सम्पादकीय

श्रीलंका से उठते धुएं का संदेश

Rani Sahu
17 July 2022 5:06 PM GMT
श्रीलंका से उठते धुएं का संदेश
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श्रीलंका के कार्यवाहक राष्ट्रपति रनिल विक्रमसिंघे की शिकायत है- ‘हिटलर जैसी मानसिकता के लोगों ने मेरे घर पर हमला बोल दिया

शशि शेखर

श्रीलंका के कार्यवाहक राष्ट्रपति रनिल विक्रमसिंघे की शिकायत है- 'हिटलर जैसी मानसिकता के लोगों ने मेरे घर पर हमला बोल दिया। उन लोगों ने न केवल उसे तहस-नहस किया, बल्कि 200 से ज्यादा पुरानी दुर्लभ पेंटिंग और ढाई हजार पुस्तकों को आग के हवाले कर दिया। मेरी अकेली पूंजी यही थी।' इतनी पुस्तकों का संग्रह रखने वाले विक्रमसिंघे ने यकीनन फ्रांस और रूस की राज्य-क्रांतियों के बारे में पढ़ा होगा। उनका अकेला सबक है, भूख से बिलबिलाती जनता किसी तख्त-ओ-ताज की परवाह नहीं करती। श्रीलंका में यही हो रहा है।
इस द्वीप देश के इतिहास में पहली बार ऐसा हो रहा है, जब लोग अपने काम पर नहीं जा पा रहे हैं, स्कूल बंद हैं, दुकानें खाली पड़ी हैं और कीमतें आसमान के पार पहुंच चुकी हैं। गुजरी 9 जुलाई को जिस तरह की भीड़ राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे के सरकारी आवास और उसके आसपास दिखाई पड़ी, उसने साबित कर दिया कि यह मौजूदा वक्त की दुर्लभ घटना है। वहां गम और गुस्सा महीनों से खदबदा रहा था। महंगाई लोगों का जीना मुहाल किए हुए थी और क्षुब्ध जन रह-रहकर सड़कों पर आ जाते थे। इस दौरान कई सांसद उनके गुस्से का शिकार बन चुके थे। 9 जुलाई का प्रतिरोध पहले से घोषित था, पर यह इतना भयंकर होगा, इसका अंदाजा लगाने में गोटबाया का तंत्र नाकाम रहा। लोग इतनी बड़ी संख्या में उमडे़ कि पुलिस और सेना की लाठियां, गोलियां अथवा अश्रु गैस अर्थहीन साबित हुईं।
हताश राजपक्षे देश छोड़कर भाग गए, जबकि उनके भाई को नाराज लोगों ने कोलंबो हवाई अड्डे पर रोक लिया। राजपक्षे परिवार ने दशकों इस मुल्क पर हुकूमत की। क्या गोटबाया लुई 16वें या जार निकोलाई द्वितीय की तरह सत्ता के लंबे सिलसिले की आखिरी और बदनाम कड़ी साबित होने जा रहे हैं? उनके पलायन से पहले ही जनता मान चुकी थी कि ये हमारे जनार्दन नहीं, बल्कि हितहंता हैं। यही वजह है कि जो भीड़ राष्ट्रपति भवन में घुसी, उसका कोई सर्वमान्य नेता नहीं था। बहुत से लोग वहां अपने बच्चों को सिर्फ यह दिखाने पहुंचे कि देखो, हम कैसे दुर्दिन जीते हैं और हमारे राजनेता किस वैभव का आनंद उठाते हैं?
उनके पलायन के बाद जब कमान रनिल विक्रमसिंघे के पास आई, तो प्रतिरोध एक बार फिर भड़क उठा। जन-मान्यताओं में वह गोटबाया की चौसर पर चस्पां 'गोट' भर हैं। अविश्वास के इस माहौल में वह विपक्षी दलों को कैसे साथ लेंगे? जन-समर्थन कैसे जुटाएंगे? आक्रोश शांत करने के लिए उन्होंने आपातकाल की घोषणा कर दी है, पर पुलिस और सेना के जवानों की सहानुभूति जनता के साथ है। लोग अभी भी सड़कों पर हैं। सुरक्षा बल उन्हें तितर-बितर करने के लिए ज्यादातर आंसू गैस छोड़ते, हल्का लाठीचार्ज करते या हवा में गोलियां चलाते दिखे। संसद भवन में घुसती भीड़ को रोकने के लिए उन्हें अपेक्षाकृत अधिक कड़ाई से काम लेना पड़ा। नतीजतन, तीन लोग मारे गए। कोलंबो की सड़कों पर इसके बाद टैंक तैनात कर दिए गए। इसके बावजूद सैनिकों और आम जन में सौहार्द चुका नहीं। कहीं सैनिकों ने आंसू गैस से हलकान लोगों को पानी पिलाया, तो कहीं प्रदर्शनकारी घायल सैनिकों की मदद करते दिखे। यही वजह है कि राष्ट्रपति भवन पर कब्जा जमाए लोग बगैर बल प्रयोग के बाहर निकल गए। यह जज्बा इस समूचे आंदोलन को अनूठा स्वरूप प्रदान करता है।
