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आतंकवाद के खिलाफ मोदी सरकार की जीरो टालरेंस की नीति
बृजलाल। जब देश सुरक्षित होता है, तभी वहां के लोग भी सुरक्षित होते हैं। सुरक्षा के मामले में 2014 के पहले के दौर का स्मरण करें। तब आए दिन हमारे शहरों में आतंकी हमले होते थे। जुलाई 2008 में ऐसे ही एक आतंकी हमले में अहमदाबाद में 21 जगहों पर बम विस्फोट किए गए थे। इनमें 56 लोग मारे गए थे और दो सौ से अधिक घायल हुए थे। हाल में इन विस्फोटों के लिए दोषी 38 आतंकियों को मौत और 11 को उम्रकैद की सजा सुनाई गई है। इनमें कई आजमगढ़ के हैं। नि:संदेह 2014 के बाद स्थिति बदली और आतंकी वारदातों में जान गंवाने वाले सशस्त्र बलों, पुलिस के जवानों और सामान्य नागरिकों की संख्या कम हुई है। यह संभव हो पाया राष्ट्रीय सुरक्षा पर राजनीतिक इच्छाशक्ति और संकल्पशक्ति के कारण।
पुलिस सेवा में रहते हुए मैंने करीब से देखा है कि कैसे राजनीतिक स्वार्थ सिद्धि के लिए देश की सुरक्षा की अनदेखी की गई। जब 2012 में अखिलेश सरकार सत्ता में आई तो उसने 2007 में गोरखपुर में हुए बम धमाकों में पकड़े गए आतंकियों तारिक कासमी और खालिद मुजाहिद के मुकदमों को वापस लेने की पहल की। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने मुकदमा वापसी के आदेश पर रोक लगाते हुए सरकार को फटकार लगाई। बाद में गोरखपुर के स्पेशल जज ने आतंकी तारिक कासमी को दोषी पाया और उसे आजीवन कारावास की सजा सुनाई। यह भी ध्यान रहे कि 2013 में जब आतंकी खालिद की लू लगने से मौत हो गई तो अखिलेश सरकार ने 42 पुलिस अधिकारियों-कर्मियों पर मुकदमा दायर करा दिया। इतना ही नहीं, इस मामले की जांच सीबीआइ को दे दी गई। सीबीआइ ने प्रारंभिक जांच में ही केस को झूठा पाया। इसके बाद भी जब मार्च 2017 में भाजपा सरकार सत्ता में आई तब जाकर इस फर्जी मुकदमे का पटाक्षेप हुआ।
अहमदाबाद बम धमाकों में सजा पाए आतंकी। फाइल
2014 के पहले केंद्रीय नेतृत्व भी आतंकवाद के मामले में लचीला रुख अपनाए हुए था और वह भी तब जब इंडियन मुजाहिदीन के आतंकी देश में जगह-जगह धमाके कर रहे थे। इस संगठन के कई सदस्य आजमगढ़ के थे। इस संगठन को पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आइएसआइ और लश्कर-ए-तैयबा की भी शह मिल रही थी। इंडियन मुजाहिदीन का आजमगढ़ माड्यूल देश भर में सैकड़ों निदरेष लोगों की मौत का कारण बना। ये मौतें आतंकी हमलों में हुईं। 2008 में जब बाटला हाउस मुठभेड़ हुई तो दिग्विजय सिंह, सलमान खुर्शीद, ममता बनर्जी आदि ने उस पर सवाल उठाए। इतना ही नहीं दिग्विजय सिंह ने तो आजमगढ़ जाकर यहां तक कह दिया कि बाटला हाउस मुठभेड़ फर्जी है। इस मुठभेड़ में वीरगति को प्राप्त हुए इंस्पेक्टर मोहन चंद्र शर्मा के बारे में कहा गया कि वह तो पुलिस की गोली से मरे। 2012 में आजमगढ़ में एक चुनावी रैली में सलमान खुर्शीद ने यह कह दिया कि उन्होंने जब बाटला हाउस में मारे गए 'लड़कों' की फोटो सोनिया गांधी को दिखाईं तो उनकी आंखों में आंसू छलक आए। यह किसी से छिपा नहीं कि बाद में अदालत ने इस मुठभेड़ को सही पाया।
