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- स्मृति ही जीवन है
उदासी भी एक समय के बाद छीजने लगती है। उसे खुद से उकताहट होने लगती हो मानो। लेकिन जब तक उदास होने की वजह खत्म न हो, आखिर रास्ता या विकल्प ही क्या इसमें धंसे रहने के सिवा। इस महामारी का यह दौर कई तरह की स्थायी उदासियां देकर गया है। और अभी गया भी कहां है। पता नहीं कब किस शक्ल में फिर लौट जाए। डर कई बार जब जीवन का हिस्सा बन जाता है तो बार-बार लौट कर आता है। लेकिन सामान्य जीवन की पुकार इस कदर आकर्षक है कि पांव खिंचते ही चले जाते हैं उस ओर। डर से लड़ना पड़ता है। आगे निकलना पड़ता है। तभी कह सकते हैं कि डर के आगे जीत है। यही मनुष्य का स्वभाव है। देखा जाए तो इसी में जीवन की उम्मीद छिपी हुई है। 'जीवन चलने का नाम' की तर्ज पर फिर से बाजार, दफ्तर और सोशल मीडिया के अलग-अलग मंच गुलजार होने को हैं। हालांकि चारों तरफ पसरे सन्नाटे के बीच सोशल मीडिया ही ऐसा कोना रहा, जिसने एक दूसरे को जोड़े रखा। लेकिन आभासी तौर पर जोड़े रखने का हासिल भी कितना गहरा हो सकता है! सोचती हूं कि यह सामान्य होना क्या है! हम किस जीवन की ओर लौटने की इच्छा से भरे हैं? वही जीवन, जो महामारी से पहले था या कोई और जीवन?