सम्पादकीय

मोदी की आतंक के खिलाफ आवाज

Gulabi
18 Nov 2020 4:10 AM GMT
मोदी की आतंक के खिलाफ आवाज
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कांग्रेस को अब विकल्प के रूप में नहीं देखा जा रहा है।

जनता से रिश्ता वेबडेस्क। भारतीय प्रधानमंत्री ने एक बार फिर आतंकवाद का मसला उठाया। इस बार उन्होंने यह मसला ब्रिक्स देशों के शिखर सम्मेलन में उठाते हुए कहा कि आतंकवाद का समर्थन करने वाले देशों को दोषी ठहराया जाए और उनका संगठित तरीके से विरोध हो। नि:संदेह उनका संकेत पाकिस्तान की ओर था, लेकिन कहीं न कहीं चीन भी उनके निशाने पर था। चीन को निशाने पर लेने की आवश्यकता इसलिए थी, क्योंकि वह न केवल पाकिस्तान का अनुचित बचाव करता है, बल्कि उसके यहां के आतंकी सरगनाओं की ढाल भी बनता है। यदि पाकिस्तान किस्म-किस्म के आतंकी संगठनों का सबसे बड़ा गढ़ है तो उसकी तरफदारी करने में सबसे आगे रहने वाले देशों में चीन है।

आखिर कौन भूल सकता है कि चीन किस तरह बरसों तक संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में आतंकी संगठन जैश-ए मुहम्मद के सरगना मसूद अजहर को प्रतिबंधित करने की पहल का विरोध करता रहा? इसी आतंकी संगठन के दो सदस्य गत दिवस दिल्ली में गिरफ्तार किए गए। पुलवामा हमले के पीछे भी इसी आतंकी संगठन का हाथ था और इसके पहले के अन्य आतंकी हमलों में भी। इसमें कहीं कोई दोराय नहीं कि पाकिस्तान अब भी आतंकी संगठनों को पाल-पोस रहा है और चीन इसकी अनदेखी करने में लगा हुआ है।

हालांकि इस सच से कश्मीरी नेता भी भली तरह परिचित हैं कि चीन किस तरह पाकिस्तान की पीठ पर हाथ रखे हुए है और इसी कारण वह किस प्रकार कश्मीर में अलगाववाद और आतंकवाद को हवा देने में लगा हुआ है, फिर भी वे उन नीतियों पर चलना पसंद कर रहे हैं, जो इन दोनों देशों को रास आती हैं अथवा उनके एजेंडे के अनुरूप हैं। इन दिनों जिस गुपकार गठबंधन की चर्चा है, वह और कुछ नहीं, बल्कि पाकिस्तान और चीन के एजेंडे को आगे बढ़ाने वाला राजनीतिक गठजोड़ है। इस गठजोड़ की मांगें कश्मीर में कलह पैदा करने वाली ही अधिक हैं।

कांग्रेस को अब विकल्प के रूप में नहीं देखा जा रहा है।

यह अच्छा हुआ कि कांग्रेस ने यह स्पष्ट कर दिया कि उसका गुपकार गठजोड़ से कोई लेना-देना नहीं, लेकिन यह समझना कठिन है कि उसने यह स्पष्टीकरण देने में इतने दिन क्यों खपा दिए? मात्र इस स्पष्टीकरण से काम चलने वाला नहीं है, क्योंकि उसके कुछ नेता वैसी ही बातें करने में लगे हुए हैं, जैसी गुपकार गठजोड़ के नेता कर रहे हैं। यह रवैया अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत की ओर से आतंकवाद के खिलाफ उठाई जा रही आवाज को बल प्रदान करने वाला नहीं। हमारे राजनीतिक दलों को यह समझना होगा कि अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत की आवाज तभी अच्छे से सुनी जाएगी, जब आतंकवाद के खिलाफ घरेलू मोर्चे पर एकजुटता दिखाने का कोई अवसर छोड़ा नहीं जाएगा।

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