सम्पादकीय

मर्ज दलबदल का

Subhi
20 Feb 2022 3:33 AM GMT
मर्ज दलबदल का
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दलबदल और चुनाव का संबंध कुछ ऐसा हो गया है, जैसा वर्षा ऋतु और हरियाली का। प्राय: हर चुनाव के पहले ऐसे समाचार सुर्खियों में आने शुरू हो जाते हैं

रघु ठाकुर: दलबदल और चुनाव का संबंध कुछ ऐसा हो गया है, जैसा वर्षा ऋतु और हरियाली का। प्राय: हर चुनाव के पहले ऐसे समाचार सुर्खियों में आने शुरू हो जाते हैं कि किसने कौन पार्टी छोड़ कर कौन-सी पार्टी का दामन थामा? कौन-सा नेता अपनी पार्टी से असंतुष्ट होकर किसी दूसरी पार्टी में जाकर संतुष्ट हो गया? और अब तो यह इतना आम हो गया है कि आम लोग भी चुनाव का समय आते ही कहने लगते हैं कि अब दलबदल शुरू होने वाला है।

वैसे तो दलबदल कोई आज की घटना नहीं है।

यह भारतीय राजनीति की पिछले पांच-छह दशक से स्थायी बीमारी बन गई है। इसमें कोई दो मत नहीं कि दलबदल की इस बीमारी को कांग्रेस पार्टी ने फैलाया है। जब कांग्रेस पार्टी से समाजवादी विचारधारा के लोग बाहर आए और अलग सोशलिस्ट पार्टी का गठन किया, तब जो समाजवादी नेता कांग्रेस के चुनाव चिह्न पर लड़ कर जीते थे, उन्होंने नैतिक आधार पर विधायिकाओं से इस्तीफा दिया था। तब उस वर्ग का सोचना था कि वे कांग्रेस के चिह्न पर चुन कर आए हैं और चूंकि उन्होंने कांग्रेस को छोड़ दिया है, अत: उन्हें फिर जनादेश लेना चाहिए। इस नैतिक प्रयोग में कई बड़े लोग चुनाव भी हारे, यहां तक कि आचार्य नरेंद्र देव जैसे समाजवादी चुनाव हार गए, पर उन्होंने नीति और सिद्धांत के रास्ते को नहीं छोड़ा।

पर केरल में बनी पहली समाजवादी सरकार और बाद में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेता ईएमएस नंबूदरीपाद की सरकार को कांग्रेस ने दलबदल करा कर या केंद्र के अधिकारों का इस्तेमाल कर हटाया। बाद के वर्षों में भी कांग्रेस जहां-तहां दलबदल कराती और प्रतिपक्षी सरकारों को गिराती रही। 1980 में तो दलबदल का खेल चरम पर पहुंचा, जब भजन लाल के नेतृत्व वाली जनता पार्टी सरकार को ही इंदिरा गांधी ने दलबदल करा कर कांग्रेस की सरकार बनवा दी। अब भाजपा ने दलबदल के खेल में कांग्रेस से ज्यादा सिद्धहस्तता हासिल कर ली है।

अन्य दल भी इससे अछूते नहीं हैं। क्षेत्रीय पार्टियां भी अपनी जरूरत के अनुसार दलबदल कराने का भरपूर प्रयास कर रही हैं। इसलिए अब दलबदल के लिए किसी एक को अपराधी बताना संभव नहीं है। ऐसा लगता है कि राजनीति के सारे कुएं में ही भांग पड़ गई है और राजनीति एक ऐसी मंडी बन गई, जहां अमूमन हर व्यक्ति अपवाद छोड़ कर अपनी-अपनी सुविधा से दुकानें तलाश रहा है।

हाल के पांच राज्यों के चुनावों की घोषणा होते ही पंजाब से लेकर लखनऊ तक, उत्तराखंड से लेकर असम तक दलबदल का खेल शुरू हो गया है। कोई रात को कांगे्रस में सोता और सुबह भाजपा में उठता है, कोई भाजपा में सोता और कांग्रेस में उठता है। उत्तर प्रदेश में भाजपा के कुल मिला कर सात विधायकों ने रातोंरात पाला बदल लिया। उसके जवाब में भाजपा ने सपा परिवार की बहू और कुछ अन्य लोगों को अपने में शामिल कर लिया।

सन 2020 में दल बदलने के कारण जो इस्तीफे हुए थे, उन्हें कानून की लाचारी के कारण विधानसभा से इस्तीफा देकर चुनाव लड़ना पड़ा और उनमें से अधिकांश लोग चुनाव जीत गए। कई तो पहले से भी अधिक मतों से चुनाव जीते, यानी मतदाताओं ने भी दलबदल के खेल को मान्यता प्रदान कर दी और अब सांसद, विधायक निर्भय होकर दलबदल कर सकते हैं। पर जनता के एक हिस्से में इसको लेकर चिंता भी है। हालांकि हमारे यहां जातियों और धर्म समूहों ने दलबदल को अपनी जाति और धर्म के आधार पर स्वीकार्यता और बढ़ावा दिया है।

