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विश्व में शक्ति संतुलन की धुरी नई दिशा में स्थिर होने से पहले बुरी तरह हिलडुल रही है
रवि पाराशर
विश्व में शक्ति संतुलन की धुरी नई दिशा में स्थिर होने से पहले बुरी तरह हिलडुल रही है. रूस का यूक्रेन पर हमला इस धुरी के स्थिर होने की दिशा तय करने वाली घटना साबित होती नज़र आ रही है. यह कहना अनुचित नहीं होगा कि अब दुनिया के दादा अमेरिका की परंपरागत छवि धुंधलाती जा रही है. यूरोपीय एकता भी आज हाथ बांधे हुए विवश दिखाई दे रही है. ऐसे में एशिया, ख़ास कर दक्षिण एशिया में स्थित भारत विश्व शक्ति संतुलन के मामले में प्रभावी केंद्र बिंदु के तौर पर उभरता हुआ साफ़ नज़र आ रहा है.
दुनिया में जब समीकरण बदल रहे हैं या बदलने वाले हैं, तब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की एक दिन की नेपाल यात्रा को भी बड़ी घटना के तौर पर देखा जाना चाहिए. बुद्ध पूर्णिमा के दिन मोदी का एक दिन का लुंबिनी दौरा वैसे तो ऊपर से वैयक्तिक आस्था से जुड़ा दिखता है, लेकिन इसके कूटनीतिक मायने बड़े हैं. मोदी इस नेपाल दौरे में चीन को एक बार और आदमक़द भारतीय आइना दिखाने में सफल रहे हैं, इसमें किसी को शक़ नहीं होना चाहिए.
विश्व शक्ति संतुलन के पुलों के डगमगाने के मौजूदा दौर में अमेरिका और यूरोप के मुक़ाबले चीन सामरिक तौर पर बढ़त लिए हुए नज़र आ रहा है. रूस ने तो यूक्रेन को बर्बाद कर दुनिया को बता दिया है कि पश्चिम के परचम की उसे बिल्कुल परवाह नहीं है. चीन के बढ़ते सामरिक महत्व को भारत ही कम कर सकता है. यही वजह है कि दुनिया के सबसे ताक़तवर देश प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सामने चिरौरी करने में लग गए हैं.
एक समय तो लगने लगा था कि चीन के उकसावे की वजह से नेपाल और भारत की सदियों पुरानी दोस्ती में दरार पड़ जाएगी. लेकिन भारतीय कूटनयिक ने ऐसा होने नहीं दिया. भारतीय सीमा के अंदर स्थित कालापानी, लिंपियाधुरा और लिपुलेख को अपने नक्शे में शामिल कर नेपाल ने जब आंखें तरेरी थीं, तब ऐसी बहुत सी रिपोर्ट प्रकाशित और प्रसारित हुई थीं कि नेपाल चीन की गोद में बैठ चुका है.
पड़ोसी देशों को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की नीति ने मामला अब साध लिया है. न केवल नेपाल, बल्कि डोकलाम विवाद उभरने पर चीन को पीछे हटने को मजबूर कर भारत ने भूटान के साथ भी कूटनीतिक और सामरिक रिश्तों की डोर मज़बूत की थी. इसमें कोई शक नहीं कि चीन ने नेपाल में बहुत निवेश किया है. लेकिन नेपाल के कुछ अवसरवादी नेताओं को छोड़ दें, तो बुद्धिमान नेपाली जानते हैं कि चीन का निवेश उनकी मदद नहीं है, बल्कि विस्तारवादी जाल है. वे यह भी जानते हैं कि भारत ने कभी किसी की सीमाओं का अतिक्रमण नहीं किया. इसलिए चीन की चाल में फंसने की बजाए भारत के साथ दोस्ती को ज़्यादा अहमियत देना ही श्रेयस्कर है. नेपाल के प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा के हालिया दिल्ली दौरे में यह एट्टीट्यूड साफ़ दिखाई दिया.
एनडीए की मोदी सरकार नेपाल को लेकर बहुत गंभीर है. मई, 2014 के आख़िर में प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने के बाद मोदी जब क़रीब दो महीने बाद ही 3 अगस्त को नेपाल के दो दिनों के दौरे पर गए थे, तभी साफ़ हो गया था कि द्विपक्षीय संबंधों की नई इबारत लिखनी शुरू हो गई है. मोदी के पहले दौरे से पहले 17 साल तक भारत का कोई प्रधानमंत्री अपने सांस्कृतिक सखा नेपाल नहीं गया. हो सकता है कि नेपाल की तरफ़ से भी बेरुख़ी का आलम रहा हो, लेकिन कूटनीतिक चैनल ढंग से काम करते, तो भारत और हिंदू बहुल राष्ट्र नेपाल के बीच 17 साल तक तल्ख़ी नहीं उभरती.
प्रधानमंत्री मोदी के क़रीब आठ साल के कार्यकाल के दौरान यह उनका पांचवां नेपाल दौरा है. कई दौरे भले ही वैश्विक संगठनों के सम्मेलनों के विशिष्ट अवसरों पर हुए हों, लेकिन पड़ोसी नेपाल को अहमियत भारत के लिए कई कारणों से ज़रूरी है. पहले की भारत सरकारों ने इसका महत्व भले ही नहीं समझा हो, लेकिन मोदी सरकार ने नेपाल को कभी नज़रअंदाज़ नहीं किया है. भगवान बुद्ध के जन्मस्थल लुंबिनी में पांव जमाने में चीन पिछले क़रीब तीन दशक से लगा है. लुंबिनी प्रोजेक्ट में चीन ने अरबों डॉलर का निवेश कर रखा है. लेकिन प्रधानमंत्री मोदी के एक दिन के दौरे ने ही चीन के पांव डगमगा दिए हैं.
Rani Sahu
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