सम्पादकीय

मिल्खा सिंह

Subhi
21 Jun 2021 2:19 AM GMT
मिल्खा सिंह
x
यों हर खेल जोश, जुनून और जिद से जीता जाता है, मगर इनके बल पर मिल्खा सिंह ने दौड़ में जो इतिहास रचा, वह उनकी पीढ़ी के लिए एक सबक बन गया।

यों हर खेल जोश, जुनून और जिद से जीता जाता है, मगर इनके बल पर मिल्खा सिंह ने दौड़ में जो इतिहास रचा, वह उनकी पीढ़ी के लिए एक सबक बन गया। बचपन बहुत विषम परिस्थितियों में गुजरा। बंटवारे के वक्त हुए दंगों में मां और पिता कत्ल कर दिए गए। फिर मिल्खा वहां से भारत वाले हिस्से में आ गए। मगर अपनी जड़ों से उखड़ कर दूसरी जगह खाद-पानी ले पाना भला कहां आसान होता है। जो उम्र बच्चों के पढ़ने-लिखने, खेलने-कूदने की होती है, उसमें मिल्खा सिंह को हर चीज के लिए संघर्ष करना था। बेहतर जीवन जीने के लिए उन्होंने बहुत से सहारे तलाशे, कभी ढाबे पर बर्तन धोए तो कभी छोटे-मोटे दूसरे काम किए। बेटिकट रेल यात्रा करते पकड़े गए, तो जेल भी गए। उन्हें लगता रहा कि फौज में जाकर जिंदगी बेहतर हो सकती है। उसके लिए कई बार प्रयास किया। आखिरकार भर्ती हो गए। फिर वहीं से उनकी जिंदगी ने करवट ली। उनके अफसर ने उन्हें दौड़ प्रतिस्पर्धा में हिस्सा लेने के लिए उकसाया। अब तक जिंदगी की दौड़ में भागते आए मिल्खा के लिए यह करना कोई मुश्किल काम नहीं था। अभ्यास किया, दौड़े और कीर्तिमान बना डाला।

दौड़ने का अभ्यास शुरू किया तो सेना में भर्ती होने के चार साल बाद ही सुर्खियों में आ गए। वह 1956 की पटियाला में आयोजित राष्ट्रीय खेल प्रतिस्पर्धा थी, जब पहली बार मिल्खा सिंह धावकों की नजर में चढ़ गए। फिर दो साल बाद तो कटक में आयोजित राष्ट्रीय खेल प्रतिस्पर्धा में उन्होंने दो सौ और चार सौ की प्रतिस्पर्धा में पहले के सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए। फिर क्या था, अब पूरा आसमान पड़ा था, मिल्खा सिंह को उड़ने के लिए। उनके जीवन का सबसे बड़ा अवसर साबित हुआ रोम में आयोजित ग्रीष्मकालीन ओलिंपिक
हालांकि उसमें उन्हें कोई पदक हासिल नहीं हो सका, चौथे स्थान पर रहे, मगर उसमें उन्होंने विश्व कीर्तिमान बनाया था। जैसा कि मिल्खा सिंह खुद स्वीकार करते थे कि उस प्रतिस्पर्धा में उनकी किस्मत ने साथ नहीं दिया, अखिरी क्षण में उनके पैर की नस खिंच गई थी। वह समय था 1960 का। उससे दो साल पहले आयोजित राष्ट्रमंडल खेलों में दो सौ और चार सौ मीटर की दौड़ों में वे अव्वल रह चुके थे। उसी साल के एशियाई खेलों में भी उन्होंने प्रथम स्थान प्राप्त किया था। वे तब तक अपने समय के विश्व कीर्तिमान बनाने वाले धावकों को पछाड़ चुके थे। काफी समय तक खुद उनका कीर्तिमान बाद के धावकों के लिए चुनौती बना रहा।
उनकी धावकी को लेकर अनेक किस्से प्रचलित थे, जिनमें से कई तो वे खुद सुनाया करते थे। सबसे रोमांचक किस्सा पाकिस्तान के धावक अब्दुल खालिक के साथ प्रतिस्पर्धा का है। खालिक ने तोकियो के एशियाई खेलों में सौ मीटर प्रतिस्पर्धा में स्वर्ण पदक जीता था। तब पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब खान ने मिल्खा सिंह को पाकिस्तान अकर खालिक के साथ प्रतिस्पर्धा करने का न्योता पठाया। पुरानी कड़वी यादों को किनारे कर मिल्खा सिंह वहां गए और खालिक को पछाड़ दिया था। वहीं पाकिस्तानी राष्ट्रपति ने उन्हें 'फ्लाइंग सिख' कहा था और फिर वह उपाधि की तरह उनके नाम के साथ सदा के लिए जुड़ गया। दरअसल, मिल्खा सिंह में जोश, जुनून और जिद तो थी ही, अपने देश का नाम ऊंचा करने का जज्बा भी जबर्दस्त था। उसके लिए उन्होंने धावकी के सारे गुर, सारी तकनीकें सीखीं, उन्हें आजमाया और कीर्तिमान बना पाए। उनकी ख्वाहिश थी कि धावकी में भारत को ओलिंपिक पदक हासिल हो। उनके जाने के बाद भी उनका वह सपना जिंदा है।

Next Story