सम्पादकीय

लुंबिनी से संदेश : प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बेहद छोटी नेपाल यात्रा के मायने, निकट अतीत की विसंगतियां दुरुस्त होगीं

Neha Dani
18 May 2022 2:44 AM GMT
लुंबिनी से संदेश : प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बेहद छोटी नेपाल यात्रा के मायने, निकट अतीत की विसंगतियां दुरुस्त होगीं
x
लेकिन यह तो समय ही बताएगा कि यह शांति लंबे समय तक कायम रहेगी, या यह तूफान से पहले की खामोशी है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बेहद छोटी, लेकिन महत्वपूर्ण नेपाल यात्रा को निकट अतीत की विसंगतियों को दुरुस्त करने और मौजूदा दोतरफा संबंधों का पूरा लाभ उठाने के एक प्रयास के तौर पर देखा जाना चाहिए। वैसे तो नेपाल एक हिंदू बहुसंख्यक राष्ट्र है, लेकिन यह अपने उस सुनहरे अतीत को भी बहुत महत्व देता है, जब वहां बौद्ध धर्म फला-फूला था। नेपाल के लिए लुंबिनी एक जगह मात्र नहीं है, बल्कि यह बौद्ध धर्म के प्रवर्तक गौतम बुद्ध की पावन जन्मस्थली भी है।

