सम्पादकीय

कराहती इंसानियत

Subhi
29 April 2021 1:26 AM GMT
कराहती इंसानियत
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समूची दुनिया के सभ्य और मानवीय समाजों में इंसान की मौत के बाद पर्याप्त गरिमा के साथ उसके शव का अंतिम संस्कार करना एक जरूरी रिवायत रही है।

समूची दुनिया के सभ्य और मानवीय समाजों में इंसान की मौत के बाद पर्याप्त गरिमा के साथ उसके शव का अंतिम संस्कार करना एक जरूरी रिवायत रही है। लेकिन अगर किसी वजह से अव्वल तो जीते-जी लोगों की जान बचाने की व्यवस्था नहीं हो और दूसरे कि मौत के बाद भी उनके शव को न्यूनतम सम्मान नहीं दिया जाए तो इसे कैसे देखा जाएगा! यह कल्पना भी दहला देती है कि एक एंबुलेंस में बाईस लोगों के शव भर कर श्मशान ले जाए जाएं, जहां उनका अंतिम संस्कार होना था। लेकिन महाराष्ट्र के बीड़ जिले में कोविड-19 की वजह से जान गंवाने वाले बाईस लोगों के शवों के साथ ऐसा ही किया गया।

जाहिर है, यह किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को झकझोर देने के लिए काफी है कि जिस एक एंबुलेंस में एक शव को ही ठीक से कहीं से पहुंचाना संभव हो पाता है, उसमें इतनी संख्या में शव ले जाए गए। सवाल उठने के बाद बीड़ के अंबाजोगाई में स्थित स्वामी रामानांद तीर्थ ग्रामीण राजकीय चिकित्सा कॉलेज के डीन ने यह सफाई पेश की कि उनके पास पर्याप्त एंबुलेंस नहीं है। समूचे देश के कई शहरों और यहां तक कि राजधानी दिल्ली के उच्च सुविधा वाले अस्पतालों में भी आॅक्सीजन सहित संसाधनों की व्यापक कमी के जैसे मामले सामने आए और जिसकी वजह से बचाए जा सकने वाले काफी लोगों की भी जान चली गई, उसके मद्देनजर बीड़ के अस्पताल के डीन की सफाई हैरान नहीं करती।
सवाल है कि आखिरकार इसके लिए कौन जवाबदेह है और अस्पताल में एंबुलेंस जैसी बुनियादी सुविधा मुहैया कराना किसकी जिम्मेदारी है? करीब साल भर पहले जब विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कोरोना विषाणु से संक्रमण के महामारी होने की घोषणा की, तब से दुनिया भर में हुई तबाही सबके सामने है। लेकिन यह समझना मुश्किल है कि प्राकृतिक आपदाओं से लेकर मानवजनित या किसी भी अन्य वजह से समय-समय आने वाली महामारी और उससे होने वाली तबाही का इतिहास सामने होने के बावजूद उससे सबक लेना हमारी सरकारों ने जरूरी क्यों नहीं समझा और उससे बचाव के लिए समय रहते पर्याप्त इंतजाम क्यों नहीं किया! सरकारों के इस सिद्धांत पर काम करने से ज्यादा अफसोसनाक और क्या हो सकता है कि जब प्यास से व्यापक पैमाने पर लोगों की जान जाने लगे तब कुआं खोदने का काम शुरू किया जाए। क्या इस रास्ते मौजूदा महामारी या अचानक आई किसी आपदा का सामना किया जा सकता है?
दरअसल, जब किसी सरकार में दूरदर्शिता होती है तो वह न केवल वर्तमान की समस्याओं का हल निकालती है, बल्कि भविष्य की चुनौतियों का सामना करने के लिए भी तैयार रहती है। मगर हमारे यहां विडंबना यह है कि जब तक कोई बड़ा हादसा न हो जाए या पानी सिर के ऊपर से न गुजरने लगे, तब तक सरकारों और संबंधित महकमों की नींद नहीं खुलती है। फिलहाल दिल्ली से लेकर सूरत तक के श्मशानों से जैसी तकलीफदेह खबरें और तस्वीरें आ रही हैं, वे बताती हैं कि समूचे स्वास्थ्य ढांचे के खोखलेपन के साथ-साथ इंसान की अंतिम यात्रा भी गरिमा के साथ पूरी नहीं हो पा रही है।

इससे इतर ऐसी घटनाएं भी इंसानी संवेदनशीलता के सामने एक बड़ी चुनौती बन कर खड़ी हो रही हैं कि कोरोना की वजह से हुई मौत के बाद कई जगहों पर लोगों ने शव नहीं जलाने दिया। ऐसे सामाजिक रवैये की वजह से भी इंसानियत कराह रही है। सवाल है कि हमारे जिस समाज में किसी की मौत के बाद सबके पीड़ित परिवार के साथ खड़े हो जाने की परंपरा रही है, उसमें शवों तक को लेकर ऐसी उपेक्षा का भाव किसने भर दिया! समूची व्यवस्था के चरमराने से लेकर संवेदनाओं तक में इस व्यापक छीजन की भरपाई कैसे की जाएगी?
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