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देश में महिलाओं की स्थिति पर चिंतन करना जरूरी
श्रीनिवास। विश्व के हर समाज में चेतना और जड़ता का चक्र अनवरत चलता रहता है। चेतना के उत्कर्ष के काल में समाज प्रगति करता है, लेकिन अनेक कारणों से जब यह चेतना मंद पड़ने लगती है तब समाज में समग्रता और समरसता का भाव कमजोर पड़ता है। परिणामस्वरूप राष्ट्रीय एकात्मता का भाव भी क्षीण होने लगता है। दुर्भाग्य से हमारा समाज जब ऐसी अवस्था से गुजर रहा था तभी भारत भूमि पर विदेशी हमले भी हुए।
हमारा पूरा सामाजिक और शैक्षिक ताना-बाना बिखर गया। अंग्रेजों के शासन काल में स्त्रियों की शिक्षा-दीक्षा का क्रम बाधित होने के कारण समाज में एक अभूतपूर्व असंतुलन देखने को मिल रहा था। लोपमुद्रा, अपाला, गार्गी, मैत्रेयी, लीलावती जैसी ब्रह्मवादिनियों और विदुषियों के देश में स्त्री-शिक्षा का संकट आ चुका था, लेकिन भारतीय जिजीविषा का चमत्कार यही है कि यहां संकट स्थायी नहीं रहते।
वे सामाजिक इच्छाशक्ति के सामने देर सबेर टूट ही जाते हैं। बाबा साहब डा. भीमराव आंबेडकर ने कहा था कि भारतीय समाज के कलेवर और मानस में वह लचीलापन है, जिसके कारण अपने दोषों को दूर करने के लिए संशोधन का स्थान बना ही लेता है। 19वीं सदी में देश में सावित्रीबाई फुले नाम की एक मशाल जली जिसने अपने प्रकाश से अज्ञान के अंधियारे दौर को चुनौती देते हुए स्त्रियों की आधुनिक शिक्षा का एक विशेष उदाहरण प्रस्तुत किया। महाराष्ट्र के सतारा जिले के नईगांव कस्बे में तीन जनवरी, 1831 को जन्मी सावित्रीबाई का मात्र नौ वर्ष की आयु में विवाह कर दिया गया।
बाल विवाह का दुर्भाग्य तो उनके हिस्से आया, लेकिन उनके पति ज्योतिबा के स्पष्ट सुधारवादी सामाजिक सोच के प्रभाव के कारण सावित्रीबाई आगे चल कर अनेक महिलाओं को बाल विवाह से बचाने और उनमें शिक्षा प्राप्त करने की भूख पैदा का माध्यम बनीं। तब एक प्रबल रूढ़ि थी कि महिलाओं को शिक्षित नहीं किया जाना चाहिए और उनका जल्द से जल्द विवाह करके 'बोझ' से मुक्त हो जाना चाहिए। सावित्रीबाई इस रूढ़िवादी सोच के विरुद्ध आवाज उठाईं और अपने द्वारा खोले गए विद्यालय में महिलाओं की शिक्षा की व्यवस्था कीं। जब वह स्कूल में छात्रओं को पढ़ाने जाती थीं तो उनके ऊपर पत्थर फेंके जाते थे।
आज जब हम उनकी जयंती मना रहे हैं तो यह बहुत प्रासंगिक हो जाता है कि देश में महिलाओं की स्थिति पर चिंतन करें। महिलाओं के सशक्तीकरण के लिए सकारात्मक वातावरण बनाने में सभी को अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभानी पड़ेगी। यह भी सत्य है कि यह परिवर्तन केवल महिला के जीवन सुधार से ही नहीं होगा, बल्कि पुरुष वर्ग को भी अपने दृष्टिकोण में व्यापक परिवर्तन करना पड़ेगा।
(लेखक अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के राष्ट्रीय सह-संगठन मंत्री हैं)
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