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सोर्स- Jagran
डा. एके वर्मा : बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार द्वारा भाजपा से नाता तोड़कर राजद, कांग्रेस और अन्य दलों के साथ सरकार बनाने के बाद तीन मुद्दे राष्ट्रीय विमर्श के केंद्र में आ गए हैं। एक, क्या नीतीश कुमार आगामी लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी होंगे? दूसरा, भाजपा को हराने के लिए क्या विपक्षी दल राष्ट्रीय स्तर पर 'महागठबंधन' बनाने में सफल हो सकेगा? तीसरा, क्या नरेन्द्र मोदी 2024 में अपनी सत्ता बचा पाएंगे? कई विश्लेषकों ने अपने अद्भुत ज्ञान-कौशल और चुनावी आंकड़ों द्वारा जनता से पूछे बिना ही मोदी और भाजपा के विरुद्ध अपना सांकेतिक निर्णय भी सुना दिया है। अभी लोकसभा चुनाव दो वर्ष दूर हैं। ऐसे में पार्टियों द्वारा तैयारी करना उचित है। फिर भी बिहार के राजनीतिक घटनाक्रम के आधार पर भाजपा को खारिज करने का बौद्धिक प्रलाप समझ से परे है।
राष्ट्रीय पार्टियां लोकसभा में बहुमत के लिए विभिन्न राज्यों में अपने प्रदर्शन पर निर्भर होती हैं। चूंकि बिहार से लोकसभा के 40 सदस्य चुनकर आते हैं तो इस लिहाज से वह एक बड़ा राज्य है। इसीलिए भाजपा को अगर सत्ता में वापसी करनी है तो बिहार में बेहतर प्रदर्शन करना होगा। कुछ विश्लेषक मान रहे हैं कि जदयू और राजद के साथ आने से भाजपा को भारी नुकसान होगा। ऐसे लोग असल में उत्तर प्रदेश का उदाहरण भूल जा रहे हैं। वर्ष 2019 के आम चुनाव में सपा और बसपा ने भाजपा के विरुद्ध गठबंधन किया था। मीडिया के बड़े हिस्से और विश्लेषकों ने भाजपा को भारी नुकसान की भविष्यवाणी की थी, लेकिन परिणाम क्या हुआ? भाजपा-अपना दल गठबंधन ने 80 में 64 सीटें जीतीं। वहीं बसपा 10 और सपा पांच सीटों पर सिमट गई।
बिहार की जनता को राष्ट्रीय चुनाव और विधानसभा चुनाव का फर्क करना आता है। 2019 के लोकसभा चुनावों में बिहार की जनता ने मोदी के नेतृत्व में भरोसा जताया था। तब भाजपा-जदयू-लोजपा गठबंधन ने राज्य की 40 में से 39 सीटों पर जीत हासिल की थी। अब मतदान जातीय गणित से आगे निकल चुका है। जनता कानून-व्यवस्था, राष्ट्रीय सुरक्षा, विकास और लोक-कल्याण को ध्यान में रखकर वर्गीय हितों के अनुसार मतदान कर रही है। जातीय आधार पर अस्मिता की राजनीति करने वाले दल और नेता अभी इस परिवर्तन को भांप ही नहीं पाए हैं। इसी कारण अपनी हार के लिए ईवीएम, चुनाव आयोग या सत्तारूढ़ दल को दोष देते हैं।
वहीं भाजपा का राष्ट्रीय नेतृत्व मुख्य रूप से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जनता से लगातार जुड़ाव बढ़ा रहे हैं। 'मन की बात' कार्यक्रम द्वारा हर महीने जनता से संवाद करते हैं। लोकतंत्र में यह एक नया प्रयोग है। विकास और लोक-कल्याण की समावेशी योजनाओं का धन 'टेक्नोलाजी' के माध्यम से लाभार्थियों को सीधे उनके खाते में मिल रहा है, जो उनके लिए अकल्पनीय था। इसमें बिचौलिये बाहर हो गए हैं। मोदी ने जिस तरह गरीबों को वित्तीय सुरक्षा, स्वास्थ्य सुरक्षा, किसानों को फसल बीमा सुरक्षा, महिला सुरक्षा और दैनिक जीवन में जीवन सुरक्षा दी है, वह वर्ग राजनीति का अद्भुत उदाहरण है।
