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आदित्य नारायण चोपड़ा: पूर्वोत्तर के सबसे अधिक संवेदनशील राज्य नागालैंड में विगत शनिवार की रात्रि और रविवार की सुबह को जिस तरह स्थानीय नागरिकों को विद्रोहियों की गलतफहमी में भारतीय सेना के वहां तैनात पखंड ने अपना शिकार बनाया है उसकी गूंज सोमवार को संसद के दोनों सदनों में हुई है और विप ने सरकार से इस सन्दर्भ में कारगर कार्रवाई करने की मांग की है जिसके जवाब में गृहमन्त्री अमित शाह ने संसद में बयान देकर साफ किया है कि शासन इस घटना को बहुत गंभीरता से ले रहा है और इसकी उच्च स्तरीय जांच करा रहा है। मगर सेना की किसी टुकड़ी द्वारा नागा नागरिकों को हलाक किये जाने की ताजा इतिहास मे यह नई घटना है अतः इसके प्रभाव भी बहुआयामी हो सकते हैं जिन्हें देखते हुए केन्द्र सरकार को ऐसे सख्त कदम उठाने पड़ सकते हैं जिससे नागा नागरिकों का विश्वास भारतीय शासन प्रणाली में जमा रहे और उन्हें विद्रोही नागा संगठन बरगला न सकें। इस मामले में सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि जिस विशेष सशस्त्र बल कानून (आफ्पसा) के तहत भारतीय सेना वहां विद्रोही गतिविधियों को कुचलने का काम करती है उस पर ही कुछ अलगाववादी नागा संगठन प्रश्नचिन्ह लगाने लगें और उनकी इस मांग को राज्य से राजनैतिक समर्थन भी मिलने लगे। इसके परिणाम मिलने शुरू हो गये हैं क्योंकि नागालैंड की क्षेत्रीय दल नीत सरकार के मुख्यमन्त्री नेफ्यू रियो ने इसकी मांग कर डाली है।रियो द्वारा एेसा बयान देने से नागालैंड के आम नागरिकों में यह भावना पैदा हो सकती है कि सेना जिन अधिकारों के साथ उनके राज्य में काम करती है वे उनके हितों के खिलाफ हैं। अतः इस मोर्चे पर केन्द्र सरकार को सबसे ज्यादा ध्यान देने की जरूरत होगी। इसका महत्व इस दृष्टि से तब और बढ़ जाता है जबकि भारत सरकार सशस्त्र संघर्ष करने वाले नागा विद्रोहियों को वार्ता की मेज पर लाने का प्रयास कर रही है और इस कार्य में वह एक हद तक सफल भी हो चुकी है। नागा संगठनों से केन्द्र सरकार लगातार पिछले कई वर्षों से वार्ताओं का दौर चला रही है जिसमें आजादी के पूर्व से चली आ रही नागा विद्रोह की समस्या का हल होता नजर आ रहा था। वैसे तो इस राज्य में ऐसे कई नागा संगठन हैं जो शस्त्रों के बल पर अपनी मांगें मनवाना चाहते हैं परन्तु इनमें से केवल एक बड़े संगठन जिसे एनएससीएन (आ एम) कहते हैं के अलावा सभी संगठन वार्ता के माध्यम से समझौते के लिए सहमत हो चुके हैं। नागा संगठनों व सरकार के बीच समझौते में उनकी यह मांग आड़े आ रही है कि वे अपने लिए पृथक झंडे की मांग कर रहे हैं। पहले वे पृथक संविधान की मांग भी कर रहे थे मगर इस मुद्दे पर केन्द्र के वार्ताकारों ने स्पष्ट कर दिया था कि इसे किसी हालत में नहीं माना जा सकता हालांकि नागा लोगों की सांस्कृतिक स्वतन्त्रता और अपने रस्मो-रिवाज के मुताबिक जीवन शैली अपनाने की गारंटी सरकार दे सकती है। मगर सैनिक मुठभेढ़ में नागा नागरिकों के हलाक हो जाने की वजह से गड़े मुर्दे उखाड़ने का अवसर वार्ता के लिए सहमत न होने वाले नागा संगठनों को मिल सकता है और वे इसे लेकर नया विवाद शुरू कर सकते हैं और समझौता प्रयासों के खिलाफ माहौल बनाने की कोशिश कर सकते हैं।नागा विद्रोह व अलगाववाद अंग्रेज शासनकाल से चलता आ रहा है और स्वतन्त्र भारत में इसे समाप्त करने के लिए आजादी के बाद से ही प्रत्येक केन्द्र सरकार ने कोशिश की है जिसे देखते हुए 1960 में असम राज्य के भीतर ही पृथक नागा विकास परिषद की स्थापना करके इस राज्य के लोगों को राष्ट्रीय मुख्यधारा मेें शामिल करने की पहल की गई थी। इससे पूर्व में नागालैंड के विद्रोही नेता एजेड फिजो ने 55 के लगभग नागालैंड की पृथक सरकार तक बनाने की घोषणा तक कर दी थी जिसे देखते हुए 1958 में भारतीय सेना को विशेष अधिकारों से लैस करने वाला आफ्पसा कानून संसद ने बनाया था जिससे फिजो द्वारा गठित सरकार के कथित सशस्त्र विद्रोहियों का डट कर मुकाबला किया जा सके। मगर 1956 मेें फिजो तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) में भाग गये थे। जहां से बाद में वह लन्दन चले गये। मगर हकीकत यह है कि नागालैंड में अब भी कुछ संगठन सशस्त्र विद्रोह पर यकीन रखते हैं जिसे देखते हुए हमारी सेनाओं को माकूल अधिकारों की जरूरत है अतः आफ्पसा कानून को हटा कर हम राष्ट्रीय सुरक्षा और अखंडता से किसी प्रकार का समझौता भी नहीं कर सकते हैं। हालांकि सेना ने भी अपनी तरफ से नागरिकों के मारे जाने की घटना की जांच कराने के लिए सैनिक जांच की कार्रवाई शुरू कर दी है और राज्य सरकार ने भी नागरिक नियमों के अनुसार जांच की प्रकिया शुरू कर दी है परन्तु इसका नतीजा इस प्रकार आना चाहिए जिससे नागा नागरिकों का भारत में विश्वास जगे और सेना उन्हें अपनी रक्षक लगे। संसद में गृहमन्त्री ने अपने वक्तव्य में यही सन्देश देने का प्रयत्न किया है।