सम्पादकीय

दमन का मानस

Subhi
28 Sep 2022 4:37 AM GMT
दमन का मानस
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अगर दसवीं कक्षा का छात्र किसी परीक्षा में एक शब्द गलत लिख दे तो क्या इसके लिए सजा यह होगी कि उसे इस कदर बर्बरता से पीटा जाए, जिससे उसकी जान ही चली जाए? उत्तर प्रदेश में एक स्कूल के शिक्षक ने बेहद मामूली गलती पर एक छात्र के लिए यही सजा तय की।

Written by जनसत्ता: अगर दसवीं कक्षा का छात्र किसी परीक्षा में एक शब्द गलत लिख दे तो क्या इसके लिए सजा यह होगी कि उसे इस कदर बर्बरता से पीटा जाए, जिससे उसकी जान ही चली जाए? उत्तर प्रदेश में एक स्कूल के शिक्षक ने बेहद मामूली गलती पर एक छात्र के लिए यही सजा तय की। औरैया के एक स्कूल में दलित पृष्ठभूमि के पंद्रह साल के एक बच्चे ने किसी प्रश्न के उत्तर में एक शब्द गलत लिख दिया था।

सिर्फ इतने भर के लिए उसके शिक्षक ने स्कूल में उसकी इतनी बेहरमी से पिटाई की कि उसकी बिगड़ी तबीयत इलाज के बाद भी नहीं संभल सकी और उसकी जान चली गई। यह घटना न सिर्फ उस शिक्षक की योग्यता पर प्रश्न-चिह्न लगाती है, बल्कि यह भी बताती है कि किस तरह हिंसक कुंठाओं से भरे लोग शिक्षण जैसे सम्मानजनक पेशे को कठघरे में खड़ा कर देते हैं। एक सामान्य व्यक्ति भी किसी बच्चे की गलती पर उसे ठीक करने के लिए विवेक का इस्तेमाल करेगा। सवाल है कि प्रशिक्षण की पूरी प्रक्रिया से गुजर कर भी कोई शिक्षक एक मामूली-सी चूक भर से इतना हिंसक कैसे हो जा सकता है?

दरअसल, कई बार व्यक्ति का व्यवहार उसकी सामाजिक पृष्ठभूमि से संचालित होता रहता है, जिसे वह अपने कार्यस्थल पर भी काबू में नहीं रख पाता। सरकार की ओर से तय नीतियों से लेकर अदालती दिशानिर्देशों तक में कई बार यह साफ किया जा चुका है कि स्कूल में किसी भी स्थिति में बच्चों की पिटाई तो दूर, डांटने-फटकारने या अपमानित करने पर भी पाबंदी है।

लेकिन पारंपरिक मानसिकता में जीने वाले कुछ लोग अपने शिक्षक होने की जिम्मेदारी तक को नहीं समझ पाते और छोटी-छोटी गलतियों पर भी बच्चों के खिलाफ हिंसक जाते हैं। यह एक शिक्षक के रूप में उनकी नाकामी का ही सबूत होता है। मगर इसके साथ अक्सर समाज में कई स्तरों पर पलते जातिगत आग्रहों से संचालित मानस भी काम करते हैं।

औरैया के स्कूल में शिक्षक की पिटाई की वजह से जिस बच्चे की जान चली गई, वह सामाजिक रूप से कमजोर जाति-वर्ग या दलित तबके से आता था। हमारे समाज में कमजोर तबकों के प्रति बर्ताव की परतें छिपी नहीं रही हैं। किसी छोटी-सी चूक पर भी उनके खिलाफ समाज के मजबूत जाति-वर्गों के आक्रामक और हिंसक हो जाने की घटनाएं आम रही हैं। मसलन, मंगलवार को ही आई एक खबर के मुताबिक मध्य प्रदेश के छतरपुर जिले में एक दलित व्यक्ति को दबंग तबके के लोगों ने सिर्फ इसलिए बुरी तरह मारा-पीटा कि वह ग्राम पंचायत की कुर्सी पर बैठ गया था।

इस तरह की घटनाएं बताती हैं कि एक ओर हम अपने आधुनिक होने का दम भरते हैं, दूसरी ओर हमारा समाज आज भी अमानवीय और सामंती मूल्यों को ढोता चल रहा है। जिस दौर में देश में अलग-अलग मोर्चों पर आए दिन विकास के नए दावे किए जा रहे हैं, उसी में कभी कोई शिक्षक अपनी वास्तविक भूमिका को निभा पाने में नाकाम होता है या फिर महज सामाजिक पूर्वाग्रह और कुंठा की वजह से भेदभाव या क्रूरता की घटनाएं सामने आ जाती हैं।

इसका मतलब यही निकलता है कि विकास के असली और बुनियादी सिद्धांतों से अलग कुछ लोग सामाजिक जड़ता में ही अपनी जिंदगी गुजार लेना चाहते हैं। जबकि पूर्वाग्रहों और दुराग्रहों के स्रोत से निर्मित इस तरह की जड़ताएं किसी भी व्यक्ति के भीतर संवेदना और इंसानियत के तत्त्व को कम करती हैं। कमजोर तबकों के खिलाफ दमन और हिंसा के मानस में जीते हुए कोई भी समाज अपने मानवीय होने का दम नहीं भर सकता।



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