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क्षमा शर्मा: इससे पहले अमेरिका में अठारह साल के एक किशोर ने एक स्कूल पर हमला कर उन्नीस बच्चों को मार डाला था। आक्रमण करने से पहले उसने 'आनलाइन' चेतावनी भी दी थी कि वह एक नामी स्कूल पर धावा बोलने जा रहा है। यही नहीं, इससे पहले उसने अपनी दादी को भी मार दिया था। अपने घर से अस्सी किलोमीटर दूर जाकर, उसने इन घटनाओं को अंजाम दिया। वह लड़का सिर्फ कक्षा चार तक पढ़ा था। इससे पहले इसकी कोई आपराधिक पृष्ठभूमि भी नहीं थी।
अमेरिका में ही उससे दस दिन पहले, एक श्वेत ने अश्वेत लोगों के इलाके में बने एक माल पर हमला करके तेरह लोगों को मार दिया था। अमेरिका के बारे में कहा जाता है कि वहां जितनी आबादी है, उसके मुकाबले हथियारों की संख्या लगभग दोगुनी है। कई बार बच्चे अपने बस्ते में हथियार लेकर चले जाते हैं।
हथियार कारोबारियों का वहां दबदबा इतना तगड़ा है कि कोई दल या राष्ट्र प्रमुख चाहे भी तो उस पर रोक नहीं लगा सकता। रिपब्लिकन पार्टी हथियारों पर रोक का हमेशा विरोध करती है। वहां लोग यह भी कहते हैं कि हथियारों पर रोक का कानून बन भी जाए तो उससे कुछ नहीं होगा। लोगों के मानसिक स्वास्थ्य पर नजर रखनी चाहिए। हालांकि जिन लोगों ने स्कूलों पर गोलीबारी की, उनके मानसिक स्वास्थ्य के बारे में शायद ही किसी को पता था। पता होता भी तो यह कैसे जाना जा सकता था कि वे कब नन्हे बच्चों को मौत के घाट उतार देंगे। कोई यह भी नहीं बताता कि जो हथियार अपनी सुरक्षा के लिए हैं, उनका कहर अधिकतर स्कूलों और निरपराध लोगों पर ही क्यों टूटता है।
जिस अठारह साल के लड़के ने उन्नीस बच्चों को मारा, उसके पास अर्धस्वचालित बंदूक आई कैसे। यूनिसेफ के अधिकारी ऐसी घटनाओं पर दुख प्रकट करते रहते हैं। संयुक्त राष्ट्र भी स्कूलों पर आक्रमण की निंदा कर चुका है। मगर ऐसे रस्मी दुखों से बच्चों की जान नहीं बचती। यह भी कहा जाता है कि अमेरिका में शायद ही कोई ऐसा दिन होगा, जब इस तरह की घटनाएं किसी न किसी इलाके में न घटती हों। 1999 से पहले स्कूलों में गोलीबारी की घटनाएं अक्सर नहीं सुनी जाती थीं। होती भी थी तो एकाध की मौत होती थी। मगर तब से अब तक स्कूलों-कालेजों में ऐसी घटनाएं खूब होने लगी हैं। इन घटनाओं में मरने वालों की संख्या बढ़ती ही जा रही है।
ऐसी अधिकांश घटनाओं में मारने वालों के मन में खुद को खत्म कर लेने की भी इच्छा थी, तभी हत्याओं के बाद उन्होंने आत्महत्या भी की। यही नहीं, बहुतों ने अपने परिजनों को भी मारा। जिंदगी से ऐसी भी क्या नफरत थी कि न दूसरों को जीने दो, न खुद जियो। आखिर इन लोगों के ऊपर क्या गुजरी कि उन्हें अपनी जिंदगी के साथ, दूसरों की जिंदगी को भी लेने का खयाल आया। वह भी स्कूलों में। पाकिस्तान, मैक्सिको, अफगानिस्तान, यूक्रेन में भी ऐसी घटनाएं होती रहती हैं। अस्पतालों पर भी आक्रमण की खबरें आती हैं। जबकि कहा जाता है कि युद्ध के दिनों में भी अस्पतालों और स्कूलों पर आक्रमण नहीं किए जाते।