इसमें कोई शक नहीं कि आज राष्ट्रीय राजनीति मोदी केंद्रित हो गई है। अधिकतर राजनीतिक दल और नेता अभी भी परंपरागत अस्मितावादी, जातिवादी और अवसरवादी चश्मे से चुनावों को देखते हैं, लेकिन मोदी ने राष्ट्रीय राजनीति का संपूर्ण व्याकरण ही बदल दिया है। उन्होंने अस्मितावादी राजनीति की जगह गरीबों के सपनों को साकार करने वाली जनाकांक्षावादी राजनीति को बढ़ावा दिया है। जातिवादी-राजनीति के मकड़जाल से परे जनता को वर्ग-राजनीति से जोड़ा है और बहिर्वेशी-राजनीति को तिलांजलि देकर समावेशी-राजनीति को तरजीह दी है।
जो विश्लेषक विगत लोकसभा के राज्यवार आंकड़ों के आधार पर बिहार, झारखंड और बंगाल को आधार बना कर अभी से मोदी के विरुद्ध चुनाव परिणाम के संकेत देने लगे हैं, वे भी अपने बचाव के लिए चतुराई से कुछ गुंजाइश बनाए हुए हैं। राष्ट्रीय स्तर पर जनता सशक्त सरकार चाहती है जो साफ-सुथरी, पारदर्शी, प्रतिबद्ध और राष्ट्रीय एवं वैश्विक स्तर पर अपनी पहचान रखती हो। मोदी सरकार ने ऐसी छवि अर्जित की है जिसका गौरवगान करते पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान भी नहीं थकते। इसीलिए मेक्सिको के राष्ट्रपति एंद्रेस मैनुएल लोपेज ने तीन लोगों मोदी, पोप और संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरस की एक समिति का प्रस्ताव दिया है, जो वैश्विक संघर्षों को रोकने के लिए प्रयास करे।
आगामी लोकसभा चुनाव में मोदी और भाजपा जीतें या हारें, लेकिन उसकी थाह तभी मिलेगी जब हम जमीनी स्तर पर अध्ययन करेंगे। हमारे शोध केंद्र 'सीएसएसपी' ने 2022 के विधानसभा चुनावों में भाजपा के 45 प्रतिशत वोट (272 सीटें) और सपा के लिए 35 प्रतिशत वोट का आकलन किया था, जो सही निकला। इसी प्रकार 2019 के लोकसभा चुनावों में प्रदेश में भाजपा-अपना दल गठबंधन के लिए 60 से 65 सीटों का आकलन किया था और उन्हें 64 सीटें मिलीं। ये अध्ययन मतदान के बाद किए गए थे जो मतदाता के मतदान-व्यवहार को समझने की कोशिश करते हैं। ऐसे अध्ययन गलत भी हो सकते हैं, लेकिन यदि अध्ययन में सच्चाई एवं पारदर्शिता रखी जाए तो संकेत स्पष्ट मिल जाते हैं। ऐसे में चुनाव से दो वर्ष पहले के पूर्वानुमान विश्लेषकों की इच्छा व्यक्त करते हैं, जनता की नहीं।
राष्ट्रीय नेतृत्व चयन में सबसे महत्वपूर्ण घटक तो मतदाता होता है, लेकिन अधिकतर विश्लेषक राजनीतिक दलों की उठापटक को ही तरजीह दे रहे हैं। क्या वे जनता को मूर्ख समझते हैं? विपक्ष के पास न भाजपा का कोई राष्ट्रीय विकल्प है, न समरूप विचारधारा। न कोई सर्वमान्य नेतृत्व, जहां राहुल गांधी, ममता बनर्जी, नीतीश कुमार, अरविंद केजरीवाल, मायावती और अखिलेश यादव आदि अनेक दावेदार हों, वहां जनता के मन में सवाल उठता है कि लोकतंत्र में सत्ता परिवर्तन तो होना चाहिए, लेकिन क्या विपक्ष के पास मोदी और भाजपा का कोई विकल्प है भी? फिर चुनाव जीतकर आप करेंगे क्या? या केवल मोदी को हटाना ही एक मुद्दा है? मोदी का जनता से जुड़ाव, साफ-सुथरी छवि, देश के लिए उनकी प्रतिबद्धता, विकास योजनाओं को लोगों तक पहुंचाना, बेहतर चुनाव-प्रचार एवं चुनाव-प्रबंधन आदि अनेक ऐसे घटक हैं, जो विश्लेषकों की इच्छाओं पर पानी फेर सकते हैं।

Rani Sahu
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