सम्पादकीय

अटलजी की राह पर चल रहे हैं मोदी; आठ सालों में एक राज्य के नेता से एक राष्ट्रीय नेता के रूप में उभरे

Gulabi Jagat
13 April 2022 8:54 AM GMT
अटलजी की राह पर चल रहे हैं मोदी; आठ सालों में एक राज्य के नेता से एक राष्ट्रीय नेता के रूप में उभरे
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अटलजी की राह पर चल रहे हैं मोदी
मिन्हाज मर्चेंट का कॉलम:
2002 के दंगों के बाद जब प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने गुजरात की यात्रा की थी तो उन्होंने मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को नसीहत देते हुए कहा था- 'राजधर्म का पालन करो।' उस भीड़भरी प्रेसवार्ता में मोदी वाजपेयी के समीप ही बैठे थे। उन्होंने कहा था कि वे भी यही कर रहे हैं। वाजपेयी ने सिर हिलाकर सहमति दी और वहां एकत्र पत्रकारों से कहा, 'मुझे विश्वास है कि नरेंद्र भाई भी यही कर रहे हैं' (यानी वे भी राजधर्म का पालन ही कर रहे हैं)।
मीडिया ने इस संवाद के पहले भाग यानी वाजपेयी की नसीहत को बार-बार दिखाया लेकिन मोदी के जवाब और उस पर वाजपेयी की सहमति को काट दिया गया था। इसी के साथ नरेंद्र मोदी की छवि खराब करने का अभियान शुरू हो गया। आज बीस साल बाद भी वह रुका नहीं है। 2002 के दंगों में सर्वोच्च अदालत के द्वारा दोषमुक्त करार दिए जाने के बावजूद आज भी अनेक आलोचक यही मानते हैं कि दंगों को रोकने के लिए मोदी ने पर्याप्त कदम नहीं उठाए थे।
वर्ष 2014 में जब मोदी प्रधानमंत्री बने तो चुनाव-दर-चुनाव- फिर चाहे लोकसभा के चुनाव हों या विधानसभाओं के- गुजरात दंगों को याद दिलाया जाता रहा। वैसा करने वाले विपक्ष के नेता और मीडिया का एक वर्ग था, ताकि नेता के रूप में मोदी की साख पर बट्टा लगाया जा सके। वे रणनीतियां चुनावी तौर पर तो नाकाम साबित हुईं, लेकिन उनसे एक समांतर प्रयोजन जरूर सध गया- मोदी का क्रमिक वाजपेयीकरण।
वर्ष 1980 में जब भारतीय जनता पार्टी की स्थापना हुई थी, तब वाजपेयी मुखर हिंदुत्ववादी नेता हुआ करते थे। 1983 में असम में दिए गए एक भाषण में उन्होंने कहा था- 'विदेशी यहां चले आते हैं और सरकार कुछ नहीं करती। अगर पंजाब में ऐसा होगा तो उनके साथ कैसा सलूक किया जाता?' इस भाषण के बाद असम में नेल्ली नरसंहार की घटना हुई थी।
कारसेवा के दिनों में लालकृष्ण आडवाणी को भाजपा के हार्डलाइन नेता के रूप में जाना जाता था, वहीं वाजपेयी की छवि सॉफ्ट मानी जाती थी। लेकिन 1992 में बाबरी ढांचा गिराए जाने से पहले एक भाषण में उन्होंने कहा था- 'इस भूमि को समतल बनाए जाने की जरूरत है।' यहां तक कि गुजरात दंगों के दो माह बाद भी यानी अप्रैल 2002 में वाजपेयी ने भाजपा की राष्ट्रीय परिषद की बैठक में कहा था- 'हमें भूलना नहीं चाहिए कि गुजरात की त्रासदी कैसे शुरू हुई थी।
जो हुआ वह यकीनन निंदनीय था, लेकिन सबसे पहले आग किसने लगाई थी?' लेकिन वाजपेयी अपने विचारों को सावधानीपूर्वक व्यक्त करते थे। वे रुक-रुककर, इत्मीनान और शांति से बोलते थे। यही कारण है कि मई 2002 में संसद में उन्होंने कहा था कि मैं स्वामी विवेकानंद की शैली के हिंदुत्व में विश्वास रखता हूं, लेकिन आज जिस तरह के हिंदुत्व को आगे बढ़ाया जा रहा है वह गलत है और हमें इससे सचेत रहना चाहिए।
