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सम्पादकीय
पाकिस्तान में खत्म होते अल्पसंख्यक, निचले दर्जे का नागरिक मान जारी है दमन
Manish Sahu
25 Aug 2023 6:26 PM GMT
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सम्पादकीय: विश्व में कई प्रगतिशील देश अपने समाज में विविधताओं से भरे धार्मिक एवं सांस्कृतिक विचारों का सम्मान करते हैं तथा सभी पंथों और विचारों को बराबर देखते हैं। इसके विपरीत पाकिस्तान में वहां के मुट्ठी भर अल्पसंख्यकों के प्रति द्वेष, घृणा एवं दमन की भावना निरंतर बढ़ रही है। वहां एक बार फिर इस्लाम के विरुद्ध ईशनिंदा के आरोप में ईसाई समुदाय के साथ घृणित व्यवहार देखने को मिला। ईसाई समुदाय के दो युवकों पर ईशनिंदा का झूठा आरोप लगाकर फैसलाबाद में तमाम गिरजाघरों और ईसाइयों के घरों में तोड़-फोड़ और आगजनी की गई। ईसाइयों के खिलाफ भड़की हिंसा ने दिल दहला दिया।
यह बहुत निराशाजनक है कि पाकिस्तान में ईशनिंदा के झूठे आरोपों के कारण निर्दोष अल्पसंख्यकों को उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है और कभी-कभी तो उनकी जान भी ले ली जाती है। दशकों से हम यह देख रहे हैं कि पाकिस्तान में उग्र भीड़ कानून व्यवस्था की धज्जियां उड़ाते हुए ईशनिंदा के आरोपित व्यक्ति अथवा समुदाय को खुद ही निशाना बनाने में जुट जाती है। आसिया बीबी (आसिया नोरेन) का मामला ऐसे मामलों का सबसे चर्चित प्रकरण रहा। ईसाई महिला आसिया बीबी को न केवल जेल जाने के साथ कष्टमय जीवन जीना पड़ा, बल्कि उनके समर्थन में आए एक नेता सलमान तासीर की हत्या कर दी गई और वह भी उनके सुरक्षाकर्मी द्वारा। सलमान तासीर के हत्यारे को जब फांसी दी गई तो उसके जनाजे में हजारों लोग उमड़े।
पाकिस्तान में ईशनिंदा के आरोप में अल्पसंख्यकों को सताने के हाल में सैकड़ों मामले आए हैं। ईशनिंदा के आरोपों के बहाने वहां अल्पसंख्यकों का निरंतर दमन हो रहा है। सबसे ज्यादा निराशाजनक बात यह है कि पाकिस्तान सरकार इन घटनाओं की केवल निंदा करके अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेती है। इसका कारण यह है कि करीब 97 प्रतिशत मुस्लिम आबादी वाला यह देश अपने यहां के अल्पसंख्यकों को निचले दर्जे का नागरिक मानता है, अन्यथा वह कानून हाथ में लेने वालों को अवश्य ही कठोर दंड का भागीदार बनाता।
वास्तव में इस्लामी सिद्धांतों की मनमानी व्याख्या ने इस गलत अवधारणा को बढ़ावा दिया है कि इस्लाम गैर-मुसलमानों के प्रति शत्रुता को बढ़ावा देता है। इस्लाम अन्य विचारधाराओं के प्रति शत्रुता की वकालत नहीं करता। दुर्भाग्य से इस्लाम की मान्यताओं की गलत व्याख्या करके अन्य धर्म-मजहब वाले लोगों के प्रति दुश्मनी और दुर्भावना पैदा की जाती है। इसी कारण कई इस्लामी देशों में ईशनिंदा कानूनों को अपनाया गया है। कुरान की ऐसी कोई आयत नहीं है, जो गैर-मुस्लिम समूहों के खिलाफ आक्रामकता की वकालत करती हो। इस्लाम की गलत व्याख्या करने से लोग इस्लाम के मूल इरादों से भटक जाते हैं।
