- Home
- /
- अन्य खबरें
- /
- सम्पादकीय
- /
- भीड़तंत्र, झूठतंत्र,...
कोई नेता देश के विकास के लिए कोई नई बात कहता है, कोई अच्छी बात कहता है और कुछ करके दिखाता है तो उसका समर्थन बढ़ता है। समर्थन बढ़ा है तो नेता के पीछे लगी भीड़ बढ़ती है। भीड़ बढ़ती है तो नेता का गुरूर बढ़ता है। नेता को समझ आने लगता है कि उसकी बातें पसंद की जाने लगी हैं, लोग उससे प्रभावित हो रहे हैं। फिर अगर वह नेता किसी अनजान जगह पर चला जाए, जहां लोग उसे पहचानते न हों तो उसे बड़ा अटपटा लगता है। उसकी नजरें ऐसे लोगों को खोजने लगती हैं जो उसे पहचानते हों। उसे भीड़ की आदत पड़ जाती है। भीड़ उसकी भूख बन जाती है। भीड़, बड़ी भीड़, और बड़ी भीड़! परिणाम यह होता है कि नेता भीड़ को 'पटाने' में व्यस्त हो जाता है। उसे हर हाल में भीड़ चाहिए, बड़ी भीड़ चाहिए। नेता का अपना नज़रिया होता है, नया नज़रिया होता है, इसीलिए वह नेता है, लेकिन भीड़ का अपना मनोविज्ञान होता है। नेता अगर भीड़ के मनोविज्ञान को न समझ पाएं तो नेतागिरी जा सकती है। नेतागिरी बचाए रखने के लिए नेता को भीड़ के मनोविज्ञान को समझना पड़ता है, यह समझना पड़ता है कि भीड़ क्या सुनना और क्या देखना चाहती है, अन्यथा जनता उसे कूड़ेदान में डाल देती है।