2014 के पहले एक समस्या यह भी थी कि जब कभी पुलिस जान पर खेलकर किसी आतंकी को पकड़ती थी तो उस पर सस्ती राजनीति होने लगती थी और पकड़े गए संदिग्ध आतंकियों को निदरेष बताया जाने लगता था। जाहिर है कि इससे पुलिस का मनोबल प्रभावित होता था। इन दिनों यह मामला चर्चा में है कि अखिलेश सरकार ने किस तरह 2013 में आतंकियों के खिलाफ 14 मुकदमे वापस लेने की पहल की थी। इनमें 2008 में रामपुर में सीआरपीएफ कैंप पर हमला करने वाले आतंकी भी थे। इस हमले में सात सीआरपीएफ जवान बलिदान हुए थे। इसी तरह का एक मामला 1993 का है। 1993 में मेरठ के पीएसी कैंप में ग्रेनेड से हमला हुआ। इस हमले में एक पीएसी हवलदार ने अपने प्राण गंवाए और कई अन्य जवान घायल हुए। इस हमले के लिए जिम्मेदार आतंकी गिरफ्तार किए गए और उनके खिलाफ टाडा के तहत मुकदमा कायम हुआ, लेकिन तब बसपा के समर्थन वाली मुलायम सिंह की सरकार ने इन आतंकियों के खिलाफ दायर चार्जशीट वापस लेने का फैसला किया। जिला जज मेरठ ने इसकी अनुमति नहीं दी और ट्रायल शुरू कर दिया। बाद में इन आतंकियों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई।
2004 में उत्तर प्रदेश एसटीएफ के डिप्टी एसपी शैलेंद्र प्रताप सिंह ने दो सौ कारतूसों सहित सेना से चुराई हुई एलएमजी बरामद की। इस मामले में पोटा के तहत आर्म्स एक्ट के मुकदमे में मुख्तार अंसारी, मुन्नर और बाबूलाल यादव को नामजद किया गया। मुलायम सिंह सरकार को यह रास नहीं आया। इसके बाद शैलेंद्र प्रताप सिंह को इतना प्रताड़ित किया गया कि उन्होंने इस्तीफा दे दिया। इसके एक साल बाद नवंबर 2005 में भाजपा विधायक कृष्णानंद राय की गाजीपुर में नृशंस हत्या हुई। कृष्णानंद राय के हत्यारोपी मुख्तार अंसारी को किसका राजनीतिक संरक्षण मिलता रहा, यह किसी से छिपा नहीं।
यह आम धारणा है कि राजनीतिक रसूख के कारण ही मुख्तार अंसारी कृष्णानंद राय हत्याकांड से बरी हो गया। जो भी हो, इसमें दो राय नहीं कि पहले की सरकारों के विपरीत मोदी सरकार की राष्ट्रीय सुरक्षा नीति बेहद स्पष्ट है। उसे देश की सुरक्षा के साथ कोई समझौता मंजूर नहीं। चाहे वह बाहरी हो या आंतरिक, हर मोर्चे पर राष्ट्रीय सुरक्षा को मजबूत बनाया गया है। सेना, पुलिस, सुरक्षा एजेंसियों को पूरी छूट मिली है। आतंकवाद के खिलाफ मोदी सरकार की जीरो टालरेंस की नीति और सेना-पुलिस के साथ अन्य सुरक्षा एजेंसियों के हाथ खोलने से उनका मनोबल ऊंचा हुआ है। वास्तव में इसी कारण नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद आतंकी घटनाएं निम्नतर स्तर पर हैं और उग्रवाद, नक्सलवाद भी नियंत्रण में हैं।
(लेखक उत्तर प्रदेश के पुलिस प्रमुख रहे हैं)
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