सम्पादकीय

मोदी के पूर्व आर्थिक सलाहकार भल्ला के दावे मुंगेरी लाल के हसीन सपने जैसा

Gulabi Jagat
12 April 2022 4:40 PM GMT
मोदी के पूर्व आर्थिक सलाहकार भल्ला के दावे मुंगेरी लाल के हसीन सपने  जैसा
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क्या भारत में गरीबी,भूख और आर्थिक असमानता खत्म होने के कागार पर है?
Faisal Anurag
क्या भारत में गरीबी,भूख और आर्थिक असमानता खत्म होने के कागार पर है? यह पढ़ कर जमीनी हकीकत से वाकिफ कोई भी नागरिक चौंक सकता है. यहां तक कि विकास मानकों के आधार पर देशों के इंडेक्स तैयार करने वाले उपाहास भी उड़ा सकते हैं. लेकिन तीन अर्थशास्त्री ऐसे भी हैं जिनकी मान्यता है कि मुफ्त राशन की योजना ने भारत की आर्थिक तस्वीर को बदल सा दिया है और जल्द ही भारत गरीबी के मकड़जाल से निकलने ही वाला है.
इन तीनों अर्थशास्त्रियों का यह भी दावा है कि इस योजना ने आर्थिक असमानता को बहुत कम कर दिया. यह दावा तब किया जा रहा है जब विश्व असमानता इंडेक्स में कहा गया है कि भारत दुनिया के उन देशों में है जहां सबसे ज्यादा असमानता और गरीबी है.प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार रहे सुरजीत भल्ला, जो इस समय अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के कार्यकारी निदेशक हैं, ने दो अन्य के साथ मिल कर "पेंडामिक पॉवर्टी एंड इनइक्वालिटी: एविडेंस फ्रॉम इंडिया" शीर्षक से आईएमएफ की वेबसाइट पर एक पेपर प्रकाशित किया है.
इस पेपर में भल्ला का दावा है कि राष्ट्रीय खाद्य-सुरक्षा अधिनियम 2012 और महामारी-विशिष्ट राहत कार्यक्रम के तहत प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना ने महामारी के दौरान एक्सट्रीम गरीबी और असमानता के स्तर को कम किया है. भल्ला जब प्रधानमंत्री मोदी के आर्थिक सलाहकार थे तब भी दावों को लेकर अनेक बार विवाद में आए थे. 2018 में उन्होंने प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार के पद से इस्तीफा दे दिया था. इस पेपर के दो अन्य सहलेखक हैं करण भसीन और अरविंद विरमानी.
जानकारों का दावा है कि इस पेपर में वास्तविक अंकड़ों की अनदेखी कर मनचाहे निष्कर्ष निकाले गए है. आखिर वे किसे खुश करना चाहते हैं जब कि दुनिया भर के अनेक संस्थानों ने भारत की गरीबी,असमानता और भूख को लेकर तथ्यों के आधार पर मानकों के माध्यम से दिखाया है कि देश कहां खड़ा है. महत्व की बात यह नहीं है कि इन तीनों का दावा कितना सच है बल्कि यह है कि आखिर इस तरह के दावे करने का मुख्य मकसद यह है कि भारत की राजनीतिक बयार में सरकार के लिए ऐसे तर्क प्रदान करना जिससे दुनिया भर में उसकी वाहवाही हो और देश के लोगों के बीच भ्रम पैदा कर सके.
भल्ला,भसीन और विरमानी के पेपर में दावा किया गया है कि महामारी से पहले के साल यानी 2019 में भारत में अत्यधिक गरीबी 0.8 फीसदी की हद तक कम हो गयी थी. उसके बाद खाद्य-हस्तांतरण जैसी योजना ने यह सुनिश्चित करने में महती भूमिका निभाई कि यह दर महामारी वाले साल यानी 2020 में भी उसी स्तर पर बनी रहे. इसमें आगे कहा गया कि भारत में 2019 में अत्यधिक गरीबी क्रय शक्ति समता (परचेजिंग पावर पैरिटी) 1.9 डॉलर प्रति व्यक्ति प्रतिदिन से कम यानी 1 फीसदी से भी कम थी और यह महामारी वर्ष 2020 के दौरान भी उसी स्तर पर बनी रही.
सुरजीत भल्ला आइएमएफ में भारत, बांग्लादेश, श्रीलंका और भूटान जैसे देशों के मामलों पर नजर रखते हैं. श्रीलंका में भी आर्थिक आंकड़ों को लेकर राजपक्षे ने खूब मनमानी वाले दावे किए थे. नतीजा यह है कि श्रीलंका दिवालिया सा हो गया है. वहां की जनता सड़कों पर है. यह वही श्रीलंका है जिसने सांप्रदायिक तौर पह आर्थिक आंकड़ों की मनमानी व्याख्या किए जाने और मनोनुकूल निष्कर्ष निकाल कर इस्तेमाल की प्रवृति एक संक्रामक रूप धारण कर चुकी है.
हकीकत इससे नहीं बदलती भले ही गुलाबी तस्वीर का प्रोपेगंडा किया जाए. 80 करोड़ लोगों को मुफ्त में राशन की योजना से गरीबी उन्मूलन या असमानता में कमी के दावे भल्ला जैसे ही लोग कर सकते हैं और दुनिया में उपाहास का विषय बन सकते हैं. आर्थिक हकीकत किसी कल्पनालोक को गढ़ देने मात्र से बदल नहीं सकता.भल्ला के कल्पनालोक के अनुसार मोदी सरकार द्वारा मुफ्त अनाज उपलब्ध कराने के चलते भारत 2020 में अत्यधिक गरीबी दूर करने के करीब पहुंच गया था और असामनता पिछले 40 सालों में अपने न्यूनतम स्तर पर थी.
दूसरी ओर पेरिस स्कूल आफ इकोनामिक्स के विश्व असमानता प्रयोगशाला के सह निदेशक लुकास चंसेल ने एक साक्षत्कार में दावा किया है कि भारत की आधी आबादी के पास कामचलाऊ पूंजी भी नहीं है.असमानता, लोकतंत्र पर आघात करती है. यही वजह है कि सरकारों को हस्तक्षेप कर इस पर अंकुश लगाने और इस ट्रेंड को बदलने की जरूरत है. भारत में आर्थिक-वृद्धि पूरी तरह से असमान रही है. उदारीकरण और मुक्त बाजार ने पूंजी के निर्माण, आर्थिक-वृद्धि और कुछ हद तक गरीबी कम करने की दिशा में काम किया. हालांकि औसत आर्थिक वृद्धि, वितरण में असमानता को छिपा देती है. यहां पूंजी का वितरण बहुत असमान रहा है, जिसकी वजह से इसकी पचास फीसदी से ज्यादा आबादी के पास कामचलाऊ पूंजी भी नहीं है.
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