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जिसका असर समाज और व्यवस्था पर पड़े बिना नहीं रहेगा।
शपथ लेते ही राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने स्वयं को संथाल और वनवासी बताते हुए जो बात कही, उसकी ओर दुनिया का ध्यान जाना बहुत जरूरी है। राष्ट्रपति ने कहा, 'मेरा जन्म तो उस जनजातीय परंपरा में हुआ है, जिसने हजारों वर्षों से प्रकृति के साथ ताल-मेल बनाकर जीवन को आगे बढ़ाया है। मैंने जंगल और जलाशयों के महत्व को अपने जीवन में महसूस किया है। हम प्रकृति से जरूरी संसाधन लेते हैं और उतनी ही श्रद्धा से प्रकृति की सेवा भी करते हैं।'
प्रकृति की पूजा और उससे सामंजस्य भारतीय संस्कृति का आधार रहा है। भारतीय ग्रंथों में प्रकृति का जिस तरह चित्रण हुआ है, उससे स्पष्ट है कि भारतीयता की धारा प्रकृति से जुड़ाव के साथ ही पुष्पित-पल्लवित हुई है। उदारीकरण के तमाम झंझावातों के बावजूद भारतीय आदिवासी समाज अब भी प्रकृति-प्रेम के अपने पारंपरिक पाठ को भूल नहीं पाया है। वनवासी समुदाय के स्वभाव में ही है कि प्रकृति से उतना ही लो, जितना जरूरी है। बदले में उसकी सेवा भी करो और जरूरत पड़े, तो उसके लिए मर-मिटो।
राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू चूंकि भारत की स्वाभिमानी संथाल समुदाय से आती हैं, लिहाजा उनकी रगों में भी यह अद्भुत प्रकृति-प्रेम लगातार बह रहा है। यही वजह है कि अपनी जिंदगी के सबसे महत्वपूर्ण क्षणों में भी उन्हें यह बात याद रही। महात्मा गांधी ने हिंद स्वराज में आजाद भारत में जिस समाज और व्यवस्था की कल्पना की थी, उसके मूल में भी प्रकृति प्रेम के ये विचार ही थे। उन्होंने अपने चिंतन और व्यवहार में जिस अपरिग्रह की बात की है, दरअसल वह प्रकृति से जरूरत भर हासिल करने के मूल विचार पर ही आधारित है।
राममनोहर लोहिया भी जब हिमालय बचाओ या नदियों की रक्षा की बात करते हैं, तो दरअसल वह भी भारतीयता की उसी वैचारिक धारा को अभिव्यक्त कर रहे होते हैं, जो प्रकृति पूजक है। यह भी संयोग है कि राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू जिस राजनीतिक धारा का प्रतिनिधित्व करती रही हैं, उसके वैचारिक पुरोधा दीनदयाल उपाध्याय का आर्थिक दर्शन भी अपरिग्रह और प्रकृति से सामंजस्य का हिमायती रहा है। दीनदयाल उपाध्याय ने अपने विख्यात एकात्म मानवदर्शन में कहा है कि गैर-जरूरी उपभोग के लिए अंधाधुंध उत्पादन बढ़ाकर प्राकृतिक संसाधनों का दोहन गलत है।
ऐसा नहीं कि भारतीयता अपने इन पारंपरिक और अनमोल विचारों को भूल गई है। अंग्रेजी शासन की लूट-खसोट और भारत को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप से रौंदने वाले विलायती दर्शन से जो व्यवस्था तैयार हुई, उसने भारतीयों को इस वैचारिक दर्शन से दूर करके रख दिया। यूरोप की औद्योगिक क्रांति ने दुनिया को उपभोग की जो राह दिखाई, उदारीकरण की वैचारिक धारा ने उसे चरम पर पहुंचा दिया। इसका वैश्विक स्तर पर दुष्प्रभाव दिखने लगा है।
दुनिया पिछली सदी की तुलना में करीब डेढ़ डिग्री ज्यादा गर्म हो गई है। औद्योगिक क्रांति वाले पश्चिमी देशों ने अब प्रदूषण के कारकों पर नियंत्रण पाने की कवायद के तहत कभी तीसरी दुनिया माने जाते रहे देशों पर दबाव बढ़ाना शुरू कर दिया है। लेकिन इन देशों की दुविधा यह है कि उनके सामने अपने करोड़ों नागरिकों के जीवन-स्तर को उठाना अब भी बड़ी चुनौती बनी हुई है। कार्बन उत्सर्जन के मामले में चीन जहां पहले नंबर पर है, वहीं भारत तीसरे स्थान पर है।
ऐसे में, अगर राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू प्रकृति के साथ सामंजस्य बनाने के विचार को आगे बढ़ाने की बात करती हैं, तो वह दुनिया को संदेश दे रही हैं। संदेश यह कि प्रकृति का अंधाधुंध दोहन बंद हो, और प्रकृति के साथ जुड़ाव की परंपरा को राष्ट्रीय स्तर ही नहीं, वैश्विक स्तर पर बढ़ाया जाए। वह बताना चाहती हैं कि दुनिया उसी समाज के विचारों से आगे बढ़ सकती है, जिसे पिछड़ा और गंवार माना जाता रहा है। तो क्या माना जाए कि भारत की भावी पर्यावरण नीति और सामाजिक सोच पर भी राष्ट्रपति के इन संदेशों का असर पड़ेगा। उम्मीद है कि अपने कार्यकाल में राष्ट्रपति कम से कम इस मुद्दे पर ज्यादा सक्रिय रहेंगी, जिसका असर समाज और व्यवस्था पर पड़े बिना नहीं रहेगा।
सोर्स: अमर उजाला
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