- Home
- /
- अन्य खबरें
- /
- सम्पादकीय
- /
- 1971 में विजय के...
जनता से रिश्ता वेबडेस्क। आजादी के पहले और उसके उपरांत हम भारत के लोग संविधान के अतिरिक्त ऐसी धुर भारतीय सोच विकसित करने में नाकाम रहे जो आधुनिक परिप्रेक्ष्य में भारतीयता का एक स्थिर दर्शन व परिभाषा प्रतिपादित करती। हम अब कहीं जाकर राष्ट्रीय हित की दिशा में चले हैं। समझौतापरस्त राजनीति वास्तव में विभाजनकारी सोच के लोगों को भी सत्ता में ले आती है। यह देश उसका प्रतिरोध नहीं करता, बल्कि उसे बर्दाश्त करता है। समय-समय पर इसके प्रमाण मिलते रहे हैं। साल 1971 भी ऐसा ही एक पड़ाव था जब हमें महान विजय प्राप्त हुई, जिसमें हमने द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत को दफन किया था। वह एक सैन्य विजय के साथ महान वैचारिक विजय भी थी। बस एक और कदम की दरकार थी कि कश्मीर विवाद समाप्त हुआ होता। हम पाकिस्तान के विचार को ध्वस्त कर देते। 1971 में गंवाए इस अवसर ने राजनेता इंदिरा गांधी के नजरिये की सीमाएं स्पष्ट कर दीं। शायद नेताओं की जमात सत्ता हित से आगे सोच भी नहीं पाती।
1971 का युद्ध यदि कश्मीर-मुक्ति का मुख्य लक्ष्य लेकर चला होता तो...