बच्चों पर ऐसे आक्रमण की घटनाएं बढ़ती ही जा रही हैं। शायद इसका एक बड़ा कारण यह है कि ऐसे अपराधी चाहते हैं कि वे ऐसा कुछ करें जिससे न सिर्फ लोगों का ध्यान खिंचे, बल्कि उनमें दहशत भी पैदा हो। जाहिर है कि बच्चों पर हमले से दुनिया भर के माता-पिता अपने बच्चों की सुरक्षा के लिए चिंतित होते हैं। बहुत से माता-पिता बच्चों को स्कूल भेजने से डरते हैं। जो बच्चे ऐसे हमलों में बच जाते हैं, उनमें भी इतना डर समा जाता है कि वे स्कूल नहीं जाना चाहते। यह डर कोई झूठा भी नहीं है।
आखिर जब स्कूलों पर इतनी गोलीबारी होती है, तो क्यों नहीं ऐसे इंतजाम किए जाते कि स्कूल में कोई अपरिचित घुस न सके। कोई जबर्दस्ती घुसने की कोशिश करे, तो फौरन उसे पुलिस के हवाले किया जाए। स्कूल में आने से पहले छात्रों की जांच की जाए कि कोई हथियार या ऐसी कोई भी चीज लेकर न आया हो, जो दूसरों को नुकसान पहुंचा सके।
दरअसल, पश्चिम का वह विचार आड़े आता है, जो बच्चों को किसी भी बात पर न टोकने का हिमायती है। अगर आप माता-पिता या अध्यापकों की हैसियत से बच्चों को सही-गलत नहीं बताएंगे तो हो सकता है, कोई और उनका शिक्षक और राय देने वाला बन जाए। टीवी, सोशल मीडिया तथा ऐसे ही अन्य माध्यम, जिन तक बच्चों की आसानी से पहुंच है, वे उसके अध्यापक, शिक्षक, राय देने वाले बन सकते हैं। वे क्या सलाह दे रहे हैं, इसकी कानोकान खबर घर वालों को नहीं होती। शायद इसीलिए ऐसे अपराधों को अंजाम देने वाले सबसे पहले अपने घर वालों को, परिजनों को, खत्म करते हैं, फिर स्कूलों या अन्य स्थानों की तरफ धावा बोलते हैं।
कैसा है अमेरिकी समाज, जिसे अपने विकसित होने पर बड़ा गर्व है। जो मानवाधिकारों के नाम पर दुनिया भर में अपनी व्यापारिक शर्तें थोपता है, वहां अपने ही बच्चों और नागरिकों को सुरक्षा नहीं दी जाती। एक समाज, जो स्वयं को इतना सुशिक्षित, सभ्य कहता है, आखिर वह इतना असुरक्षित कैसे है कि हर एक व्यक्ति को एक के मुकाबले, दो हथियारों की जरूरत पड़े। वहां रहने वाले लोग कहते हैं कि बाजार से हथियार बहुत आसानी से खरीदे जा सकते हैं।
चिंताजनक यह भी है कि थाईलैंड जैसा देश, जहां पर्यटक बड़ी संख्या में जाते हैं, वहां भी ऐसी घटनाएं होने लगीं। हिंसा के प्रति यह कैसा नजरिया है, जो हमें उन पर हमला करने को प्रेरित करता है, जिन्होंने दुनिया में अभी आंखें ही खोली हैं। बच्चों ने दुनिया का क्या बिगाड़ा है, जो वे इस तरह मारे जाएं। यों तो कोई भी क्यों मारा जाए, लेकिन बच्चों पर हमला बहुत दुख से भरता है। बच्चे सुरक्षित नहीं, तो कौन है, जिसकी सुरक्षा की गारंटी दी जा सकती है।
कहा जाता है कि स्कूलों को कभी सैन्य उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए। पर कौन सुनता है। जब युद्ध खूब बिकता हो, रोमांचकारी लगता हो, तो उसमें किसकी जान गई, कौन बचा, इससे शायद किसी को फर्क नहीं पड़ता। इन दिनों तो मीडिया में जितना युद्ध-युद्ध कह-कह कर टीआरपी और उसके जरिए पैसा कमाने की जुगत भिड़ाई जाती है, उसे यूक्रेन और रूस के युद्ध की रिपोर्टिंग को देखकर जाना जा सकता है।
कई बार तो परमाणु युद्ध की बातें ऐसे की जाती हैं, जैसे यह कोई हंसी-खेल हो। स्कूलों में जिस तरह से गोलीबारी की घटनाएं बढ़ रही हैं, सरकारें इन पर थोड़ा-बहुत दुख प्रकट करने के बाद भुला देती हैं, वह चिंताजनक है। जिनके बच्चे इस तरह की घटनाओं में मारे जाते हैं, वे जीवन भर ऐसे दुखों को नहीं भुला पाते।