सम्पादकीय

बदलते युग के मसीहा

Gulabi
30 Dec 2021 4:54 AM GMT
बदलते युग के मसीहा
x
महात्माओं ने जहां भी युग बदलने का वायदा किया, वहां कतार लगती गई और अगले दिन बदलने का इंतजार करने लगी
हमसे बार-बार पूछा जाता है कि कतार में खड़े इस देश के आखिरी आदमी के चेहरे से मुस्कान क्यों लुप्त हो गई है? अजी यहां कतार एक हो तो उसकी बात करें। यहां तो कतार दर कतार है। जिधर आंख उठाओ वहां कतारें खड़ी नज़र आती हैं, और उनके अंत में लोगों के झुंड हैं, केवल एक आदमी नहीं, जो अपने अच्छे दिनों या जीवनोदय का इंतज़ार कर रहा है। अन्तोदय के नाम से उसे इसी कतार में खड़ा किया गया था न। सोचा था एक कतार होगी, आगे सरकती-सरकती कभी खत्म हो जाएगी। लेकिन यहां तो हर क्षेत्र में कतार दर कतार लगती गई। महात्माओं ने जहां भी युग बदलने का वायदा किया, वहां कतार लगती गई और अगले दिन बदलने का इंतजार करने लगी। लेकिन रुत पर रुत बदलती गई। दिन, महीने और महीने साल हो गए, यह कतार आगे नहीं सरकी, बरसों से वहीं खड़ी रही। अब तो क्रांति का सपना देखने वाली आंखें बेनूर होती नज़र आ रही हैं। देश तरक्की करेगा, योजनाबद्ध आर्थिक विकास के रास्ते पर सरपट भागेगा। लेकिन बारह पंचवर्षीय योजनाओं का कितना लंबा रास्ता था, कि उसे अपने कंधों पर ढोते-ढोते योजना आयोग का कचूमर निकल गया। उसे सफेद हाथी कह कर नकार दिया गया।
जबकि सफेद हाथी तो इसके नियामक और प्रचालक थे, जो अपने-अपने वातानुकूलित गवाक्षों से 'जंग का मुजरा' देखने के नाम पर इसकी प्रगति के आंकड़ों का मुजरा देखते रहे। कभी समाजवादी व्यवस्था पैदा करने के नाम पर यह क्रांति यात्रा शुरू हुई थी। रास्ता इतना लंबा था कि नौकरशाहों और सत्ता के दलालों ने इसे खत्म होने नहीं दिया। प्रगति का हर मील पत्थर, भ्रष्टाचारियों की लोभलिप्सा का हाजमा दुरुस्त करता रहा और अब 75 बरस के बाद उपलब्धियों के मूल्यांकन के लिए मील के पत्थरों को गिनने का फैसला हुआ, तो पाया कि मील के पत्थर नदारद हो गए थे, फसल सुरक्षित रखने के लिए जो बाढ़ लगी थी, वही फसल को खा गई। आम आदमी हर कतार से दुत्कार दिए जाने के बाद फुटपाथ पर आ गया था। कहां जो हर घर को चिराग देने की बात थी, और अब तो गरीब शहरों की अंधेरी बस्तियों को एक चिराग भी नहीं मिला।
कतारें टूटती बनती रही, लेकिन एक ही जगह रुकी रहीं। कामदारों को धकेल कर उभर आए उनकी जगह कुछ नामदार, जिन्होंने गर्व से बताया कि हम जहां खड़े हो जाते हैं, तो वहां से ही कतार शुरू होती है। हमने इन कतारों के सरगना महापुरुषों की झोली में देश की प्रगति के मील पत्थर तलाशने चाहे, लेकिन वहां भी भव्य अट्टालिकाएं और कुछ वातानुकूलित गाडि़यां। कुछ दावे थे और कुछ घोषणाएं, लेकिन ये दावे और घोषणाएं पौन सदी के अंधेरे में गुम हो गई। उस भारी भीड़ के चेहरे पर खोई हुई मुस्कान लौटा नहीं पाई। सफेद हाथी उनके अस्तबल में गुम हो गया और उसकी जगह उन्हें मिल गया नीति आयोग। इसने कतार से गुम हो गए लोगों से पूछा, क्या यह किसी पुराने साइनबोर्ड पर लिखी नई इबारत है? बताया गया, नहीं ऐसा नहीं है। लिपापुता रंग-बिरंगा यह तो नया साइन बोर्ड है, केवल एक साइनबोर्ड। इसके द्वारा निर्देशित होने वाला रास्ता अभी बनाया जाएगा। यह रास्ता आपको सर्व-कल्याण की ओर कैसे ले जाएगा, इसका फैसला अभी किया जाएगा। योजनाबद्ध आर्थिक विकास से आपका कायाकल्प करने की योजनावधि क्या होगी, इस पर फैसला भी अभी होना है। फिलहाल आप समाज बदल जाने, युग पलट जाने का सपना देखिए। सामज बदल जाने और गरीब-अमीर का भेद मिट जाने का सपना तो हम बहुत दिन से देख ही रहे थे। अब तो हमारे फुटपाथों पर भी उनकी भव्य अट्टालिकाएं छाया नहीं करती। उनकी नींव के पास कोई पगला राजू अपनी डफली बजाता हुआ दिखाई नहीं देता 'दिल का हाल सुने दिलवाला।'
सुरेश सेठ
Next Story