सम्पादकीय

स्मृति शेष: डॉ. एस एन सुब्बाराव, महात्‍मा गांधी के भाई जी...

Gulabi
27 Oct 2021 12:03 PM GMT
स्मृति शेष: डॉ. एस एन सुब्बाराव, महात्‍मा गांधी के भाई जी...
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वे सलेम नंजुंदइयाह सुब्बा राव थे, मगर जमाना उन्हें ‘भाईजी’ के आत्मीय सम्बोधन से पुकारता था

वे सलेम नंजुंदइयाह सुब्बा राव थे, मगर जमाना उन्हें 'भाईजी' के आत्मीय सम्बोधन से पुकारता था. वे डॉ. एसएन सुब्बाराव कहलाते थे मगर हाफ पैंट और खादी की शर्ट उनकी खास पहचान थी. वे अविवाहित थे, मगर राष्ट्रीय सेवा योजना के संस्थापक, नेशनल यूथ कैम्प में माध्यम से देश के कोने कोने में अनुयायियों का कुनबा खड़ा किया है.


आत्मबल और समभाव उनका ऐसा सामर्थ्य था जिसके आगे डाकुओं ने भी समर्पण कर दिया था. न तेरी, न मेरी बल्कि जगत की जय का उद्घोष करने वाले भाई जी की रग-रग में गांधीवाद समाया हुआ था. वे सच्चे अर्थों में गांधीवादी थे. आचार, विचार और समग्र जीवन में गांधी के पर्याय बन गए भाई जी को बाद की पीढ़ी ने गांधी ही समझा. उनके आचरण से गांधी और गांधी मार्ग को जाना है.

इतने विराट व्यक्तित्व के धनी डॉ. एस एन सुब्बाराव 'भाई जी' का निधन हो गया है. उन्होंने बुधवार 27 अक्टूबर को तड़के जयपुर के अस्पताल में अंतिम सांस ली. गुरुवार शाम उनकी पार्थिव देह मुरैना पहुंचेगी, जिसे अंतिम दर्शनों के लिए रखा जाएगा. शाम को ही जौरा स्थित गांधी सेवा आश्रम में उनका अंतिम संस्कार किया जाएगा.

भाई जी ने ही जौरा के इस गांधी सेवा आश्रम की नींव रखी थी, जो अब श्योपुर तक गरीब व जरूरतमंदों से लेकर कुपोषित बच्चों के लिए काम कर रहा है. 7 फरवरी 1929 को कर्नाटक के बेंगलुरु में जन्मे डॉ. सुब्बाराव का पूरा जीवन समाजसेवा को समर्पित रहा है. अपने क्षेत्र के जानेमाने वकील पिता के पुत्र एस एन सुब्बाराव ने बचपन में ही अपने तीन भाइयों के साथ देशभक्ति के गीत गाने शुरू कर दिए थे. 13 वर्ष की उम्र में वे 1942 से आरम्भ हुए भारत छोड़ो आंदोलन में शामिल हुए थे.

ब्रिटिश पुलिस ने उन्हें सड़क पर नारे लिखता हुआ देख पकड़ा था मगर कम उम्र के कारण छोड़ दिया गया था. कानून की पढ़ाई करने के बाद डॉ. एन एस हार्डिकर के बुलावे पर डॉ. सुब्बाराव सेवादल से जुड़ गए. 1954 में वे चंबल क्षेत्र में आए. युवाओं के लिए कार्य करने की आवश्यकता को महसूस करते हुए उन्होंने जौरा को अपनी कर्मभूमि बनाया.

लगातार शिविर और सेवाकार्य के कारण हैं डॉ. सुब्बाराव डकैतों का हृदय परिवर्तन करने में सफल हुए थे. उनकी पहल पर 14 अप्रैल 1972 को जौरा के गांधी सेवा आश्रम में समाजवादी नेता जयप्रकाश नारायण एवं उनकी पत्नी प्रभादेवी के समक्ष 450 डकैतों ने आत्म समर्पण किया था. इसके अलावा 100 डकैतों ने राजस्थान के धौलपुर में गांधीजी की तस्वीर के सामने हथियार डाले थे.

पद्मश्री से सम्मानित डॉ. सुब्बाराव ने ही कॉलेजों के विद्यार्थियों में सेवा भाव विकसित करने के लिए राष्ट्रीय सेवा योजना आरम्भ की थी. उनकी युवा परियोजना को राष्ट्रीय युवा पुरस्कार प्रदान किया गया है. इसके अलावा उन्हें 2003 में राजीव गांधी राष्ट्रीय सद्भावना पुरस्कार, 2006 में जमानालाल बजाज पुरस्कार, 2014 में कर्नाटक सरकार की ओर से महात्मा गांधी प्रेरणा सेवा पुरस्कार और नागपुर में 2014 में ही राष्ट्रीय सद्भावना एकता पुरस्कार से सम्मानित किया गया था. हालांकि, इस भाई जी को सम्मानित करने से इन सम्मानों की ही प्रतिष्ठा बढ़ी है. वे तो अपने विचार यज्ञ में अनवरत जुटे रहे.

