए चुना जाना बहुत बड़ी उपलब्धि है। हमें यह नहीं मालूम कि इससे आदिवासियों की जिंदगी में कितना फर्क आएगा, लेकिन उनके मन में यह भावना पैदा हो सकती है कि मैं भी देश के सबसे शीर्ष पद को हासिल कर सकता या कर सकती हूं। भाजपा ने सोची-समझी रणनीति के तहत राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार चुना। हिंदी भाषी प्रदेश और पश्चिमी भारत भाजपा के गढ़ हैं। हिंदी पट्टी और पश्चिमी भारत में जो सात-आठ राज्य आते हैं, वहां आदिवासियों की बड़ी संख्या है। भाजपा को लगता है कि पिछले दस वर्षों में उसके खिलाफ जो थोड़े-बहुत सत्ता-विरोधी रुझान पैदा हुए होंगे, उसकी भरपाई आदिवासी मतदाताओं को अपने पक्ष में लाने से हो जाएगी। दूसरी बात यह है कि द्रौपदी मुर्मू संथाल हैं और भाजपा की नजर पूर्वी राज्यों-ओडिशा, पश्चिम बंगाल और झारखंड पर है, जहां संथालों की बड़ी आबादी रहती है। इसलिए भाजपा चाहती है कि संथाल मतदाता विपक्ष के खेमे से निकल कर भाजपा के पाले में आएं।
उपराष्ट्रपति चुनाव के लिए मतदान छह को होगा, और उसमें अलग ही समीकरण काम कर रहा है। राजग ने पश्चिम बंगाल के राज्यपाल जगदीप धनखड़ को उपराष्ट्रपति उम्मीदवार घोषित किया है, जो जाट समुदाय से आते हैं और मूलतः राजस्थान से ताल्लुक रखते हैं। पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और राजस्थान में जाटों की बड़ी आबादी रहती है। किसान आंदोलन के दौरान जाट समुदाय के बहुत से लोग भाजपा से विमुख हो गए थे, जिन्हें फिर से भाजपा अपने खेमे में लाने की कोशिश कर रही है। भाजपा की नजर अब राजस्थान पर है। पिछले दिनों की घटनाओं के आधार पर भाजपा को लगता है कि वह फिर से राजस्थान में जीत सकती है, क्योंकि हिंदू मतदाताओं का ध्रुवीकरण हो सकता है। धनखड़ का जाट और राजस्थानी होना उपराष्ट्रपति पद का प्रत्याशी बनाने का प्रमुख कारण हो सकता है। इसके अलावा तीसरी बात यह है कि जगदीप धनखड़ ममता बनर्जी के प्रति काफी आक्रामक राज्यपाल के तौर पर नजर आए थे। भाजपा को लग रहा होगा कि अगर वह राज्यसभा के सभापति बनते हैं, तो विपक्ष को भी आड़े हाथों ले सकते हैं। इन्हीं वजहों से भाजपा ने उन्हें उपराष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के तौर पर चुना है।
लेकिन जिस तरह से भाजपा ने राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति पद के लिए अपना उम्मीदवार चुनकर एक राजनीतिक संदेश दिया है कि वह क्या करना चाहती है, विपक्ष वैसा नहीं कर पाया। विपक्ष अपने प्रत्याशी चयन के जरिये न तो कोई खास राजनीतिक संदेश दे पाया और न ही विपक्षी दल राष्ट्रपति चुनाव को लेकर एकजुट रह पाया। जैसे कि ममता बनर्जी ने यशवंत सिन्हा के नाम का समर्थन किया, लेकिन पश्चिम बंगाल में उन्हें बुलाया ही नहीं। दूसरी ओर,
उद्धव ठाकरे और हेमंत सोरेन ने द्रौपदी मुर्मू के प्रति अपने समर्थन का एलान कर दिया। इसके अलावा, इस बीच दो और घटनाएं हुई हैं। एक तो यह एडवाइजरी जारी की गई है कि संसद सत्र के दौरान संसद परिसर में कोई धरना नहीं होगा और दूसरा, सत्र से ठीक पहले संसद सचिवालय द्वारा असंसदीय शब्दों की एक लंबी-चौड़ी सूची जारी की गई है। जब भाजपा लगातार चुनाव दर चुनाव जीतती जा रही है, विपक्ष को ध्वस्त करती जा रही है, और देश
भर में उसका विस्तार होता जा रहा है, ऐसे में, असंसदीय शब्दों की सूची जारी करने का मतलब समझ में नहीं आता। इससे जनता के बीच गलत संदेश जा सकता है। सवाल उठता है कि भाजपा इतनी रक्षात्मक क्यों हो रही है। लोकतंत्र में छोटी-छोटी बातें बर्दाश्त करना स्वाभाविक होना चाहिए।
कुल मिलाकर ऐसा लग रहा है कि मानसून सत्र के पहले से ही सत्तारूढ़ दल का रवैया विपक्ष के प्रति और ज्यादा आक्रामक हो गया है। जैसा कि प्रधान न्यायाधीश ने कहा कि राजनीतिक विरोध शत्रुता में नहीं बदलना चाहिए। यह स्वस्थ लोकतंत्र की निशानी नहीं है। सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच खाई बढ़ती जा रही है। बेशक देश बहुमत से चलता है, लेकिन संसद सहमति से चलती है। उसके बिना संसद औपचारिकता बनकर रह जाती है।
सोर्स: अमर उजाला
Neha Dani
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