- Home
- /
- अन्य खबरें
- /
- सम्पादकीय
- /
- भारत में अल्पसंख्यक और...
x
एक पंथनिरपेक्ष राष्ट्र के रूप में भारत ने सदैव सभी विश्वासों के प्रति सहिष्णुता दर्शाने वाले उदारवादी सिद्धांतों को महत्व दिया है
सीबीपी श्रीवास्तव।
एक पंथनिरपेक्ष राष्ट्र के रूप में भारत ने सदैव सभी विश्वासों के प्रति सहिष्णुता दर्शाने वाले उदारवादी सिद्धांतों को महत्व दिया है। यही उदारवादी सिद्धांत भारत की विविध संस्कृति और उसकी अखंडता का प्रदर्शन भी करते हैं और निसंदेह इस अखंडता को बनाए रखने में सहायक रहे हैं। लेकिन हाल के दशकों में व्यक्तिवादी मनोवृत्तियों के उभरने और उनके प्रसार के कारण कई अवसरों पर अंतर-सांस्कृतिक संघर्षों को बल मिला है और ऐसी स्थिति को आलोचकों ने कई बार 'असहिष्णुता की एक संस्कृतिÓ भी कहा है।
ध्यातव्य हो कि भारत का संविधान प्रत्यक्ष रूप से प्रतिष्ठा और अवसर की समानता का प्रविधान करता है और बंधुत्व के सिद्धांत पर व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता एवं अखंडता सुनिश्चित करता है। इसके बावजूद कई समूह राजनीतिक मनोवृत्तियों से प्रभावित होकर वैयक्तिक राजनीतिक लाभ लेने की मंशा से भारत की विविध और बहुवचनीय संस्कृति का अनुचित लाभ लेने का प्रयास करते हैं। इसके लिए ऐसे समूह समाज को जाति या भाषा या धर्म के आधार पर बांटने का कार्य करते हैं जिसके कारण समुदायों में घृणा की भावना विकसित होती है जो सांप्रदायिकता को जन्म देती है।
यह सत्य है कि कोई राष्ट्र तभी अखंड बना रह सकता है जब वह कमजोर एवं बहिष्कृत वर्गों और अल्पसंख्यकों को सुरक्षा प्रदान करे। इसी आधार पर संविधान ने सभी व्यक्तियों को धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार समान रूप से दिया है। साथ ही, सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, राजनीतिक और भाषाई आधारों पर विभेद रोका है, ताकि भारत में विधि के शासन द्वारा विधिक और नैसर्गिक, दोनों ही प्रकार का न्याय उपलब्ध कराया जा सके।
अल्पसंख्यक शिक्षा संस्था अधिनियम : हाल ही में राष्ट्रीय अल्पसंख्यक शिक्षा संस्था अधिनियम 2004 की धारा 2 (एफ) की वैधता को चुनौती दी गई है जिसने इस विषय को विवादास्पद बना दिया है। याचिका में यह कहा गया है कि अधिनियम की यह धारा प्रभाव में स्वेच्छाचारी, अतार्किक और आक्रामक है। याचिका में यह भी उल्लेख है कि अल्पसंख्यक शब्द की स्पष्ट परिभाषा नहीं दिया जाना संविधान की संरचनात्मक कमी है। अधिनियम की यह धारा संघ सरकार को भारत में अल्पसंख्यकों की पहचान करने और उन्हें अधिसूचित करने की शक्ति देती है। दूसरी ओर, राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम 1992 की धारा 2 (सी) भी संघ सरकार को अल्पसंख्यकों की पहचान करने की शक्ति देती है। इसी शक्ति का प्रयोग कर सरकार ने 