यह विचित्र है कि जहां पाकिस्तान सरकार अपने अल्पसंख्यकों के दमन की घटनाओं के प्रति उदासीन दिखती है, वहीं मानवाधिकार की पैरवी करने वाले प्रतिनिधि और संगठन भी पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों की दयनीय दशा पर मौन धारण किए रहते हैं। पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों द्वारा झेले जाने वाले गंभीर अत्याचारों पर तमाम देशों की चुप्पी भी बहुत खलती है। पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों के दमन और उत्पीड़न के मामलों की वैश्विक स्तर पर जांच की जानी चाहिए और मानवाधिकार की वकालत करने वालों को पाकिस्तान में अल्पसंख्यक आबादी की गरिमा और जीवन की रक्षा के लिए एकजुट होकर सवाल उठाने चाहिए।
अगस्त 1947 में भारत विभाजन के बाद दो अलग स्वतंत्र राष्ट्र अस्तित्व में आए। एक ने अपने नागरिकों की समानता को महत्व देते हुए लोकतांत्रिक-पंथनिरपेक्ष राज्य का रास्ता चुना, जबकि दूसरे ने इस्लामी मान्यताओं को स्थापित कर लोकतांत्रिक राज्य का विकल्प चुना। दूसरे राज्य यानी पाकिस्तान के कानूनी ढांचे ने वहां मौजूद अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न का मार्ग प्रशस्त कर दिया। इसके विपरीत भारत सभी पंथों की समानता और सबके लिए बराबर कानूनों के माध्यम से उनकी गरिमा की रक्षा के प्रति अपनी प्रतिबद्धता के साथ ‘सबका साथ-सबका विकास’ के मार्ग पर अग्रसर है।
ईशनिंदा कानून के लिए पाकिस्तान ने मृत्युदंड का प्रविधान कर रखा है। इस कानून को लागू करने से पाकिस्तान के हर स्वतंत्र विचार रखने वाले नागरिक को कहीं न कहीं अपनी स्वतंत्रता से जूझना पड़ रहा है या फिर उग्र भीड़ से मुकाबले में जान एवं माल की क्षति सहनी पड़ रही है। इनमें कुछ मुसलमान भी हैं। एक भारतीय चिंतक आमना बेगम अंसारी ने पाकिस्तान या उस जैसे धार्मिक कट्टरवादी विचारों वाले देशों के दुर्भाग्य को बहुत ही स्पष्टता से दर्शाया है। उन्होंने भारत में जन्म लेने के लिए आभार व्यक्त किया है। पंथनिरपेक्ष भारत अपने नागरिकों को खुले तौर पर अपने विचार और राय व्यक्त करने की आजादी देता है, जबकि पाकिस्तान इस आदर्श से बहुत पीछे रह गया है, जिसके कारण कई उदार मुसलमानों और गैर-मुस्लिम अल्पसंख्यकों को विदेश में शरण लेनी पड़ती है।
भारत में भी किसी के प्रति हिंसा को उकसाने वाली दुर्भावना व्यक्त करने को लेकर एक कानून है, परंतु लोकतांत्रिक भारत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को प्राथमिकता देता है। भारत में इस कानून के तहत लोगों को ऐसा कोई अधिकार नहीं, जो यहां के अल्पसंख्यकों को हानि पहुंचाए। इसी कारण आज भारत सह-अस्तित्व के मामले में पूरे विश्व के लिए एक उदाहरण बना है, वहीं पाकिस्तान अपने ही अल्पसंख्यकों के लिए कारागार बनकर रह गया है। पाकिस्तान बनने के समय वहां 20 प्रतिशत से अधिक हिंदू-ईसाई आदि थे, पर आज वे बमुश्किल तीन प्रतिशत भी नहीं रह गए हैं। इससे यही पता चलता है कि पाकिस्तान किस तरह अपने यहां के अल्पसंख्यकों के सफाए में जुटा है।
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