अनेक भारतीय नेताओं की तरह वाजपेयी को भी अपने कॅरियर की शुरुआत में यह समझ में आ गया था कि भारत जैसे जटिलतापूर्ण देश को केवल मध्यमार्ग का पालन करके ही चलाया जा सकता है, वाम और दक्षिण की कोई भी अति यहां काम नहीं आएगी। यही कारण था कि वाजपेयी ने सार्वजनिक रूप से स्वयं को राइट-टु-सेंटर की तरह प्रस्तुत किया, ठीक वैसे ही जैसे जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी और अन्य नेतागण लेफ्ट-टु-सेंटर की तरफ झुकाव रखते थे। लेकिन मोदी के स्वयं के विचारधारागत झुकावों के बारे में क्या?
बीते आठ सालों में मोदी एक राज्य के नेता से एक राष्ट्रीय नेता के रूप में उभरे हैं और अब वे एक विश्व-नेता के रूप में प्रतिष्ठित हो चुके हैं। लेकिन इसके लिए उन्होंने वाजपेयी की ही नीति अपनाई है : चुनावों के दौरान हिंदुत्व की बात करना, देश में गरीबों के मसीहा की छवि को सामने रखना और दुनिया के सामने शालीन राष्ट्राध्यक्ष के रूप में पेश आना। इसी के चलते हमने उत्तर प्रदेश सहित दूसरे राज्यों के विधानसभा चुनावों के प्रचार अभियान में मोदी का आक्रामक रवैया देखा।
इसके बाद उन्होंने 80 करोड़ भारतीयों के लिए नि:शुल्क भोजन की योजना को छह माह तक और बढ़ाने का लोकप्रियतावादी कदम उठाया। और अंत में रूस-यूक्रेन युद्ध में एक स्टेट्समैन के अनुरूप भूमिका निभाई। जैसे-जैसे 2024 के लोकसभा चुनाव निकट आएंगे, मोदी के ये तीनों रूप हमें दिखाई देते रहेंगे। वाजपेयी भाजपा को 2 सीटों से 1998 में 182 सीटों तक ले गए थे। 2004 में वे सबसे अधिक समय तक पद पर रहने वाले गैरकांग्रेसी प्रधानमंत्री बन गए थे।
मोदी ने बड़ी ही सहजता से वाजपेयी के ये कीर्तिमान तोड़ दिए हैं और वैसा उन्होंने वाजपेयी की राह पर चलकर ही किया है। इसके बावजूद 2022 का भारत 1998 का भारत नहीं है। एक नई पीढ़ी सामने आ चुकी है। इस पीढ़ी को आज सेंटर-राइट नेशनलिज़्म और आकांक्षाओं से भरे उपभोक्तावाद के बीच कोई विरोधाभास नहीं दिखलाई देते हैं। 2024 में मोदी वह करने का प्रयास करेंगे, जो इससे पहले भाजपा तो क्या कांग्रेस के भी किसी प्रधानमंत्री ने नहीं किया था।
यह सच है कि पं. नेहरू ने 1952, 1957 और 1962 में लगातार तीन लोकसभा चुनाव जीते थे, लेकिन वे अपना तीसरा कार्यकाल पूरा नहीं कर पाए थे। नेहरू का कीर्तिमान ध्वस्त करने के लिए मोदी को न केवल 2024 का आम चुनाव जीतना होगा, बल्कि अपना तीसरा कार्यकाल भी पूरा करना होगा। जिस नेता को एक बार राजधर्म का पालन करने की याद दिलाई गई थी, उसके लिए तो यह गहरे संतोष का ही क्षण होगा।
अब नए कीर्तिमानों की ओर
अटल बिहारी वाजपेयी भाजपा को 2 सीटों से 1998 में 182 सीटों तक ले गए थे। 2004 में वे सबसे अधिक समय तक पद पर रहने वाले गैरकांग्रेसी प्रधानमंत्री बन गए थे। मोदी ने बड़ी ही सहजता से अटलजी के ये कीर्तिमान तोड़ दिए हैं और वैसा उन्होंने अटलजी की राह पर चलकर ही किया है। इसके बावजूद 2022 का भारत 1998 का भारत नहीं है। तब से अब तक एक नई पीढ़ी सामने आ चुकी है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
Gulabi Jagat

Gulabi Jagat

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