1993 में मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौद्ध तथा पारसी समुदाय को अल्पसंख्यक समुदाय घोषित किया था। वर्ष 2014 में जैन समुदाय को भी अल्पसंख्यक समुदाय के रूप में अधिसूचित किया गया। हाल ही में दायर याचिका में यह मांग की गई है कि कई राज्यों में बहाई, हिंदू और यहूदी समुदाय अल्पसंख्यक हैं, अत: उन्हें भी यह दर्जा दिया जाना चाहिए। उदाहरण के लिए, महाराष्ट्र सरकार ने यहूदियों को राज्य में अल्पसंख्यक घोषित किया है। इसी प्रकार, कर्नाटक ने उर्दू, तमिल, तेलुगु, मलयालम, मराठी, तुलु, हिंदी, कोंकणी तथा गुजराती भाषाओं को राज्य में अल्पसंख्यक भाषा के रूप में मान्यता दी है। केंद्र सरकार ने इस याचिका की अनुक्रिया में कहा है कि इससे किसी समुदाय को अल्पसंख्यक घोषित करने की संघ की शक्ति का क्षरण नहीं होता।
इस पृष्ठभूमि में अल्पसंख्यकों के संदर्भ में संविधानिक योजना पर विचार करने के अतिरिक्त संघ और राज्यों द्वारा विधि निर्माण के परिसंघीय सिद्धांतों पर भी विचार करना उपयुक्त होगा। भारत के संविधान में 'अल्पसंख्यकÓ शब्द परिभाषित नहीं है, लेकिन अनुच्छेद 29 (1) में ऐसे समुदायों की पहचान के आधारों का उल्लेख है। ये आधार हैं भाषा, लिपि या संस्कृति। अनुच्छेद 29 (1) की विशेषता यह है कि इसके प्रविधान सामान्य रूप से नागरिकों के सभी वर्गों जिनकी विशिष्ट भाषा, लिपि या संस्कृति है, उन पर लागू हैं और विशेष रूप से अल्पसंख्यक समुदाय के शैक्षणिक और सांस्कृतिक अधिकारों का संरक्षण करते हैं। इसके अतिरिक्त, अनुच्छेद 29 के खंड (2) में शिक्षा संस्थाओं में प्रवेश के लिए केवल धर्म, मूलवंश, जाति या भाषा के आधार पर विभेद रोका गया है। विभेदीकरण पर रोक लगाने के कारण इसे अनुच्छेद 15 (1) का विस्तार भी कहा जाता है। दूसरी ओर, अनुच्छेद 30 (1) में सभी भाषाई और धार्मिक अल्पसंख्यकों को अपनी रुचि की शिक्षा संस्था स्थापित करने का अधिकार है।
इस अनुच्छेद की भाषा से कई बार यह उलझन हो सकती है कि कदाचित संविधान ने धर्म के आधार पर अल्पसंख्यकों की पहचान का प्रविधान किया है। लेकिन यह सत्य नहीं है। वस्तुत: यदि भाषा पर गौर किया जाए तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि जिन समुदायों को भाषा, लिपि या संस्कृति के आधार पर अल्पसंख्यक घोषित किया गया है, उनमें भाषा या धर्म के आधार पर विभेद नहीं किया जा सकता।
एक अन्य विशेष बात जो ध्यान देने योग्य है वह यह है कि अनुच्छेद 29 तथा 30 एक-दूसरे से स्वतंत्र हैं। जहां अनुच्छेद 29 के प्रविधान केवल अल्पसंख्यकों तक सीमित नहीं, बल्कि सभी नागरिकों पर प्रभावी हैं, वहीं अनुच्छेद 30 यह स्पष्ट करता है कि ये प्रविधान केवल उन अल्पसंख्यक वर्गों तक सीमित नहीं हैं, जिनकी पहचान भाषा, लिपि या संस्कृति के आधार पर हुई है, बल्कि उन पर भी लागू होंगे जिनका अपना कोई विशिष्ट धर्म है। निश्चित रूप से यदि धर्म को अल्पसंख्यकों की पहचान का आधार बना दिया जाए तो यह अनुच्छेद 15 (1) का उल्लंघन होगा, क्योंकि यह धर्म के आधार पर विभेद का एक उदाहरण होगा।
