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By: divyahimachal
पहाड़ों पर चैन का अभिलषित व्याकरण पैदा ही नहीं हुआ और न ही विकास इसका पर्यायवाची ढंूढ पाया। यह सूचना ही काफी है कि हिमाचल को हर साल बरसात के महीनों को लांघना सबसे बड़ी परीक्षा है। फिलहाल विकास का ऐसा कोई मॉडल नहीं, जो इंतजामों को पुख्ता कर दे। पहले बादल पहाड़ से टकरा कर नदी, नाले या प्राकृतिक निकासी में बहकर निकल जाते थे, लेकिन अब हर बरसात बहते आंसुओं की निशानी भी छोड़ जाती है। पहाड़ अब एक महीना नहीं, साल भर चलने का कारवां है, इसलिए मौसम से लड़ता आधुनिक इतिहास की शिकायत करता है। अभी मानसून ने घंटी भी नहीं बजाई कि भारी बारिश में मकान गिरने लगे, विकास का सीमेंट सरिया ढहने लगा और जनजीवन असामान्य होने लगा है। हर बार पर्यटक सीजन का बरसात से मिलन इस कद्र कराह जाता कि सुरक्षा के लिहाज से सैलानी भी कांप जाते। कुछ अनहोनियों के बीच बरसात की शहादत में हमारी व्यवस्था के पहरे उजड़ गए। यह बाढ़ का मंजर है या जल निकासी की घुटन कि चंद घंटों की बारिश ने मौसम की विकरालता को पेश करते हुए 102 करोड़ लील दिए।
पहले बारिश के साथ जीते थे, अब बरसात के खिलाफ जीने के कारण हर बूंद का अपना दरिया है। हर बूंद का अपना हिसाब है। कहीं बादलों की ओट से फिर समुद्र निकल आया। भागती जिंदगी के बीच मानसून की दस्तक अगर इतनी घातक है, तो इस दर्द को समझे बिना दवा नहीं मिलेगी। हिमाचल के वही रास्ते क्यों टूटे जहां विकास चल रहा था। विकास को फुर्सत नहीं और जल निकास को सोहबत नहीं। कहीं डंगे गिरे तो इसके साथ विकास के वे मंच भी ध्वस्त हुए, जिनके ऊपर एक हसरत भरे हिमाचल को बार-बार मापा जाता रहा है। क्या बरसात हमारे खोट को छुपाने का दरिया है या पाप को बहाने का जरिया है। हर साल तबाही के आलम की रिपोर्ट बन जाती है, लेकिन इस बर्बादी से सबक कौन लेता। न जनता और न ही सरकार। कुल्लू के मौहल में खड्ड हर बार फुंफकारे मारती हुई सामने खड़ी हर बाधा को साफ कर देती है। इस बार कई वाहन निकल लिए, तो कहीं ऐसे ही मंजर में जोगिंद्रनगर संपर्क मार्ग के पुल ने प्राण त्याग दिए। इस बीच पुलियों का ढहना आधुनिक विकास की सर्कस सरीखा हो गया। सार्वजनिक निर्माण के रेत और सीमेंट के बीच इतना भी तालमेल नहीं कि ये बरसात का मुकाबला कर सकें। अब बाढ़ की गंगा में सरकारी निर्माण अपने हाथ धोने लगा है। बहरहाल त्रासदी सिर्फ नाम की नहीं, हर साल अपने काम की भी है। हमारा ढांचा अगर बार-बार एक ही जगह टूट रहा है, तो मौसम से जिरह क्यों करें।
अगर धर्मपुर का बस स्टैंड फिर बहने के कगार पर पहुंच गया, तो कितनी बार बरसात को कोसते रहेंगे। बस स्टैंड के साथ 2015 में भी सोन खड्ड बहती थी और 2023 में भी इसी खड्ड की छाती पर मूंग दलता वही बस स्टैंड खड़ा है। विकास की ऐसी जिद्द का परिणाम पूर्व घोषित है, लेकिन हमें अपने डिजाइन, साइट प्लान और भूमि चयन में वैज्ञानिक तर्क तो चाहिए ही नहीं। कहीं तो मानसून हमारे विकास को असफल करार दे रही है। यह केवल सार्वजनिक नहीं, निजी क्षेत्र की बदौलत भी है कि हम अपने जीवन का अंदाज भूलकर भौतिक उपलब्धियों की रफ्तार में खोने लगे हैं। जिस तरह पारंपरिक जल निकासी को रोककर जनता अपने बीच सरहदें खड़ी कर रही है, उससे गांव का घराट भी अब बाढ़ का दरिया है। अतिक्रमण से सिकुड़ती कूहल, खड्ड व नालों के किनारे उभरती इमारतें इनसान को कितनी भी शाबाशी दे दें, लेकिन पानी को ऐसी सरहद मंजूर नहीं। यह हमारे जल और आपदा प्रबंधन के बीच की दूरी भी है कि गर्मियों में सूखे की मांग में बंजर होने की सजा और बारिश में बह जाने की हद से परे हो जाने की आफत खड़ी रहती है। हिमाचल के हर महकमे की औकात में बारिश अपने नथने फुलाती है या बादल फुंफकारते हैं, लेकिन हम वही ढाक के तीन पात, हर साल मानसून से पानी मांगते और साथ ही रहम मांगते रह जाते। न जाने कब सोचेंगे कि प्राकृतिक जल निकासी के रास्तों पर हमने विकास के कितने बेरहम रास्ते जोड़ दिए।
Rani Sahu
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