सम्पादकीय

स्मृति ही जीवन है

Subhi
5 Jun 2021 3:03 AM GMT
स्मृति ही जीवन है
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उदासी भी एक समय के बाद छीजने लगती है। उसे खुद से उकताहट होने लगती हो मानो।

उदासी भी एक समय के बाद छीजने लगती है। उसे खुद से उकताहट होने लगती हो मानो। लेकिन जब तक उदास होने की वजह खत्म न हो, आखिर रास्ता या विकल्प ही क्या इसमें धंसे रहने के सिवा। इस महामारी का यह दौर कई तरह की स्थायी उदासियां देकर गया है। और अभी गया भी कहां है। पता नहीं कब किस शक्ल में फिर लौट जाए। डर कई बार जब जीवन का हिस्सा बन जाता है तो बार-बार लौट कर आता है। लेकिन सामान्य जीवन की पुकार इस कदर आकर्षक है कि पांव खिंचते ही चले जाते हैं उस ओर। डर से लड़ना पड़ता है। आगे निकलना पड़ता है। तभी कह सकते हैं कि डर के आगे जीत है। यही मनुष्य का स्वभाव है। देखा जाए तो इसी में जीवन की उम्मीद छिपी हुई है। 'जीवन चलने का नाम' की तर्ज पर फिर से बाजार, दफ्तर और सोशल मीडिया के अलग-अलग मंच गुलजार होने को हैं। हालांकि चारों तरफ पसरे सन्नाटे के बीच सोशल मीडिया ही ऐसा कोना रहा, जिसने एक दूसरे को जोड़े रखा। लेकिन आभासी तौर पर जोड़े रखने का हासिल भी कितना गहरा हो सकता है! सोचती हूं कि यह सामान्य होना क्या है! हम किस जीवन की ओर लौटने की इच्छा से भरे हैं? वही जीवन, जो महामारी से पहले था या कोई और जीवन?

सामान्य शब्द का 'डायस' मेरे हाथों में है। इसे लगातार घुमा रही हूं। सामान्य क्या है? जो था, क्या वहीं लौटना अभिप्राय है या कहीं और जाना है? असल में वापस लौटने जैसा कुछ नहीं होता। कभी नहीं होता। होना भी नहीं चाहिए। लौटने में हमेशा एक नयापन शामिल रहता है। शामिल होना चाहिए। सुबह काम पर निकलते वक्त जो हम थे, शाम को लौटते वक्त उससे थोड़ा अलग हों तो बेहतर। थोड़ा बेहतर होते रहना मनुष्य की जिजीविषा होनी ही चाहिए। है भी शायद। लेकिन फिलहाल वह हमसे कहीं खो गई लगती है। या ढर्रे पर घिसटते हुए तथाकथित सफलता के पायदानों पर चढ़ते जाने के दबाव ने उसे हमसे छीन लिया है।
दरअसल, मुश्किल वक्त कभी खाली हाथ नहीं आता। पीड़ा और संताप के अलावा भी वह हमें बहुत कुछ देकर जाता है। क्या हम उसे देख पाते हैं? पीड़ा और संताप का वेग इतना प्रबल होता है कि हम कुछ और देख नहीं पाते। बहुत कम लोग देख पाते हैं उसे। बहुत कम। क्या यह देखने की सलाहियत होने या न होने का हासिल है? यह सलाहियत कैसे हासिल होती है? अगर किसी छूट जाती है तो उसकी क्या वजहें होंगी?
इस महामारी के प्रलय से अगर हम सुरक्षित बच सके हैं तो इतना ही काफी नहीं है। अब हमारे ऊपर दायित्व बढ़ा है ज्यादा बेहतर मनुष्य होने का, ज्यादा मानवीयता से भर उठने का। जीवन क्या है, कितना क्षणिक। कब छूट जाएगा, कुछ पता नहीं। कभी भी, कहीं भी मृत्यु अपनी टांग अड़ा देगी और जीवन के तमाम हिसाब-किताब मुंह के बल गिर पड़ेंगे। वही हिसाब-किताब जिनके लिए हम क्रूरता, अमानवीयता की हदें पार करते जाते हैं। क्यों? क्या होगा जो एक पदोन्नति कम मिलेगी? क्या हो जाएगा जो एक गहना कम होगा देह पर? क्या फर्क पड़ेगा अगर मानवीय मूल्यों के चलते हमें थोड़ा कम सफल व्यक्ति के तौर पर आंका जाएगा? असल सुख तो है चैन की वह नींद, जो हर रोज हमें बेहतर मनुष्य होने के रास्ते पर चलते हुए आई थकन से उबारती है।
इस दौरान अच्छे-भले व्यक्ति को 'बॉडी' यानी शव में तब्दील होते कई मौकों पर देखा। सांस के रहते तक वह व्यक्ति, व्यक्ति था। उसका नाम था, पहचान थी। सांस रुकते ही वह 'बॉडी' हो गया, जिसके लिए आइसीयू, ऑक्सीजन, दवाइयों के लिए दौड़ते फिर रहे थे, उसके लिए श्मशान घाट में नंबर आने पर फूंकने का इंतजार होने लगा। वह व्यक्ति कैसे अचानक स्मृति भर बन कर रह गया। इस स्मृति की यात्रा कितनी लंबी है, यह उसके जिए हुए पर निर्भर करता है। फेसबुक जैसे सोशल मीडिया के मंचों पर आए श्रद्धांजलियों की उछाल के बाद जो शेष बचती है जीवन में, वह स्मृति है। वह स्मृति ही असल में जीवन है।
दुख, पीड़ा, अवसाद ने इस बार इतना खरोंचा है कि मन एकदम लहूलुहान है। इस दौर में कितनी ही बार खयाल आया कि जाने अब हम अपनों से कभी मिल भी पाएंगे या नहीं। कितनों से तो नहीं ही मिल पाएंगे। कब कौन-सी बात आखिरी बन गई, कौन-सी मुलाकात आखिरी बन गई… हम अवाक् देखते रह गए। उस आखिरी रह गई मुलाकात और बात को मुट्ठियों में बांध लिया है। उस स्मृति में सांस शेष है। वह सांस लगातार कह रही है, जीवन को दुनिया के क्षुद्र छल-प्रपंचों से बचा कर जियो, हर लम्हा भरपूर जियो। किसी की आंख का आंसू न बनो, किसी के आहत मन का कारण न बनो, बस इतना बहुत है।
शरीर और जीवन का बहुत मोह नहीं करना चाहिए। जो लम्हे सामने हैं जीने को, उन लम्हों का मोह करना चाहिए। इस दारुण समय से हमने कुछ नहीं सीखा तो सामान्य जीवन की तरफ लौटने की हड़बड़ी किसी काम की नहीं।

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