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सुनिश्चित करने के लिए ग्रामीण विकास विभाग से जोरदार सिफारिश करती है।'
महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम या मनरेगा एक बार फिर खबरों में है। केंद्र सरकार ने देश के निर्धन क्षेत्रों में और अधिक काम के अवसर पैदा करने की उम्मीद में देश के एकमात्र रोजगार गारंटी योजना मनरेगा के पुनर्गठन के लिए एक नए पैनल का गठन किया है। इस महत्वपूर्ण निर्धनता-विरोधी योजना को पुनर्जीवित करने की इस कोशिश के पीछे एक प्रमुख कारण यह है कि कई गरीब और अधिक आबादी वाले राज्यों को इसकी अधिक आवश्यकता है, खासकर जिन्होंने धनी और विकसित राज्यों की तुलना में बहुत खराब ढंग से इस योजना को लागू किया है।
पूर्व ग्रामीण विकास सचिव और प्रधानमंत्री कार्यालय में सलाहकार अमरजीत सिन्हा की अध्यक्षता वाले इस पैनल से समीक्षा प्रक्रिया के तहत ग्रामीण रोजगार की मांग को प्रभावित करने वाले विभिन्न कारकों की जांच करने, नरेगा के खर्च के पैटर्न एवं अंतर-राज्यीय अंतरों का विश्लेषण करने, कार्य-संरचना का आकलन करने और उपयुक्त बदलाव के लिए सुझाव देने की उम्मीद है। अच्छी बात यह है कि इस पैनल की एक समय-सीमा तय है-अब से तीन महीने।
लेकिन अकेले नीतिगत सिफारिशों से इस योजना से संबंधित कई समस्याओं का समाधान नहीं होगा, क्योंकि मनरेगा की स्थापना 15 साल पहले सबसे निचले सामाजिक-आर्थिक पायदान पर रहने वाले वयस्कों को कम से कम सौ दिन की गारंटीशुदा मजदूरी वाला रोजगार प्रदान करके एक परिवार की न्यूनतम आजीविका सुरक्षा के लिए की गई थी। यह एक मांग-संचालित योजना है, जो अनिवार्य रूप से प्रत्येक इच्छुक ग्रामीण परिवार को प्रति वर्ष 100 दिनों के अकुशल कार्य की गारंटी देती है।
हैरानी की बात नहीं है कि जो राज्य बेहतर शासित हैं, वे सरकारी योजनाओं को बेहतर ढंग से लागू करने में सक्षम हैं और खराब शासन वाले राज्यों के निवासियों की तुलना में बेहतर ढंग से शासित राज्यों के नागरिकों को ज्यादा लाभ मिलते हैं। गौरतलब है कि पिछले वित्त वर्ष में कोई भी राज्य मनरेगा के तहत प्रति परिवार 100 दिनों का गारंटीशुदा मजदूरी वाला रोजगार उपलब्ध नहीं करा पाया था।
अब जरा ग्रामीण विकास और पंचायती राज पर संसद की स्थायी समिति के एक महत्वपूर्ण मुद्दे-मजदूरी के भुगतान में देरी-पर की गई टिप्पणियों पर विचार करें। इस साल फरवरी में पेश की गई स्थायी समिति की रिपोर्ट में कहा गया है, 'मनरेगा योजना की घोषणा के प्रमुख पहलुओं में से एक ग्रामीण जनता को 100 दिनों के काम की गारंटी थी, जो स्वेच्छा से मनरेगा के तहत काम करती है। इस कल्याणकारी योजना की परिकल्पना न केवल उन लोगों के लिए रोजगार का विकल्प प्रदान करने के लिए की गई थी, जिनके पास कोई अन्य उपाय नहीं था, बल्कि इसका उद्देश्य जनशक्ति का उपयोग करके टिकाऊ संपत्ति का सृजन भी था। हालांकि संतुलन का पूरा आधार, जिस पर यह योजना टिकी हुई थी, मनरेगा अधिनियम, 2005 के माध्यम से समय पर मजदूरी का भुगतान करना था, जिसमें मस्टर रोल बंद होने की तारीख से पंद्रह दिनों के भीतर मजदूरी का भुगतान किया जाना है।'
कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में ध्यान दिलाया कि इसके बजाय 'मनरेगा के लाभार्थियों को मजदूरी के भुगतान में अत्यधिक देरी की गई। मजदूरी के भुगतान में देरी के कई कारण हो सकते हैं, लेकिन कोई भी कारण अधिनियम के वैधानिक प्रावधान के इस घोर उल्लंघन को सही ठहराने के लिए पर्याप्त नहीं हो सकता है। इस कानून के लाभार्थी आमतौर पर समाज के गरीब और हाशिये पर रहने वाले वर्ग से हैं, जिनकी आर्थिक स्थिति में सुधार की उम्मीद मनरेगा के माध्यम से मिलने वाली सहायता पर टिकी है।'
मनरेगा योजना के आलोचक अक्सर तर्क देते हैं कि इस योजना के तहत किए गए काम से ठोस संपत्ति का निर्माण नहीं होता है। लेकिन स्थायी समिति की रिपोर्ट बताती है कि इसका अंतर्निहित कारण यह है कि संपत्ति के स्थायित्व और ढीले रख-रखाव पर कम जोर दिया जाता है। रिपोर्ट कहती है, 'इस योजना का उद्देश्य न केवल ग्रामीण जनता को मजदूरी की गारंटी प्रदान करना था, बल्कि तालाबों, ग्राम पंचायत भवनों, सड़कों आदि जैसी टिकाऊ परिसंपत्तियों के माध्यम से बुनियादी ढांचे का निर्माण करना भी था। इसलिए जब तक मनरेगा के तहत सृजित परिसंपत्ति की गुणवत्ता को बनाए नहीं रखा जाता है, तब तक योजना का उद्देश्य सफल नहीं होगा। यह अत्यंत महत्वपूर्ण है कि मनरेगा के तहत परिसंपत्ति का स्थायित्व बनाए रखा जाए। इसलिए समिति योजना के उद्देश्यों की बेहतर प्राप्ति के लिए मनरेगा निधियों के माध्यम से सृजित अवसंरचना या अन्य परिसंपत्तियों की गुणवत्ता और रख-रखाव का कड़ाई से अनुपालन सुनिश्चित करने के लिए ग्रामीण विकास विभाग से जोरदार सिफारिश करती है।'
सोर्स: अमर उजाला
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