सम्पादकीय

तकनीकी संजाल में कराहती किताबें

Subhi
10 May 2022 5:07 AM GMT
तकनीकी संजाल में कराहती किताबें
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भागती दुनिया के साथ बदलते आयामों ने न केवल जरूरत की चीजों को छेड़ा है, बल्कि मानवीय आदतों में भी हेरफेर कर डाला है।

Written by जनसत्ता: भागती दुनिया के साथ बदलते आयामों ने न केवल जरूरत की चीजों को छेड़ा है, बल्कि मानवीय आदतों में भी हेरफेर कर डाला है। कुछ समय पहले जब मुझे विभिन्न प्रकाशकों एवं वितरकों की दुनिया से गुजरना पड़ा, तब पता चला कि कैसे आज की पीढ़ी किताबों से लगातार दूर होती जा रही है। लगभग सबने यही बताया कि आज किताब कोई नहीं पढ़ता है, इसलिए कितनी ही पत्र-पत्रिकाएं बंद हो गर्इं और प्रकाशन भी ठप पड़ गए। यह भी सुनने को मिला कि आज के युग में पहले की तरह किताबों के प्रति आग्रह समाप्त हो रहा है। अब केवल कुछ फीसद लोग ही किताब पढ़ते हैं, बाकी दुनिया अपने स्मार्टफोन के साथ व्यस्त है।

आज से दो दशक पहले लोग किताबें खरीदते थे और उन्हें संजो कर रखते भी थे। बच्चों में किताबों के प्रति प्रेम होता था, पुस्तकालयों में उपन्यासों के बीच युवा बैठे मिलते थे। अब ऐसा नहीं हो रहा है। इसे क्या कहा जाए, यह भी समझ पाना कठिन है। मैं यहां खासकर उन बच्चों और युवाओं की बात करना चाहती हूं, जिन्हें हाथ में किताब लेकर पढ़ना नागवार लगता है।

पढ़ाई भी जिनके लिए 'डिजिटल इंडिया' का ही एक प्रसाद है। सादे कागज पर काले रंगों की कलाकारी और दो मोटे गत्तों के बीच कुछ पन्नों को बांध कर रखती पद्धति यानी किताब आज के दौर में जगह नहीं बना पा रही है। इस किताब को अब 'डिजिटल वर्ल्ड' में दाखिला लेने के लिए अपना रूप बदलकर पीडीएफ संस्करण आदि बनना पड़ रहा है, ताकि भविष्य को संवारने वाले कम से कम इनसे रूबरू हो सकें। हालांकि यह तकनीकी उन्नति है, लेकिन यह विकास कितने मायने में हितकर है, यह समझ पाना मेरी बुद्धि से बाहर है। द्रुतगति से दौड़ती तकनीक का अनुसरण करना भी आवश्यक है। ऐसा नहीं हो तो हम पीछे रह जाते हैं, लेकिन अगर अपने नाभि से ही उखड़ जाएं तो हमारा पोषण भी संभव नहीं हो पाएगा। आखिर इसका विकल्प क्या है?

आज हर घर में स्मार्टफोन है और यह केवल फोन ही नहीं, स्कूल, दफ्तर, कचहरी के सभी कागजों आदि की जिम्मेदारी उठाए आपके अभिन्न हिस्से के तौर पर आपके साथ है। जो बची-खुची कसर थी, वह कोरोना काल ने पूरी कर दी। घर में स्कूली बच्चे भी पढ़ाई के लिए फोन में घुसे रहने लगे थे। पाठ्यक्रम की किताबों ने जो थोड़ी बहुत अपनी जगह बना रखी थी, वह भी इस दौरान स्मार्टफोन या टैबलेट के स्क्रीन में घुस गई। क्या भला हुआ, यह तो पता नहीं, पर बुरा ये हुआ कि अब स्कूल खुलने के बाद भी फोन पढ़ाई का साधन और जरूरत दोनों बन गया है। इसने आखिरकार बच्चों को किताबों से दूर किया है।

यह बात भी चिंताजनक लगती है कि वर्तमान में युवा किताबों को हाथ में लेकर नहीं पढ़ते हैं। उन्हें जो भी पढ़ना होता है, उसे फोन में डाउनलोड कर लेते हैं और पढ़ते हैं। इस प्रक्रिया में वे पुस्तकालय आदि जाना तो जैसे भूलते ही जा रहे हैं। मेरा मानना है कि किताब का एक अस्तित्व होता है। जब हम किसी किताब को हाथ में उठाते हैं तो उसके साथ ही विद्या के उस स्पर्श को भी पाते हैं जिससे हमारा विवेक पुलकित हो जाता है। कोई उपन्यास, कविता-कहानी संग्रह, आत्मकथा, नाटक आदि विधाओं की किताबों को जब हम हाथ में लेते हैं, उसे खोलते, निहारते और पढ़ते हैं तो वह सीधे तौर पर हमारे हृदय से जुड़ जाता है।

आशय यह कि भाव का जो संचार होता है उससे हम पूरी तरह ओत-प्रोत हो जाते हैं। हालांकि फोन में किसी कहानी के पीडीएफ को पढ़कर भी व्यक्ति में भाव विकसित होंगे, लेकिन हृदय के पट तक किताब और अक्षरों का स्पर्श नहीं पहुंच पाएगा। हाथ से लिखना, हाथ में किताब लेकर पढ़ना, हमें उसकी अभिव्यक्ति के करीब लाती है। इसलिए इस पुरातन रीति में विज्ञान भी छिपा हुआ था, इसलिए यह मान लेना कि किताब पढ़ना 'ओल्ड फैशन' हो गया है, सरासर गलत है। आज भी यह उतनी ही प्रासंगिक है, जितनी पुराने समय में हुई करती थी। यही कारण है कि हमलोगों को घर के बुजुर्ग सिखाया करते थे कि किताब को सिर पर कभी नहीं रखते उन्हें हृदय से लगा कर रखा जाता है। यानी किताब बोझ नहीं, बल्कि प्रेम है।

किसी व्यवस्था या पद्धति में परिवर्तन लाना गलत नहीं है, लेकिन उसकी उपयोगिता कब और कैसे सुनिश्चित की जाए, यह महत्त्वपूर्ण है। सुखद है कि हम अपनी हथेली में दुनिया लिए घूम रहे हैं, लेकिन यह भी दुखद है कि अगर हथेली से यह दुनिया फिसल जाए तो हम असहाय हो जाते हैं। इसका एकमात्र कारण यह है कि हम वास्तविक को छोड़ कर आभासी के पीछे भाग रहे हैं। सादे पन्नों पर लिखे एक-एक अक्षर हमें अनगिनत चीजें सिखा जाते हैं। इसलिए बच्चों एवं युवाओं को किताब के वास्तविक रूप को समय देना चाहिए, ताकि वे अपनी मिट्टी से और भी जुड़ सकें।


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