अल्पसंख्यकों के लिए शिक्षा : यहां प्रश्न यह है कि अल्पसंख्यकों द्वारा किस प्रकार की शिक्षा संस्था स्थापित की जानी चाहिए? अनुच्छेद 30 (1) में अपनी रुचि की शिक्षा संस्था स्थापित करने का अर्थ यह नहीं है कि उसमें केवल उनके धर्म की या उनकी भाषा में शिक्षा दी जाए। यह इस अधिकार में शामिल नहीं है। इस अनुच्छेद का उद्देश्य इन वर्गों में आत्मविश्वास जगाना है कि भारत में पंथ निरपेक्षता उनके साथ किसी भी प्रकार के विरोध को रोकेगी और उनके साथ असमान व्यवहार नहीं होगा। हालांकि वे अपनी भाषा, लिपि या संस्कृति का संरक्षण करने का कार्य करेंगे, लेकिन साथ ही ऐसी शिक्षा संस्था में सामान्य रूप से भी शिक्षा दी जाएगी। इसके अतिरिक्त, उनके बच्चों के साथ शिक्षा के क्षेत्र में कोई विभेद नहीं होगा।
परिसंघीय संवैधानिक योजना के अनुसार यह प्राथमिक रूप से भाषा, लिपि या संस्कृति पर आधारित होना चाहिए। यदि हिंदुओं को जो देश में बहुसंख्यक हैं, अल्पसंख्यक का दर्जा दिया जाता है तो इससे समाज में विखंडनकारी ताकतों को बल मिलेगा, क्योंकि देश के अन्य राज्यों में रहने वाले हिंदू इस सुविधा या अधिकार से वंचित होंगे और यह समानता के सिद्धांत के विरुद्ध होगा। यह भी आशंका होगी कि अंतर-सामुदायिक या अंतर-जातीय संघर्षों में वृद्धि हो। यह भी विदित है कि यदि केवल जनसंख्या को आधार बनाया जाए तो यह गंभीर चिंता का भी विषय होगा। कारण यह कि किसी राज्य में ऐसी स्थिति भी हो सकती है कि किसी भी भाषाई या धार्मिक समुदाय की जनसंख्या कुल जनसंख्या के 50 प्रतिशत नहीं हो।
याचिका की अनुक्रिया के रूप में संघ सरकार ने यह स्पष्ट किया है कि हालांकि राज्य को अल्पसंख्यक का दर्जा देने के लिए कानून बनाने की शक्ति है, लेकिन इससे संसद की शक्ति का अपरदन नहीं होता। सरकार ने यह कहा है कि इस विषय पर कानून बनाने की शक्ति समवर्ती शक्ति है जिसकी व्याख्या अनुच्छेद 246 को समवर्ती सूची की प्रविष्टि 20 के साथ पढ़ कर होती है। अत: राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम 1992 अतार्किक या स्वेच्छाचारी नहीं है। लेकिन यदि यह विचार कि इस विषय पर केवल राज्य को कानून बनाने की शक्ति है, उसको स्वीकार कर लिया जाए तो यह संसद की शक्ति का क्षरण और अपरदन होगा और यह भारत के एकात्मक परिसंघीय ढांचे की संवैधानिक योजना के विरुद्ध होगा।
