सम्पादकीय

मोदी-बाइडन वार्ता

Rani Sahu
13 April 2022 4:38 PM GMT
मोदी-बाइडन वार्ता
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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन के बीच हुई आभासी शिखर-वार्ता के गहरे निहितार्थ हैं

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन के बीच हुई आभासी शिखर-वार्ता के गहरे निहितार्थ हैं। रियायती दर पर भारत को तेल बेचने के रूसी प्रस्ताव को लेकर एकाधिक अमेरिकी बयानों से भ्रम की स्थिति बन गई थी। पश्चिमी मीडिया का एक हिस्सा इन बयानों को अमेरिकी नाखुशी के रूप में पेश करने में जुटा था, लेकिन विदेश मंत्री एस जयशंकर ने भारत-अमेरिकी 2+2 वार्ता के बाद आयोजित संवाददाता सम्मेलन में स्पष्ट कर दिया कि रूस से पेट्रो उत्पादों की खरीद के संदर्भ में भारत को लेकर अमेरिका को चिंतित होने की जरूरत नहीं है, क्योंकि यूरोप जितना एक दोपहर में उससे तेल खरीदता है, भारत उतना महीने भर में भी आयात नहीं करता। वाशिंगटन को यह मानना पड़ा है कि भारत का तेल आयात मॉस्को पर आयद प्रतिबंधों का उल्लंघन नहीं है और यूक्रेन युद्ध के मामले में भारत अपनी भूमिका लेने के लिए आजाद है।

रूस-यूक्रेन युद्ध के बाद दुनिया की बड़ी शक्तियां अब खुलकर आमने-सामने आ चुकी हैं और अमेरिका चाहता है कि रूस पर आर्थिक दबाव बनाए रखा जाए। इसलिए मॉस्को से पेट्रो उत्पादों के अलावा हथियार खरीद के नए समझौतों को लेकर भी उसने अपने तेवर कडे़ कर लिए हैं। लेकिन वाशिंगटन को यह समझने की जरूरत है कि रूस के साथ भारत के दशकों पुराने सामरिक संबंध हैं और वह अपने हितों की अनदेखी नहीं कर सकता। यूक्रेन मामले पर संयुक्त राष्ट्र की तमाम वोटिंग के दौरान अनुपस्थित रहकर भी भारत ने यह साफ कर दिया है कि वह अपने कंधे का इस्तेमाल करने की इजाजत किसी को नहीं देगा। अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के रुख से भी वाशिंगटन को स्पष्ट हो जाना चाहिए कि भारत वैश्विक शांति और अपने हितों के बीच संतुलन साधना जानता है। प्रधानमंत्री ने बातचीत के दौरान एक बार भी रूस का नाम नहीं लिया।
भारत को अपने पक्ष में करने की अमेरिकी रणनीति समझी जा सकती है। ये दोनों देश दुनिया के दो सबसे बड़े लोकतंत्र हैं। फिर वाशिंगटन जानता है कि चीन पहले से मॉस्को के साथ है। उसके पास मजबूत आर्थिक व सैन्य ताकत के अलावा एक विशाल बाजार भी है, जिसका जवाब सिर्फ भारत हो सकता है। भारत और चीन के तनावपूर्ण संबंधों में भी वह अपने लिए संभावनाएं देख रहा है। चंद रोज पहले उसके उप-राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार दलीप सिंह की अराजनयिक टिप्पणी इसी बात की तस्दीक करती है। अब वह भारत की ऊर्जा व सैन्य जरूरतों में अपनी दिलचस्पी दिखा रहा है। यह सही है कि अंतरराष्ट्रीय कूटनीति परिस्थितियों से संचालित होती है, लेकिन नाजुक मौकों पर रूस के सहयोग को भारत कैसे भूल सकता है? वह भी उस अमेरिका के मुकाबले, जिसने तमाम सुबूतों के बावजूद पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद के मामले में भारतीय हितों की हमेशा अनेदखी की? इन सबके बावजूद प्रधानमंत्री ने यूक्रेन के मासूम नागरिकों की हत्या की तीखी निंदा की है। और यह भारत का पुराना रुख है, वह किसी अमानवीय कृत्य की हिमायत नहीं कर सकता। निस्संदेह, भारत को भी अमेरिका के साथ और सहयोग की आवश्यकता है, पर वाशिंगटन को समझना होगा कि इकतरफा दबाव का दौर अब खत्म हो चुका है। यूरोप का रूस से जारी कारोबार इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। इसलिए परस्पर सम्मान और समझदारी से ही भारत-अमेरिकी संबंध भी एक नई ऊंचाई को छू सकेंगे।

क्रेडिट बाय हिन्दुस्तान

Rani Sahu

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