दलबदल को रोकने के लिए वैसे तो पहले कई प्रयास हुए हैं, कई समितियां बनी हैं, जिन्होंने अपनी रपट में दलबदल को रोकने के लिए समय-समय पर उपाय सुझाए हैं। चुनाव सुधार को लेकर बनी समितियों ने दलबदल के मर्ज पर उंगली उठाई। जयप्रकाश नारायण, दिनेश गोस्वामी समिति और अन्य समितियों ने अपनी रपट में दलबदल रोकने के उपायों की भी चर्चा की है। दलबदल केवल सत्ता की अस्थिरता पैदा नहीं करता, बल्कि एक अनैतिक समाज और राजनीति का भी निर्माण करता है।

1985 में पहला दलबदल विरोधी कानून बना था। उस समय राजीव गांधी के आलोचकों ने शक जताया था कि वे अपनी पार्टी के संभावित दलबदल के खतरे से बचाने के लिए यह कानून लाए हैं। कारण जो भी हो, पर आमतौर पर लोगों ने उस दलबदल कानून का स्वागत ही किया था। हालांकि उस कानून में कई बड़ी खामियां भी थीं, जैसे अगर एक तिहाई विधायक, सांसद दल छोड़ते हैं, तो वह दलबदल नहीं माना जाएगा। इसका मतलब हुआ कि थोक दलबदल मान्य है, फुटकर अमान्य है।

इस कानून में दलबदल करने के बारे में निर्णय करने का अधिकार विधानसभा और संसद के अध्यक्ष को दिया गया था। चूंकि वे खुद एक दल के नुमाइंदे होते हैं और आगे भी चुनाव लड़ने के इच्छुक होते हैं या अपने परिवार के लोगों को टिकट दिलाना चाहते हैं या अन्य प्रकार का लालच पाले रहते हैं, इसलिए आमतौर पर अध्यक्ष साहबान ने शायद ही कभी कोई निष्पक्ष निर्णय किया हो। वरना वह तो दलीय नेतृत्व के इशारे पर फैसले करते रहे हैं।

बाद में इस कानून में और संशोधन किए गए, पर इन कदमों से भी दलबदल नहीं रुका। दलबदल कभी-कभी सैद्धांतिक कारणों से भी होता है, पर बहुत कम। यह भी खतरा है कि अगर दलबदल रोकने के नाम पर दलों को असीमित अधिकार मिल जाएंगे तो राजनीतिक दलों का शीर्ष नेतृत्व और निरंकुश बन जाएगा। इस खतरे को भी समझना होगा। इसलिए :

मतदाता भी उस व्यक्ति को, जो अपना दल बदल कर किसी दूसरे दल से चुनाव लड़ता है, तो ऐसे दलबदलू को नकारे। पर अगर उस व्यक्ति ने अपने पार्टी के भीतर या विधायिकाओं के मंच पर कोई नीतिगत मुद्दा त्यागपत्र देने के पूर्व उठाया है, तो उसके विरुद्ध कार्रवाई पर रोक होनी चाहिए। यानी दल के प्रति प्रतिबद्धता या स्वार्थ के दलबदल के मध्य जो बारीक सीमा रेखा है, उसे समझना होगा।

अगर चुनाव के पहले कोई जनप्रतिनिधि पार्टी के संविधान संगत संगठनात्मक समितियों के समक्ष पक्ष परिवर्तन के कम से कम छह माह पहले से कोई मुद्दा, जो उसके मन के अनुसार नीतिगत है, उठाता है, तो उसे पार्टी छोड़ने का अधिकार होना चाहिए। यह दलबदल नहीं होगा, बल्कि दल का त्याग होगा।

कोई भी व्यक्ति भले वह किसी भी कारण से हो, नीतिगत या अन्य, अगर चुनाव के पहले अपनी पार्टी से इस्तीफा देता है और दूसरी पार्टी में जाता है, तो उसकी सदस्यता अनिवार्य रूप से समाप्त की जाना चाहिए।

जो व्यक्ति दलबदल करता है उसके साथ-साथ उसे दलबदल कराने वाली पार्टी को भी अपराधी माना जाना चाहिए तथा उस पार्टी की मान्यता और पंजीयन समाप्त करना चाहिए।

जो भी व्यक्ति अपना दल बदलता है, उसे आगामी दो चुनावों तक कोई भी चुनाव लड़ने की पात्रता न हो तथा उसे किसी सरकार की सुविधा वाले पद पर नियुक्त नहीं होना चाहिए।

हालांकि दलबदल का मामला इतना सड़ चुका है कि इसे थिगड़ेबाजी से ठीक करना संभव नहीं है। अब तो पूरी चादर को बदलना होगा।


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