अब प्रश्न यह है कि इस विषय पर किसे कानून बनाना चाहिए? यह केवल परिसंघीय सिद्धांत का हिस्सा नहीं है, बल्कि यह भारत के सामाजिक-सांस्कृतिक चरित्र का एक अहम पहलू है जिसका संरक्षण भारत की पंथ निरपेक्ष प्रकृति के लिए और सांप्रदायिक ताकतों पर अंकुश लगाने के लिए अनिवार्य है। संघ और राज्य की समवर्ती शक्ति का प्रयोग सदैव सामाजिक सौहार्द के लिए किया जाना चाहिए, न कि अंतर-सांस्कृतिक राजनीति के लिए। व्यक्तिवाद के इस दौर में जो मूलत: बाजार के व्यवहार और मुनाफा केंद्रित दृष्टिकोण से प्रेरित है, राष्ट्र की अखंडता के समक्ष गंभीर चुनौतियां हैं। इस संदर्भ में कोई भी कदम जो अंतर-सांस्कृतिक विरोध उत्पन्न कर सकता हो, भारत जैसे विविधतापूर्ण देश के लिए अत्यंत हानिकारक सिद्ध होगा और इसकी सदियों पुरानी सांस्कृतिक विरासत के सबसे सुदृढ़ मूल्य सहिष्णुता को क्षतिग्रस्त करेगा।
राज्य को ही अल्पसंख्यक का दर्जा देने का अधिकार। उच्चतम न्यायालय ने केरल शिक्षा विधेयक 1957 के संदर्भ में अनुच्छेद 143 के तहत राष्ट्रपति द्वारा राय मांगे जाने पर पूर्व में यह कहा था कि किसी भी धार्मिक अल्पसंख्यक वर्ग द्वारा संचालित शिक्षा संस्था में धार्मिक शिक्षा नहीं दी जाएगी, बल्कि संविधान ऐसी शिक्षा संस्थाओं में भी पंथनिरपेक्ष सामान्य शिक्षा का संरक्षण करता है। धार्मिक शिक्षा की व्याख्या करते हुए उच्चतम न्यायालय ने डीएवी कालेज बनाम पंजाब राज्य 1971 मामले में यह कहा कि किसी भी धर्म के गुरु या दार्शनिकों या पैगंबरों के विचारों को धार्मिक शिक्षा के अर्थ में शामिल नहीं किया जाएगा, क्योंकि ऐसे विचार समाज को प्रगतिशील बनाते हैं और सौहार्द को बढ़ावा देते हैं। केवल धार्मिक आचरणों को ही इसके अर्थ में शामिल किया जा सकता है। इसी मामले में न्यायालय ने यह भी कहा कि चूंकि हिंदू देश में बहुसंख्यक हैं, अत: उन्हें किसी राज्य में अल्पसंख्यक का दर्जा नहीं दिया जा सकता।
भारत में न्यायालयों ने समय-समय पर यह अभिनिर्धारित किया है कि किसी समुदाय को अल्पसंख्यक का दर्जा देने के लिए राज्य को ही इकाई बनाना चाहिए। टीएमए पाई फाउंडेशन बनाम कर्नाटक राज्य 2002 मामले में यह तर्क दिया गया कि हालांकि राज्य ही अल्पसंख्यक की पहचान करने वाली इकाई है, लेकिन इससे राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम 1992 की धारा 2 (सी) प्रभावित नहीं होती। इस मामले में न्यायालय ने स्पष्ट किया कि अनुच्छेद 29 और 30 के प्रविधान अल्पसंख्यकों के परिरक्षण और संरक्षण के लिए हैं, न कि ऐसी अतिरिक्त सुविधा प्रदान करने के लिए जिनसे समाज में असमानता आती हो।
यहां यह उल्लेख तार्किक होगा कि यदि हिंदुओं के विभिन्न पंथों या वर्गों को अनुच्छेद 30 (1) के तहत अल्पसंख्यक का दर्जा दिया जाएगा तो इससे छोटे-बड़े कई वर्गों, समूहों या समुदायों का निर्माण हो जाएगा और हिंदू देश में बहुसंख्यक नहीं रह जाएंगे। याचिका में दावा किया गया है कि बहाई, यहूदी और हिंदू कई राज्यों में अल्पसंख्यक हैं, क्योंकि उनकी जनसंख्या 50 प्रतिशत से कम है।
Rani Sahu
Next Story