दरअसल नेपाल के बौद्धिकों के एक हिस्से की हमेशा से यह शिकायत रही है कि भारत ने खुद को दुनिया में बौद्ध धर्म के स्रोत और प्रवतर्क देश के रूप में पेश किया है, क्योंकि बुद्ध से जुड़ी हुई सारनाथ, बोधगया और दूसरी कुछ जगहें भारत में ही हैं। सच्चाई भी यही है कि बुद्ध ने सिद्धार्थ के रूप में जन्म बेशक लुंबिनी में लिया हो, लेकिन उन्हें बुद्धत्व की प्राप्ति बिहार के बोधगया में हुई, उन्होंने अपना पहला उपदेश सारनाथ में दिया, और उनका निर्वाण कुशीनगर में हुआ।
बौद्ध धर्म के बारे में भारत और बाहर के देशों में जितना भी लिखा गया है, उन सब में यही बताया गया है कि बौद्ध धर्म की शुरुआत भारत में हुई थी। जबकि बुद्ध की प्राचीन मूर्तियां, प्रतिमाएं और बौद्ध धर्म से जुड़ी विरासत के निशान अफगानिस्तान, पाकिस्तान और श्रीलंका तक फैले हुए हैं। भारत की ही तरह इस पूरे क्षेत्र में कभी बौद्ध धर्म का व्यापक प्रसार था। बुद्ध पूर्णिमा के दिन प्रधानमंत्री मोदी की लुंबिनी यात्रा का मतलब बौद्ध धर्म के प्रवर्तक देश नेपाल को उसका वाजिब श्रेय देना था।
ऐतिहासिक, भौगोलिक और सांस्कृतिक पहलुओं के अलावा अपनी लुंबिनी यात्रा के जरिये मोदी ने एक मुद्दे पर भारत की ओर से की गई देरी को भी दुरस्त किया। उन्होंने लुंबिनी में इंडिया इंटरनेशनल सेंटर फॉर बुद्धिस्ट कल्चर ऐंड हेरिटेज की आधारशिला रखी। जाहिर है, यह बहुत देरी से उठाया गया कदम है, क्योंकि बौद्ध दर्शन और संस्कृति को प्रोत्साहित करने के लिए अमेरिका, चीन, कनाडा, फ्रांस, जर्मनी और थाईलैंड जैसे देश दशकों पहले लुंबिनी में अपने-अपने केंद्र स्थापित कर चुके हैं।
लुंबिनी में यह भारतीय केंद्र तीन साल में तैयार होगा। नई दिल्ली स्थित अंतरराष्ट्रीय बौद्ध महासंघ (आईबीसी) इसका निर्माण करेगा, जिसमें लगभग एक अरब रुपये खर्च होंगे। दरअसल विगत मार्च में हुए समझौते के बाद लुंबिनी विकास ट्रस्ट ने अंतरराष्ट्रीय बौद्ध महासंघ को लुंबिनी में भारतीय केंद्र के निर्माण के लिए जगह आवंटित की। एक बार तैयार हो जाने के बाद लुंबिनी के इस भारतीय केंद्र में दुनिया भर के श्रद्धालु और पर्यटक ठहर सकेंगे। प्रधानमंत्री मोदी की इस संक्षिप्त नेपाल यात्रा में फोकस, जाहिर है, काठमांडू के बजाय लुंबिनी पर रहा।
लुंबिनी नेपाल की पवित्रतम जगह तो है ही, उस देश के कुछ महत्वपूर्ण सांस्कृतिक केंद्रों में से भी है, इस कारण यूनेस्को ने इसे अपनी विश्व धरोहर सूची में रखा है। प्रधानमंत्री मोदी ने लुंबिनी में जो कुछ भी कहा, उसके कूटनीतिक महत्व की अनदेखी नहीं की जा सकती। मोदी की टिप्पणी थी कि 'भारत और नेपाल के रिश्ते हिमालय की तरह हैं, जिन्हें हिलाया नहीं जा सकता।' उन्होंने नेपाल के साथ भारत के संबंधों के बारे में वही कहा, जो चीन अक्सर पाकिस्तान के साथ अपने रिश्तों के बारे में कहता है।
पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान जब चीन के दौरे पर गए थे, तब शी जिनपिंग ने कहा था कि चीन और पाकिस्तान के रिश्ते पहाड़ों से भी ऊंचे और सागर से भी गहरे हैं। चारों तरफ से जमीन से घिरे नेपाल में 'ऊंचे पहाड़' हैं। उसे 'गहरे समुद्र' तक जाने का रास्ता भारत ही मुहैया करा सकता है। पहले नेपाल के प्रधानमंत्री शेरबहादुर देउबा की भारत यात्रा और अब मोदी की संक्षिप्त नेपाल यात्रा से वस्तुतः उस आपसी भरोसे और सहयोग की नए सिरे से शुरुआत हो सकती है, जिसकी नेपाल को बहुत जरूरत है।
नेपाल अपने उत्पादों के परिवहन के लिए भारत पर पूरी तरह से निर्भर है। समुद्र यानी बंदरगाह तक नेपाल की पहुंच भारत के जरिये ही है, और नेपाल अपनी जरूरतों का बड़ा हिस्सा भारत और दूसरे देशों से आयात करता है। भारत-नेपाल के द्विपक्षीय संबंधों को गति देने के लिए दोनों तरफ से पूरी तैयारियां पहले ही कर ली गई थीं। मसलन, नेपाल में भारतीय राजदूत के खाली पड़े पद को 11 मई को-यानी मोदी की नेपाल यात्रा से महज पांच दिन पहले भरा गया।
नेपाल में हमारे नए राजदूत शंकर प्रसाद शर्मा ने भारत और नेपाल में स्थित बौद्ध स्थलों को जोड़कर बौद्ध सर्किट बनाने पर जोर दिया है। बौद्ध धर्म से संबंधित स्थलों पर फोकस करना भारत के लिए एकाधिक कारणों से महत्वपूर्ण है। इनमें से एक कारण वस्तुतः बौद्ध धर्म के वर्चस्व वाले दक्षिण एशियाई इलाकों और तिब्बत की मौजूदा स्थिति भी है, जो रणनीतिक कारणों से भारत के लिए बेहद महत्वपूर्ण हैं। भारत और नेपाल के प्रधानमंत्रियों की उपस्थिति में लुंबिनी में सांस्कृतिक और शैक्षिक आदान-प्रदान से संबंधित छह सहमति पत्रों पर भी दस्तखत किए गए।
इसके तहत बौद्ध विश्वविद्यालय में बौद्ध अध्ययन के लिए एक आंबेडकर चेयर होगा। हिमालय की ऊंचाई से जो कुछ कहा गया, भारत और दूसरे पड़ोसी देश उसकी अनदेखी नहीं कर सकते। प्रधानमंत्री की लुंबिनी यात्रा के राजनीतिक के अलावा रणनीतिक निहितार्थ भी हैं। रक्षामंत्री राजनाथ सिंह से लेकर सेना प्रमुख तक कह चुके हैं कि वे देश की उत्तरी सीमा पर (जिसमें नेपाल भी आता है) चौकस नजर रखेंगे, जिससे कि यथास्थिति बनाए रखी जा सके।
सीमा पार से यथास्थिति को पलटने की कोशिश का, जाहिर है, करारा जवाब दिया जाएगा। इस पृष्ठभूमि में, हिंदू बहुसंख्यक नेपाल में बुद्ध के जरिये दोनों देशों को जोड़ने की भारत की कोशिश का कूटनीतिक महत्व है। इसकी भी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए कि प्रधानमंत्री मोदी का यह नेपाल दौरा उत्तरी सीमा पर शांति के दौर में हुआ है। लेकिन यह तो समय ही बताएगा कि यह शांति लंबे समय तक कायम रहेगी, या यह तूफान से पहले की खामोशी है।

सोर्स: अमर उजाला

Next Story