आर्थिक ज्वालामुखी के विस्फोट का शिकार होने वाला यह अकेला देश नहीं है। उसकी तरह लेबनान में भी जन-विद्रोह के हालात हैं। वहां की हुकूमत विदेशी कर्ज चुकाने में नाकामयाब रही है। खाद्यान्न, दवाइयों और आवश्यक वस्तुओं के अभाव में लोग सड़कों पर प्रदर्शन कर रहे हैं। यही हाल वेनेजुएला सहित लैटिन अमेरिका के तमाम देशों और घाना समेत कुछ अफ्रीकी देशों का है। कुलजमा 17 मुल्कों के लोग इसी विपदा के शिकार हैं। धरती के इन हिस्सों में समूची आबादी के 12 फीसदी लोग रहते हैं।
क्या 90 करोड़ की इस विशाल आबादी के दुख-दर्द को भूलकर दुनिया आगे की राह नाप सकती है? क्या इनकी मदद के लिए मालदार देश और वैश्विक संस्थाएं कुछ कारगर कदम उठा पाएंगी?
मौजूदा हालात में ऐसा नहीं लगता। खुद यूरोपीय महाद्वीप और अमेरिका कोरोना के समय से डगमग हैं। हालात कुछ सुधरे थे कि रूस ने यूके्रन पर हमला कर दिया। अब इस जंग ने न केवल यूरोप को पूरी तरह विभाजित कर दिया है, बल्कि एक और खतरा पैदा हो गया है। मास्को ने 'सालाना रखरखाव' के लिए 'नॉर्ड स्ट्रीम-1' को 21 जुलाई तक के लिए बंद कर दिया है। पश्चिम को संदेह है कि दबाव बढ़ाने के लिए पुतिन इसे आगे और बढ़ा सकते हैं। इसके रुक जाने से जर्मनी समेत तमाम देश अंधेरे में डूब सकते हैं। साथ ही तमाम अन्य मुश्किलात पैदा हो सकती हैं। अगर ऐसा हुआ, तो पहले से ढलान पर खड़ी इस महाद्वीप की अर्थव्यवस्था और बदतर हो जाएगी। यह तब है, जब रूस-यूक्रेन युद्ध की शुरुआत के बाद से अब तक ऊर्जा की कीमतों में 400 फीसदी तक की बढ़ोतरी दर्ज हो चुकी है।
ध्यान रहे। गई15 फरवरी को ही विश्व बैंक ने दुनिया को आगाह किया था कि 70 विकासशील देशों के सिर पर विदेशी कर्ज का 'डिफॉल्टर' होने का खतरा मंडरा रहा है। गौर करें, तब तक रूस-यूक्रेन युद्ध नहीं छिड़ा था। लड़ाई 24 फरवरी को शुरू हुई और मार्च में संयुक्त राष्ट्र ने अगली चेतावनी जारी की, जिसमें कहा गया कि 107 अर्थव्यवस्थाओं पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। यहां खाद्य वस्तुओं और ईंधन में इतना उछाल आ सकता है कि ये देश गंभीर वित्तीय संकट में फंस जाएंगे। तमाम मुल्क तो अभी से खाद्यान्न के लिए पूरी दुनिया से गुहार लगा रहे हैं। मिस्र के पास कुछ दिन लायक गेहूं बचा है, तो ट्यूनीशिया इन तीनों समस्याओं से एक साथ जूझ रहा है। वहां विदेशी कर्ज कुल सकल घरेलू उत्पाद का दोगुना हो चुका है। क्या श्रीलंका और लेबनान शुरुआत भर हैं?
श्रीलंका के साथ हमारे पड़ोसी पाकिस्तान और नेपाल समान संकट का शिकार हैं। पाकिस्तान के योजना एवं विकास मंत्री अहसान इकबाल ने पिछले महीने फरमाया कि लोग एक-दो कप से ज्यादा चाय न पिएं, ताकि बहुमूल्य विदेशी मुद्रा बचाई जा सके। पाकिस्तान हर बरस 600 मिलियन डॉलर सिर्फ चाय आयात में खर्चता है। नेपाल में भी आर्थिक मंदी के लक्षण साफ दिख रहे हैं। वहां विदेशी मुद्रा का भंडार छह माह का भी नहीं बचा है। इस मुद्रा से जनता के उपयोग के लिए आवश्यक वस्तुएं आयात की जाती हैं।
यही वह मुकाम है, जो नई दिल्ली के लिए चिंता पैदा करता है। तीन दिशाओं के तीन पड़ोसी जब बदहाल हों, तो वहां अराजकता भड़कने के अंदेशे पैदा हो जाते हैं। एक और पड़ोसी चीन पहले से ही हमारी सीमाओं पर हत्यारी हलचल मचा रहा है। शुक्र बस इतना है कि हमारे पास इतनी विशाल आबादी का पेट भरने के लिए पर्याप्त अनाज और संसाधन मौजूद हैं। इसके बावजूद पड़ोस के हालात सिर्फ सचेत ही नहीं करते, डराते भी हैं।
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