हर व्यक्ति जो भाई जी से एक बार भी मिला है उसके स्मृति पटल पर उनकी कई अनुपम छवियां अंकित हैं. मैंने उन्हें पहली बार 1997 में पचमढ़ी में मप्र के उच्च शिक्षा विभाग द्वारा आयोजित चिंतन शिविर में देखा था. सुबह सामुहिक प्रार्थना सभा में हमने उनके साथ चर्चित गीत 'जय जगत' मिल कर गाया था. हाफ पेंट और खादी का शर्ट पहने इकहरी देह यष्टि वाले भाई जी के विचारों के प्रति विशिष्ट भाव जागृत हुआ. बाद में भोपाल में हुईं कई मुलाकातों में भाई जी को वैसा ही समर्थ, ऊर्जावान और ओजपूर्ण पाया जैसा पहली मुलाकात में देखा था.

चंबल के बीहड़ों में गांधी के आदर्शों का आश्रम स्थापित करने वाले भाई जी जितने निडर और व्रती थे उतने ही सादगी पसन्द और किफायती भी. भोपाल में भेल के सेवानिवृत्त वरिष्ठ महाप्रबंधक विजय जोशी के निवास पर विश्राम हो या गांधी भवन में डेरा, भाई जी ने अपने सुख से अधिक इस बात का ख्याल रखा कि उनकी वजह से किसी को कष्ट न पहुंचे.

उनके इस व्यक्तित्व का परिचय करवाता एक किस्सा याद आता है. रतलाम के कला एवं विज्ञान महाविद्यालय के तत्कालीन प्राचार्य डॉ. जयकुमार जलज के अनुसार आपातकाल के दिनों में सुब्बाराव जी रतलाम आए थे. उनसे जयप्रकाश नारायण के स्वास्थ्य की जानकारी ले कर जलज जी ने डायलेसिस मशीन भेंट करने के लिए इस शर्त के साथ चंदा दिया था कि भाई जी रसीद नहीं भिजवाएँगे. कुछ दिन बाद एकान्त देखकर कॉलेज के भृत्य ने बताया कि 'सर, कल की डाक में जयप्रकाश की फोटावाला यह लिफाफा आपके नाम आया है. वह तो मेरी नज़र पड़ गई. उठाकर जेब में डाल लिया. नाज़ुक समय है. कहीं पुलिस को पता चल जाता तो?"

जलज जी अपने लिखते हैं कि लिफाफे पर चन्दा जमा करने वाली समिति का नाम और उद्देश्य बताने वाली इबारत भी मोटे अक्षरों में मुद्रित थी. मेरा माथा ठनका. सुब्बारावजी ने यह क्या किया! देश भर में घूमने वाले सुब्बाराव भला वक्त की नजाकत नहीं पहचानते होंगे! उन्हें सोचना तो था कि मेरा कितना नुक़सान हो सकता है! शासकीय कर्मचारी पर शासन की भृकुटी टेढ़ी होने में भला कोई वक्त और मेहनत लगती है?

घर आकर लिफाफा खोला. छपी हुई रसीद पर अंकों और शब्दों में जमाराशि लिखी हुई थी. रसीद का क्रमांक, दिनांक, दफ्तर की सील और प्रभारी के नाम सहित हस्ताक्षर थे, पर राशि किससे प्राप्त हुई का कालम खाली पड़ा था. जलज जी को राहत मिली. लिफाफा सेंसर होता भी तो पता नहीं चलता कि चन्दा किसने दिया है.

जलज जी लिखते हैं, दरअसल सुब्बाराव जी का गाँधीवादी मन बरदाश्त ही नहीं कर सकता था कि जिससे पैसा लिया है, उसे यह सूचना न मिले कि उसका पैसा यथास्थान पहुँच गया है. सार्वजनिक पैसे का पाई पाई हिसाब रखने की जवाबदेह और जिम्मेवार पारदर्शिता बरतनेवाले महात्मा गाँधी के शिष्य सुब्बाराव को वह करना ही था जो उन्होंने किया. उन्होंने हिसाब देने की अपनी आस्था को डिगने नहीं दिया, लेकिन मेरे योग-क्षेम को भी वहन किया. वे सत्य के रास्ते पर चले पर अहिंसा को साथ लेकर.

सबका ध्यान रखने वाले भाई जी का गाया 'जय जगत' गीत न्याय, शांति और प्रेम का उद्घोष गीत बन गया है. उनके अन्य विचारों को भूल भी जाएं तो भी इस गीत के भाव का अनुसरण कर लेना ही भारत के मानवता के पथ पर आगे बढ़ते रहने का संकेत होगा.

जय जगत, जय जगत, जय जगत पुकारे जा…

जय जगत पुकारे जा, सर अमन पे वारे जा

सबके हित के वास्ते अपना सुख बिसारे जा.

प्रेम की पुकार हो,सबको सबसे प्यार हो

जीत हो जहान की, क्यों किसी की हार हो.

जय जगत…

न्याय का विधान हो, सबका हक समान हो

सबकी अपनी हो जमीन, सबका आसमान हो.

जय जगत …

रंग भेद छोड़ दो, जाति पाँति तोड़ दो..

मानवों में आपसी अखंड प्रीत जोड़ दो.

जय जगत…

शांति की हवा चले, जग कहे भले भले

दिन उगे सनेह का, रात रंज की ढले..

जय जगत, जय जगत, जय जगत पुकारे जा…

(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
पंकज शुक्‍ला, पत्रकार, लेखक
(दो दशक से ज्यादा समय से मीडिया में सक्रिय हैं. समसामयिक विषयों, विशेषकर स्वास्थ्य, कला आदि विषयों पर लगातार लिखते रहे हैं.)


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