सम्पादकीय

सजा का संदेश: अभिन्न अंग कश्मीर पर नहीं समझौता

Gulabi Jagat
28 May 2022 6:16 AM GMT
सजा का संदेश: अभिन्न अंग कश्मीर पर नहीं समझौता
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अभिन्न अंग कश्मीर पर नहीं समझौता
आखिरकार एनआईए कोर्ट ने कश्मीरी अलगाववादी नेता यासीन मलिक को कबूले गये जुर्मों के चलते उम्रकैद की सजा सुना दी है। उस पर दस लाख रुपये का जुर्माना भी लगाया गया है। संभवत: अपराधों की स्वीकृति के चलते मलिक जीवन रक्षा करने में सफल रहा। अन्यथा जिन गंभीर अपराधों में उसकी अतीत में संलिप्तता रही है, वह बड़ी सजा का हकदार था। बहरहाल, राजग सरकार के केंद्र में सत्ता में आने के बाद अलगाववादियों के खिलाफ जीरो टोलरेंस की नीति के चलते न केवल जम्मू-कश्मीर के राजनीतिक स्वरूप में बदलाव आया है बल्कि पथराव, घुसपैठ और अलगाववादियों के समांतर शासन की मंशा पर भी अंकुश लगा है।
केंद्र की सख्ती और एनआईए की सक्रियता के चलते भारत विरोधी अभियान चलाने में मिलने वाली विदेशी फंडिंग का खुलासा हुआ था, जिसमें मलिक की संलिप्तता पायी गई थी। निस्संदेह, मलिक अतीत में घाटी में हुई तमाम हिंसक वारदातों में शामिल रहा था जिसमें वायुसेना के जवानों की हत्या, पूर्व मुख्यमंत्री की बेटी के अपहरण और घाटी में कश्मीरी पंडितों के पलायन से जुड़ी हिंसक घटनाएं शामिल रही हैं।
बताया जाता है कि मलिक पर्दे के पीछे से आतंकी घटनाओं की योजनाएं बनाने और उन्हें अंजाम देने में भूमिका निभाता रहा है। बताते हैं कि सुनवाई के दौरान कई ऐसे आरोपों को उसने स्वीकार भी किया। विडंबना यह है कि विगत में जेल से छूटने के बाद यासीन मलिक ने खुद को शांति की राह पर चलने वाला गांधीवादी तक कहना शुरू कर दिया।
इसके चलते पिछले दशकों में उसे विदेश जाने तक का मौका दिया। ऐसी स्थिति में अदालत ने सोलह आने सच कहा कि मलिक को खुद को शांतिवादी कहने का अधिकार नहीं है क्योंकि हिंसा त्यागने के दावे के बावजूद उसने कश्मीर की हिंसक घटनाओं की निंदा तक नहीं की। बहरहाल, इस घटना का घाटी में साफ संदेश जायेगा कि भारत की संप्रभुता को चुनौती देने वाले किसी शख्स को बख्शा नहीं जायेगा। मलिक की सजा के बाद घाटी में हुई प्रतिक्रिया को यह संदेश जाने के रूप में देखा जाना चाहिए। अब प्रयास होना चाहिए कि आम लोगों को कैसे अलगाववादी नेताओं के संजाल से अलग-थलग करके राष्ट्र की मुख्यधारा से जोड़ा जाये।
वहीं दूसरी ओर घाटी में शांति स्थापना के लिये जरूरी है कि यथाशीघ्र लोकतांत्रिक प्रक्रिया को गति दी जाये। इस दिशा में केंद्र सरकार पहले ही गतिशील है। जाहिर है अपने जनप्रतिनिधि चुनकर लोग राज्य के विकास में भूमिका निभा सकेंगे। साथ ही विदेशों से अलगाववादी नेताओं को मिलने वाली किसी भी तरह की मदद पर सख्त निगरानी की भी जरूरत है।
इस दिशा में एनआईए की सक्रियता की ही परिणति थी कि यासीन मलिक को सजा हो पायी है। कह सकते हैं कि पिछले साढ़े तीन दशक में घाटी में जो आतंकवाद का उफान आया उसकी एक वजह देश के राजनीतिक नेतृत्व का ढुलमुल रवैया भी रहा। खासकर कश्मीर के मामले में पाक की भूमिका को लेकर स्पष्ट नीति न होने के चलते। साथ ही पाक से अलगाववादी संगठनों को मिलने वाली फंडिंग पर भी समय रहते रोक नहीं लगाई जा सकी जिससे अलगाववादी पत्थरबाजों को उकसाकर व युवाओं को भ्रमित करके तथा लालच देकर आतंकी संगठनों में शामिल कराते रहे। साथ ही स्थानीय स्तर पर भी वसूली करके अलगाववादी आतंकवाद को बढ़ावा देते रहे। यही वजह है कि राष्ट्रविरोधी तत्वों की सक्रियता का खमियाजा घाटी के निर्दोष लोगों को भुगतना पड़ा। कश्मीरी पंडितों का पलायन भी इसी कड़ी का नतीजा था।
निस्संदेह समय रहते की गई सख्ती घाटी में आतंकवाद के विस्तार को रोक सकती थी। बहरहाल, विगत की घटनाओं से सबक लेकर पुलिस, जांच एजेंसियों तथा सरकारों को तत्परता दिखाकर अलगाववादियों पर शिकंजा कसने की जरूरत है जिससे सीमापार से मिलने वाली मदद पर रोक लगायी जा सके। आतंकवाद से लड़ने की राजनीतिक इच्छा शक्ति हमें शीघ्र परिणाम देगी। तब हम घाटी में स्थायी शांति की उम्मीद कर सकते हैं। इसके लिये घाटी के युवाओं के लिये रोजगार के नये अवसर सृजित करके उन्हें राष्ट्र की मुख्यधारा से जोड़ने को प्राथमिकता देनी होगी।

दैनिक ट्रिब्यून के सौजन्य से सम्पादकीय
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